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गीत मधुर हम गायेंगे
गई थी मैं दाना लाने
क्यों बैठी है मुख को ताने।
दो चींटी, दो पतंगे,
तितली तीन लाई हूं।
अच्छे से खाकर
फिर तुझको उड़ना
सिखलाउंगी।
पानी पीकर
फिर सो जाना,
इधर-उधर नहीं है जाना।
आंधी-बारिश आती है,
सब उजाड़ ले जाती है।
नीड़ से बाहर नहीं है आना।
मैं अम्मां के घर लेकर जाउंगी।
देती है वो चावल-रोटी
कभी-कभी देर तक सोती।
कई दिन से देखा न उसको,
द्वार उसका खटखटाउंगी,
हाल-चाल पूछकर उसका
जल्दी ही लौटकर आउंगी।
फिर मिलकर खिचड़ी खायेंगे,
गीत मधुर हम गायेंगे।
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चांदनी को तारे खिल-खिल हंस रहे
चांद से छिटककर चांदनी धरा पर है चली आई
पगली-सी डोलती, देखो कहां कहां है घूम आई
देख-देखकर चांदनी को तारे खिल-खिल हंस रहे
रवि की आहट से डर,फिर चांद के पास लौट आई
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परिवर्तन नियम है
परिवर्तन नित्य है,
परिवर्तन नियम है
किन्तु कहां समझ पाते हैं हम।
रात-दिन,
दिन-रात में बदल जाते हैं
धूप छांव बन ढलती है
सुख-दुःख आते-जाते हैं
कभी कुहासा कभी झड़ी
और कभी तूफ़ान पलट जाते हैं।
हंसते-हंसते रो देता है मन
और रोते-रोते
होंठ मुस्का देते हैं
जैसे कभी बादलों से झांकता है चांद
और कभी अमावस्या छा जाती है।
सूरज तपता है,
आग उगलता है
पर रोशनी की आस देता है।
जैसे हवाओं के झोंकों से
कली कभी फूल बन जाती है
तो कभी झटक कर
मिट्टी में मिल जाती है।
बड़ा लम्बा उलट-फ़ेर है यह।
कौन समझा है यहां।
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अपने मन की सुन
अपने-आपको
अपनी नज़र से
देखना-परखना
अपने सौन्दर्य पर
आप ही मोहित होना
कभी केवल
अपने लिए सजना-संवरना
दर्पण से बात करना
अपनी मुस्कुराहट से
आनन्दित होना
फूलों-सा महकना
रंगों की रंगीनियों में बहकना
चूड़ियों का खनकना
हार का लहकना
झुमकों की खनखन
पल्लू की थिरकन
मन में गुनगुन
बस अपने मन की सुन।
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टांके लगा नहीं रही हूं काट रही हूं
अपनी उलझनों को सिलते-सिलते
निहारती हूं अपना जीवन।
मिट्टी लिपा चूल्हा,
इस लोटे, गागर, थाली
गिलास-सा,
किसी पुरातन युग के
संग्रहालय की वस्तुएं हों मानों
हम सब।
और मैं वही पचास वर्ष पुरानी
आेढ़नी लिये,
बैठी रहती हूं
तुम्हारे आदेश की प्रतीक्षा में।
कभी भी आ सकते हो तुम।
चांद से उतरते हुए,
देश-विदेश घूमकर लौटे,
पंचतारा सुविधाएं भोगकर,
अपने सुशिक्षित,
देशी-विदेशी मित्रों के साथ।
मेरे माध्यम से
भारतीय संस्कृति-परम्पराओं का प्रदर्शन करने।
कैसा होता था हमारा देश।
कैसे रहते थे हम लोग,
किसी प्राचीन युग में।
कैसे हमारे देश की नारी
आज भी निभा रही है वही परम्परा,
सिर पर आेढ़नी लिये।
सिलती है अपने भीतर के टांके
जो दिखते नहीं किसी को।
लेकिन, ध्यान से देखो ज़रा।
आज टांके लगा नहीं रही हूं,
काट रही हूं।
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हम क्यों आलोचक बनते जायें
खबरों की हम खबर बनाएं,
उलट-पलटकर बात सुझाएं,
काम किसी का, बात किसी की,
हम यूं ही आलोचक बनते जाएं।
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मन से अब भी बच्चे हैं
हाव-भाव भी अच्छे हैं
मन के भी हम सच्चे हैं
सूरत पर तो जाना मत
मन से अब भी बच्चे हैं
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अब हर पत्थर के भीतर एक आग है।
मैंने तो सिर्फ कहा था "शब्द"
पता नहीं कब
वह शब्द नहीं रहे
चेतावनी हो गये।
मैंने तो सिर्फ कहा था "पत्थर"
तुम पता नहीं क्यों तुम
उसे अहिल्या समझ बैठे।
मैंने तो सिर्फ कहा था "नाम"
और तुम
अपने आप ही राम बन बैठे।
और मैंने तो सिर्फ कहा था
"अन्त"
पता नहीं कैसे
तुम उसे मौत समझ बैठे।
और यहीं से
ज़िन्दगी की नई शुरूआत हुई।
मौत, जो हुई नहीं
समझ ली गई।
पत्थर, जो अहिल्या नहीं
छू लिया गया।
और तुम राम नहीं।
और पत्थर भी अहिल्या नहीं।
जो शताब्दियों से
सड़क के किनारे पड़ा हो
किसी राम की प्रतीक्षा में
कि वह आयेगा
और उसे अपने चरणों से छूकर
प्राणदान दे जायेगा।
किन्तु पत्थर
जो अहिल्या नहीं
छू लिया गया
और तुम राम नहीं।
जब तक तुम्हें
सही स्थिति का पता लगता
मौत ज़िन्दगी हो गई
और पत्थर आग।
वैसे भी
अब तब मौमस बहुत बदल चुका है।
जब तक तुम्हें
सही स्थिति का पता लगता
मौत ज़िन्दगी हो गई
और पत्थर आग।
एक पत्थर से
दूसरे पत्थर तक
होती हुई यह आग।
अब हर पत्थर के भीतर एक आग है।
जिसे तुम देख नहीं सकते।
आज दबी है
कल चिंगारी हो जायेगी।
अहिल्या तो पता नहीं
कब की मर चुकी है
और तुम
अब भी ठहरे हो
संसार से वन्दित होने के लिए।
सुनो ! चेतावनी देती हूं !
सड़क के किनारे पड़े
किसी पत्थर को, यूं ही
छूने की कोशिश मत करना।
पता नहीं
कब सब आग हो जाये
तुम समझ भी न सको
सब आग हो जाये,एकाएक।।।।
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ऋद्धि सिद्धि बुध्दि के नायक
वक्रतुण्ड , एकदन्त, चतुर्भुज, फिर भी रूप तुम्हारा मोहक है
शांत चित्त, स्थिर पद्मासन में बैठै प्रिय भोज तुम्हारा मोदक है
ऋद्धि सिद्धि बुध्दि के नायक, क्षुद्र मूषक को सम्मान दिया
शिव गौरी के सुत, मां के वचन हेतु अपना मस्तक बलिदान किया
शांत चित्त, स्थिर पद्मासन में बैठै जग का नित कल्याण किया
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धन्यवाद देते रहना हमें Keep Thanking
आकाश को थाम कर खड़े हैं नहीं तो न जाने कब का गिर गया होता
पग हैं धरा पर अड़ाये, नहीं तो न जाने कब का भूकम्प आ गया होता
धन्यवाद देते रहना हमें, बहुत ध्यान रखते हैं हम आप सबका सदैव ही
पानी पीते हैं, नहा-धो लेते हैं नहीं तो न जाने कब का सुनामी आ गया होता।
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सरस-सरस लगती है ज़िन्दगी
जल सी भीगी-भीगी है ज़िन्दगी
कहीं सरल, कहीं धीमे-धीमे
आगे बढ़ती है ज़िन्दगी।
तरल-तरल भाव सी
बहकती है ज़िन्दगी
राहों में धार-सी बहती है ज़िन्दगी
चलें हिल-मिल
कितनी सुहावनी लगती है ज़िन्दगी
किसी और से क्या लेना
जब आप हैं हमारे साथ ज़िन्दगी
आज भीग ले अन्तर्मन,
कदम-दर-कदम
मिलाकर चलना सिखाती है ज़िन्दगी
राहें सूनी हैं तो क्या,
तुम साथ हो
तब सरस-सरस लगती है ज़िन्दगी।
आगे बढ़ते रहें
तो आप ही खुलने लगती हैं मंजिलें ज़िन्दगी