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हाथ जोड़कर तुम क्या मांग रहे मुझको कुछ भी नहीं पता
बैठा था गर्मी की छुट्टी की आस में, क्या की थी मैंने खता
मैं तो बस मांगूं एक टी.वी.,एक पी.सी,एक आई फोन 6
और मांगू, गुम हो जाये चाबी स्कूल की, और मेरा बस्ता
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द्वार पर सांकल लगने लगी है
उत्सवों की चहल-पहल अब भीड़ लगने लगी है
अपनों की आहट अब गमगीन करने लगी है
हवाओं को घोटकर बैठते हैं सिकुड़कर हम
कोई हमें बुला न ले, द्वार पर सांकल लगने लगी है
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पार जरूर उतरना है
चल रे मन !
आज नैया की सैर कराउं !
पतवारों का क्या करना है।
खेवट को क्या रखना है।
बस अपने मन से तरना है।
डूबेंगें, उतरेंगे।
सीपी शंखों को ढूढेंगे।
मोती माणिक का क्या करना है।
उपर नीचे डोलेगी।
हिचकोले ले लेकर बोलेगी।
चल चल सागर के मध्य चलें।
लहरों संग संग तैर चलें।
पानी में छाया को छूलेंगे।
अपनी शक्लें ढूंढेंगे।
बस इतना ही तो करना है
पार जरूर उतरना है।
चल रे मन !
आज नैया की सैर कराउं !
यह अथाह शांत जलराशि
गगन की व्यापकता
ठहरी-ठहरी सी हवा,
निश्चल, निश्छल-सा समां
दूर कहीं घूमतीं
हल्की हल्की सी बदरिया।
तैरने लगती हूं, डूबने लगती हूं
फिर तरती हूं, दूर तक जाती हूं
फिर लौट लौट आती हूं।
इस सूनेपन में, इक अपनापन है।
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मन से अब भी बच्चे हैं
हाव-भाव भी अच्छे हैं
मन के भी हम सच्चे हैं
सूरत पर तो जाना मत
मन से अब भी बच्चे हैं
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बजता था डमरू
कहलाते शिव भोले-भाले थे पर गरल उन्होंने पिया था
विषधर उनके आभूषण थे त्रिशूल हाथ में लिया था
भूत-प्रेत संग नरमुण्डों की माला पहने, बजता था डमरू
त्रिनेत्र खोल तीनों लोकों के दुष्टों का संहार उन्होंने किया था
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अकेली हूं मैं
मेरे पास
बहुत सी अधूरी उम्मीदें हैं
और हर उम्मीद
एक पूरा आदमी मांगती है
अपने लिए।
और मेरे पास तो
बहुत सी
अधूरी उम्मीदें हैं
पर अकेली हूं मैं
अपने को
कहां कहां बांटूं ?
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पैसों से यह दुनिया चलती
पैसों पर यह दुनिया ठहरी, पैसों से यह दुनिया चलती , सब जाने हैं
जीवन का आधार,रोटी का संसार, सामाजिक-व्यवहार, सब माने हैं
छल है, मोह-माया है, चाह नहीं है हमको, कहने को सब कहते हैं पर,
नहीं हाथ की मैल, मेहनत से आयेगी तो फल देगी, इतना तो सब माने हैं
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वहीं के वहीं खड़े हैं
क्यों पूछते हो
कहाँ आ गये।
अक्सर लगता है
जहाँ से चले थे
वहीं के वहीं खड़े हैं
कदम ठहरे से
भाव सहमे से
प्रश्न झुंझलाते से
उत्तर नाकाम।
न लहरों में
लहरें
न हवाओं में
सिरहन
न बातों में
मिठास
न अपनों से
अपनापन
भावहीन-सा मन
क्यों पूछते हो
कहाँ आ गये
एक अर्थहीन
ठहराव में जी रहे हैं
क्यों पूछते हो
कहाँ आ गये।
अक्सर लगता है
जहाँ से चले थे
वहीं के वहीं खड़े हैं।
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सुना है कोई भाग्य विधाता है
सुना है
कोई भाग्य विधाता है
जो सब जानता है।
हमारी होनी-अनहोनी
सब वही लिखता है ,
हम तो बस
उसके हाथ की कठपुतली हैं
जब जैसा चाहे वैसा नचाता है।
और यह भी सुना है
कि लेन-देन भी सब
इसी ऊपर वाले के हाथ में है।
जो चाहेगा वह, वही तुम्हें देगा।
बस आस लगाये रखना।
हाथ फैलाये रखना।
कटोरा उठाये रखना।
मुंह बाये रखना।
लेकिन मिलेगा तुम्हें वही
जो तुम्हारे भाग्य में होगा।
और यह भी सुना है
कर्म किये जा,
फल की चिन्ता मत कर।
ऊपर वाला सब देगा
जो तुम्हारे भाग्य में लिखा होगा।
और भाग्य उसके हाथ में है
जब चाहे बदल भी सकता है।
बस ध्यान लगाये रखना।
और यह भी सुना है
कि जो अपनी सहायता आप करता है
उसका भाग्य ऊपर वाला बनाता है।
इसलिए अपनी भी कमर कस कर रखना
उसके ही भरोसे मत बैठे रहना।
और यह भी सुना है
हाथ धोकर
इस ऊपर वाले के पीछे लगे रहना।
तन मन धन सब न्योछावर करना।
मन्दिर, मस्जिद, गुरूद्वारा कुछ न छोड़ना।
नाक कान आंख मुंह
सब उसके द्वार पर रगड़ना।
और फिर कुछ बचे
तो अपने लिए जी लेना
यदि भाग्य में होगा तो।
आपको नहीं लगता
हमने कुछ ज़्यादा ही सुन लिया है।
अरे यार !
अपनी मस्ती में जिये जा।
जो सामने आये अपना कर्म किये जा।
जो मिलना है मिले
और जो नहीं मिलना है न मिले
बस हंस बोलकर आनन्द में जिये जा।
और मुंह ढककर अच्छी नींद लिये जा।
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मोबाईल: आवश्यकता अथवा व्यसन
हमारी एक प्रवृत्ति हो गई है कि हम बहुत जल्दी किसी भी बात की आलोचना अथवा सराहना करने लगते हैं। कोई एक करता है और फिर सब करने लगते हैं जैसे मानों नम्बर बनाने हों कि किसने कितनी आलोचना कर ली अथवा सराहना कर ली। जैसे हमारी विचार-शक्ति समाप्त हो जाती है और हम निर्भाव बहती धारा के साथ बहने लगते हैं।
मोबाईल!!!
आधुनिकता के इस युग में मोबाईल जीवन की आवश्यकता बन चुका है। चाहे कितनी भी आलोचना कर लें किन्तु वर्तमान सामाजिक परिस्थितियों में इसके महत्व और आवश्यकता को उपेक्षित नहीं किया जा सकता। हाँ, इतना अवश्य है कि आपको मोबाईल किस स्तर का चाहिए और किस कार्य के लिए।
एक समय था जब विद्यालयों में मोबाईल ले जाना प्रतिबन्धित था। फिर समय ऐसा आया कि यही मोबाईल शिक्षा का केन्द्र बन गया। कोराना काल ने आम आदमी के जीवन में इतने परिवर्तन कर दिये कि एक बार तो वह स्वयं ही समझ नहीं पाया कि यह सब क्या हो रहा है। जब तक समझ आती, जीवन की धाराएँ ही बदल चुकीं थीं।
शिक्षा का यह ऐसा काल था, लगभग दो वर्ष का, जिसने शिक्षा, ज्ञान और परीक्षाओं के सारे प्रतिमान ही बदल कर रख दिये। शिक्षा की इस नवीन प्रणाली ने पारिवारिक व्यवस्थाएँ, आवश्यकताएँ, जीवन का ढाँचा ही बदल कर रख दिया। देश के मध्यमवर्गीय परिवारों में रोटी से अधिक महत्वपूर्ण मोबाईल हो उठे। फिर वह पहली कक्षा का विद्यार्थी हो अथवा किसी बड़ी कक्षा का। किसी-किसी परिवार में एक साथ दो-दो लैपटॉप और तीन-चार मोबाईल की आवश्यकता उठ खड़ी हुई अर्थात लाखों का व्यय। आय बन्द, व्यवसाय बन्द, वेतन आधा और मोबाईल ज़रूरी। ऐसे कितने ही परिवार मैंने इस समय में देखे जहाँ माता-पिता के पास एक-एक मोबाईल था और पिता के पास लैपटॉप। अब तीन बच्चे। तीनों की एक समय ऑनलाईन क्लास। माता अध्यापिका। अब एक लैपटॉप और तीन मोबाईल की अनिवार्यता उठ खड़ी हुई। चाहिए भी एंड्राएड अर्थात कम से कम 15-20 हज़ार प्रति। जहाँ मोबाईल पढ़ाई की आवश्यकता बने वहाँ आदत का हिस्सा भी। असीमित ज्ञान का भण्डार। आय-व्यय, बैंकिंग, भुगतान-प्राप्ति का सरल साधन, डिजिटल पेमंट, खेल का माध्यम। बच्चे घर में बैठकर पूरी दुनिया से जुड़ रहे थे, ज्ञान का असीमित भण्डार का पिटारा मानों उनके सामने खुल गया था और वे अचम्भित थे। माता-पिता से जल्दी बच्चे यह सब सीखने लगे। इसमें कहीं भी कुछ भी ग़लत अथवा ठीक नहीं कहा जा सकता था, यह सब समय की आवश्यकता के कारण विकसित हो रहा था, जो धीरे-धीरे हमारे स्वभाव का हिस्सा बनता गया। यदि शिक्षा के क्षेत्र में यह मोबाईल न होता तो बच्चे दो वर्ष पीछे चले जाते और उन्होंने ऑन लाईन जो ज्ञान प्राप्त किया, आधुनिकता से जुड़े, वह एक बहुत बड़ा अभाव रह जाता।
आज का समय ऐसा नहीं है कि बच्चे विद्यालय से निकले और घर। नहीं जी, ट्यूशन, डांस क्लास, स्विमिंग, क्रिकेट और न जाने क्या-क्या। तब माता-पिता और बच्चों के बीच यही एक वार्तालाप का सहारा बनता है
ऐसा नहीं कि कोरोना काल में ही मोबाईल ने हमारे जीवन को प्रभावित किया। इससे पूर्व भी विद्यालयों में सीनियर कक्षाओं में प्रोजेक्ट वर्क, आर्ट वर्क और अनेक गृह कार्य ऐसे दिये जाते थे जो गूगल देवता की सहायता से ही किये जाते थे। कक्षाओं में स्मार्ट बोर्ड और अनेक तकनीक प्रयोग में पहले से ही चल रहे थे, बस मोबाईल की इसमें वृद्धि हुई।
किसी सीमा तक यह बात ठीक है कि जब किसी वस्तु का हम अत्याधिक प्रयोग करने लगत हैं तब आवश्यकता से बढ़कर वह हमारी आदत बन जाती है, हमें उसकी लत लग जाती है और जीवन पर दुष्प्रभाव पड़ने लगता है।
निश्चित रूप से बच्चे आज पक्षियों की भांति स्वतन्त्र पंछी नहीं रह गये हैं। इसका एक कारण मोबाईल हो सकता है किन्तु सारा दोष केवल मोबाईल को नहीं दिया जा सकता। आधुनिकतम जीवन शैली, शिक्षा एवं ज्ञान का माध्यम, बच्चे तो क्या हमारी पीढ़ी भी इसमें उलझी बैठी है। अब यह माता-पिता का कर्तव्य है और शिक्षा-संस्थानों का भी कि बच्चों को मोबाईल के उचित प्रयोग एवं सीमित प्रयोग के लिए प्रेरित करें न कि उन्हें आरोपित।
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रंग-बिरंगी ज़िन्दगी
इन पत्तों में रंग-बिरंगी दिखती है ज़िन्दगी
इन पत्तों-सी उड़ती-फिरती है ये जिन्दगी
कब झड़े, कब उड़े, हुए रंगहीन, क्या जानें
इन पत्तों-सी धरा पर उतार लाती है जिन्दगी।