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पिछले बहत्तर साल से
देश में
योजनाओं की भरमार है
धन अपार है।
मन्दिर-मस्जिद की लड़ाई में
धन की भरमार है।
चुनावों में अरबों-खरबों लुट गये
वादों की, इरादों की ,
किस्से-कहानियों की दरकार है।
खेलों के मैदान पर
अरबों-खरबों का
खिलवाड़ है।
रोज़ पढ़ती हूं अखबार
देर-देर तक सुनती हूं समाचार।
गरीबी हटेगी, गरीबी हटेगी
सुनते-सुनते सालों निकल गये।
सुना है देश
विकासशील से विकसित देश
बनने जा रहा है।
किन्तु अब भी
गरीब और गरीबी के नाम पर
खूब बिकते हैं वादे।
वातानूकूलित भवनों में
बन्द बोतलों का पानी पीकर
काजू-मूंगफ़ली टूंगकर
गरीबी की बात करते हैं।
किसकी गरीबी,
किसके लिए योजनाएं
और किसे घर
आज तक पता नहीं लग पाया।
किसके खुले खाते
और किसे मिली सहायता
आज तक कोई बता नहीं पाया।
फिर वे
अपनी गरीबी का प्रचार करते हैं।
हम उनकी फ़कीरी से प्रभावित
बस उनकी ही बात करते हैं।
और इस चित्र को देखकर
आहें भरते हैं।
क्योंकि न वे कुछ करते हैं।
और न हम कुछ करते हैं।
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आई दुल्हन
पायल पहले रूनझुन करती आई दुल्हन।
कंगन बजते, हार खनकते, आई दुल्हन।
श्रृंगार किये, सबके मन में रस बरसाती]
घर में खुशियों के रंग बिखेरे आई दुल्हन।
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झूठ के बल पर
सत्य सदैव प्रमाण मांगता है,
और हम इस डर से,
कि पता नहीं
सत्य प्रमाणित हो पायेगा
या नहीं,
झूठ के बल पर
बेझिझक जीते हैं।
तब हमें
न सत्य की आंच सहनी पड़ती है,
न किसी के सामने
हाथ फैलाने पड़ते हैं।
पीढ़ी-दर-पीढ़ी
नहीं ढोने पड़ते हैं
आरोप–प्रत्यारोप,
न कोई आहुति , न बलिदान,
न अग्नि-परीक्षाएं
न पाषाण होने का भय।
नि:शंक जीते हैं हम ।
और न अकेलेपन की समस्या ।
एक ढूंढो
हज़ारों मिलेंगे साथ चलने के लिए।
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ऋण नहीं मांगता दान नहीं मांगता
समय बदला, युग बदले,
ज़मीन से आकाश तक,
चांद तारों को परख आया मानव।
और मैं !! आज भी
उसी खेत में
बंजर ज़मीन पर
अपने उन्हीं बूढ़े दो बैलों के साथ
हल जोतता ताकता हूं आकाश
कब बरसेगा मेह मेरे लिए।
तब धान उगेगा
भरपेट भोजन मिलेगा।
ऋण नहीं मांगता। दान नहीं मांगता।
बस चाहता हूं
अपने परिश्रम की दो रोटी।
नहीं मरना चाहता मैं बेमौत।
अगर यूं ही मरा
तब मेरे नाम पर राजनीति होगी।
सुर्खियों में आयेगा मेरा नाम।
फ़ोटो छपेगी।
मेरी गरीबी और मेरी यह मौत
अनेक लोगों की रोज़ी-रोटी बनेगी।
धन बंटेगा, चर्चाएं होंगी
मेरी उस लाश पर
और भी बहुत कुछ होगा।
और इन सबसे दूर
मेरे घर के लोग
इन्हीं दो बैलों के साथ
उसी बंजर ज़मीन पर
मेरी ही तरह
नज़र गढ़ाए बैठे होंगे आकाश पर
कब बरसेगा मेह
और हमें मिलेगी
अपने परिश्रम की दो रोटी
हां ! ये मैं ही हूं।
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यह वह मेरा सूरज तो नहीं
यह वह सूरज तो नहीं
जिसकी मैं बात किया करती थी।
यह वह सूरज भी नहीं
जो अक्सर
मेरे सपनों में आया करता था।
यह वह सूरज तो नहीं
जो मुझे राह दिखाया करता था।
यह वह सूरज भी नहीं
जो मेरी राहें आलोकित
किया करता था।
यह वह सूरज भी नहीं
जिस पर मैं विश्वास किया करती थी।
यह वह सूरज भी नहीं
जो मुझे रोज़ मिला करता था।
गली-गली ढूंढ रही
मेरा सूरज कहां गया।
यह सूरज तो राहों से भटक गया।
अंधेरे-रोशनी की
पहचान भूल गया।
जहां रोशनी चाहिए
वहां अंधेरा पसरता है,
किसी के घर में
झांके बिना ही निकल जाता है,
और कहीं आग बरसाता है।
मेरा सूरज तो ऐसा नासमझ नहीं था।
कल मिला बड़े दिनों के बाद।
पूछा मैंने कहाँ गये,
ऐसे कैसे हो गये।
सूरज मुस्काया,
समय के साथ चलना सीख।
नज़र बदल, सड़क बदल
कुछ कांटे बिछा, कुछ ज़हर उगल।
न अंधेरे से डर
न रोशनी की चाहत रख
जो मिले, उसे निगल
आगे बढ़, सबकी खींच।
न आस रख, न विश्वास रख
न जी का जंजाल रख।
सबको तोड़, अपने को जोड़
बस ऐसा जीवन जी
इशारा कर दिया मैंने
शेष अपनी बुद्धि लगा
और मस्त जीवन जी।
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गलत और सही
कहते हैं
अन्त सही तो सब सही।
किन्तु मेरे गले ऐसे
बोध-भाव नहीं उतरते।
शायद जीवन की कड़वाहटें हैं
या कुछ और।
किन्तु यदि
प्रारम्भ सही न हो तो
अन्त कैसे हो सकता है सही।
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भ्रष्टाचार
जब हम भ्रष्टाचार की बात करते हैं और दूसरे की ओर उंगली उठाते हैं तो चार उंगलियां स्वयंमेव ही अपनी ओर उठती हैं जिन्हें हम स्वयं ही नहीं देखते। यह पुरानी कहावत है।
वास्तव में हम सब भ्रष्टाचारी हैं। बात बस इतनी है कि जिसकी जितनी औकात है उतना वह भ्रष्टाचार कर लेता है। किसी की औकात 100 रू. की है तो किसी की 100 करोड़ की। किन्तु 100 रू वाला स्वयं को ईमानदार कहता है। हम मंहगाई की बात करते हैं किन्तु सुविधाभेागी हो गये हैं। बिना कष्ट उठाये धन से हर कार्य करवा लेना चाहते हैं। हमें दूसरे का भ्रष्टाचार भ्रष्टाचार लगता है और अपना आवश्यकता, विवशता।
यदि हम अपनी ओर उठने वाली चार उंगलियों के प्रश्न और उत्तर दे सकें तो शायद हम भ्रष्टाचार के विरूद्ध अपना योगदान दे सकते हैं:
पहली उंगली मुझसे पूछती है: क्या मैं विश्वास से कह सकते हूं कि मैं भ्रष्टाचारी नहीं हूं।
दूसरी उंगली कहती है: अगर मैं भ्रष्टाचारी नहीं हूं तो क्या भ्रष्टाचार का विरोध करती हूं ?
तीसरी उंगली कहती है: कि अगर मैं भ्रष्टाचारी नहीं हूं किन्तु भ्रष्टाचार का विरोध नहीं करती तो मैं उनसे भी बड़े भ्रष्टाचारी हूं।
और अंत में चौथी उंगली कहती है: अगर मैं भी भ्रष्टाचारी हूं तो सामने की उंगली को भी अपनी ओर मोड़ लेना चाहिए और मुक्का बनाकर अपने पर वार करना चाहिए। दूसरों को दोष देने और सुधारने से पहले पहला कदम अपने प्रति उठाना होगा।
यदि प्रत्येक नागरिक आत्मनियन्त्रण करे तो भ्रष्टाचार अवश्य ही दूर होगा।
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अन्तर्मन की आवाजें
अन्तर्मन की आवाजें अब कानों तक पहुंचती नहीं
सन्नाटे को चीरकर आती आवाजें अन्तर्मन को भेदती नहीं
यूं तो पत्ता भी खड़के, तो हम तलवार उठा लिया करते हैं
पर बडे़-बडे़ झंझावातों में उजडे़ चमन की बातें झकझोरती नहीं
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जब भी दूध देखा
सुना ही है
कि भारत में कभी
दूध-घी की
नदियाँ बहा करती थीं।
हमने तो नहीं देखीं।
बहती होंगी किसी युग में।
हमने तो
दूध को सदा
टीन के पीपों से ही
बहते देखा है।
हम तो समझ ही नहीं पाये
कि दूध के लिए
दुधारु पशुओं का नाम
क्यों लिया जाता है।
कैसे उनका दूध समा जाता है
बन्द पीपों में
थैलियों में और बोतलों में।
हमने तो जब भी दूध देखा
सदा पीपों में, थैलियों में
बन्द बोतलों में ही देखा।
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बालपन-सा था कभी
बालपन-सा था कभी निर्दोष मन
अब देखो साधता है हर दोष मन
कहां खो गई वो सादगी वो भोलापन
ढू्ंढता है दूसरों में हर खोट मन
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चेहरों पर फूल मन में कांटे
हमारी आदतें भी अजीब सी हैं
बस एक बार तय कर लेते हैं
तो कर लेते हैं।
नज़रिया बदलना ही नहीं चाहते।
वैसे मुद्दे तो बहुत से हैं
किन्तु इस समय मेरी दृष्टि
इन कांटों पर है।
फूलों के रूप, रस, गंध, सौन्दर्य
की तो हम बहुत चर्चा करते हैं
किन्तु जब भी कांटों की बात उठती है
तो उन्हें बस फूलों के
परिप्रेक्ष्य में ही देखते हैं।
पता नहीं फूलों के संग कांटे होते हैं
अथवा कांटों के संग फूल।
लेकिन बात दोनों की अक्सर
साथ साथ होती है।
इधर कांटों में भी फूल खिलने लगे है
और फूल
कांटों से चुभने लगे हैं।
लेकिन जब कांटों पर खिलते हैं फूल
तो हम कभी उनकी चर्चा ही नहीं करते।
बस इतना ही याद रख लिया है हमने
कि कांटों से चुभन होती है।
हां, होती है कांटों से चुभन।
लेकिन कांटा भी तो
कांटे से ही निकलता है।
और कभी छीलकर देखा है कांटों को
भीतर से कितने रसपूर्ण होते हैं ।
यह कांटे की प्रवृत्ति है
कि बाहर से तीक्ष्ण है,
पर भीतर ही भीतर खिलते हैं फूल।
एक अलग-सा
आकर्षण और सौन्दर्य
निहित होता है इनमें
जिसे परखना पड़ता है।
संजोकर देखना इन्हें,
जीवन भर अक्षुण्ण साथ देते है।
और जब मन में कांटे उगते हैं
तो यह पलभर का उद्वेलन नहीं होता।
जीवन रस
सूख सूख कर कांटों में बदल जाता है।
कोई जान न पाये इसे
इसलिए
कांटों की प्रवृत्ति के विपरीत
हम चेहरों पर फूल उगा लेते हैं
और मन में कांटे संजोये रहते हैं ।