Share Me
गगन
बादलों के आंचल में
चांद को समेटकर
छुपा-छुपाई खेलता रहा।
और हम
घबराये,
बौखलाये-से
ढूंढ रहे।
Share Me
Write a comment
More Articles
जामुन लटके पेड़ पर
जामुन लटके पेड़ पर
ऊंचे-ऊंचे रहते।
और हम देखो
आस लगाये
नीचे बैठै रहते।
आंधी आये, हवा चले
तो हम भी कुछ खायें।
एक डाली मिल गई नीची
हमने झूले झूले।
जामुन बरसे
हमने भर-भर लूटे।
माली आता देखकर
हम सब सरपट भागे।
चोरी-चोरी घर से
कोई लाया नमक
तो कोई लाया मिर्ची।
जिसको जितने मिल गये
छीन-छीनकर खाये।
साफ़ किया मुंह अच्छे-से
और भोले-भाले बनकर
घर आये।
मां ने “रंगे हाथ”
पकड़ी हमारी चोरी।
मां के हाथ आया डंडा
हम आगे-आगे
मां पीछे-पीछे भागे।
थक-हार कर बैठ गई मां।
Share Me
किसकी डोर किसके हाथ
कहां समझे हैं हम,
जीवन की सच्चाईयों और
चित्रों में बहुत अन्तर होता है।
कठपुतली नाच और
जीवन के रंगमंच के
नाटक का
अन्त अलग-अलग होता है।
स्वप्न और सत्य में
धरा-आकाश का अन्तर होता है।
इस चित्र को देखकर मन बहला लो ।
कटाक्ष और व्यंग्य का
पटल बड़ा होता है।
किसकी डोर किसके हाथ
यह कहां पता होता है।
कहने और लिखने की बात और है,
जीवन का सत्य क्या है,
यह सबको पता होता है ।
Share Me
चूड़ियां: रूढ़ि या परम्परा
आज मैंने अपने हाथों की
सारी चूड़ियों उतार दी हैं
और उतार कर सहेज नहीं ली हैं
तोड़ दी हैं
और टुकड़े टुकड़े करके
उनका कण-कण
नाली में बहा दिया हैं।
इसे
कोई बचकानी हरकत न समझ लेना।
वास्तव में मैं डर गई थी।
चूड़ियों की खनक से,
उनकी मधुर आवाज़ से,
और उस आवाज़ के प्रति
तुम्हारे आकर्षण से।
और साथ ही चूड़ियों से जुड़े
शताब्दियों से बन रहे
अनेक मुहावरों और कहावतों से।
मैंने सुना है
चूड़ियों वाले हाथ कमज़ोर हुआ करते हैं।
निर्बलता का प्रतीक हैं ये।
और अबला तो मेरा पर्यायवाची
पहले से ही है।
फिर चूड़ी के कलाई में आते ही
सौर्न्दय और प्रदर्शन प्रमुख हो जाता है
और कर्म उपेक्षित।
और सबसे बड़ा खतरा यह
कि पता नहीं
कब, कौन, कहां,
परिचित-अपरिचित
अपना या पराया
दोस्त या दुश्मन
दुनिया के किसी
जाने या अनजाने कोने में
मर जाये
और तुम सब मिलकर
मेरी चूड़ियां तोड़ने लगो।
फ़िलहाल
मैंने इस खतरे को टाल दिया है।
जानती हूं
कि तुम जब यह सब जानेगे
तो बड़ा बुरा मानोगे।
क्योंकि, बड़ी मधुर लगती है
तुम्हें मेरी चूड़ियों की खनक।
तुम्हारे प्रेम और सौन्दर्य गीतों की
प्रेरणा स्त्रोत हैं ये।
फुलका बेलते समय
चूड़ियों से ध्वनित होते स्वर
तुम्हारे लिए अमर संगीत हैं
और तुम
मोहित हो इस सब पर।
पर मैं यह भी जानती हूं
कि इस सबके पीछे
तुम्हारा वह आदिम पुरूष है
जो स्वयं तो पहुंच जाना चाहता है
चांद के चांद पर।
पर मेरे लिए चाहता है
कि मैं,
रसोईघर में,
चकले बेलने की ताल पर,
तुम्हारे लिए,
संगीत के स्वर सर्जित करती रहूं,
तुम्हारी प्रतीक्षा में,
तुम्हारी प्रशंसा के
दो बोल मात्र सुनने के लिए।
पर मैं तुम्हें बता दूं
कि तुम्हारे भीतर का वह आदिम पुरूष
जीवित है अभी तो हो,
किन्तु,
मेरे भीतर की वह आदिम स्त्री
कब की मर चुकी है।
Share Me
कहां है तबाही कौन सी आपदा
कहां है आपदा,
कहां हुई तबाही,
कोई विपदा नहीं कहीं।
कुछ मर गये,
कुछ भूखे रह गये।
किसी को चिकित्सा नहीं मिल पाई।
आग लगी या
भवन ढहा,
कौन-सा पहाड़ टूट पड़ा।
करोड़ों-अरबों में
अब किस-किस को देखेंगे?
घर-घर जाकर
किस-किसको पूछेंगे।
आसमान से तो
कह नहीं कर सकते,
बरसना मत।
सूरज को तो रोक नहीं सकते,
ज़्यादा चमकना मत।
सड़कों पर सागर है,
सागर में उफ़ान,
घरों में तैरती मछलियां देखीं आज,
और नदियों में बहते घर।
तो कहां है विपदा,
कहां है तबाही,
कौन सी आपदा।
बड़े-बड़े शहरों में
छोटी-छोटी बातें
तो होती रहती हैं सैटोरीना।
ज़्यादा मत सोचा कर।
Share Me
खास नहीं आम ही होता है आदमी
खास कहां होता है आदमी
आम ही होता है आदमी।
जो आम नहीं होता
वह नहीं होता है आदमी।
वह होता है
कोई बड़ा पद,
कोई उंची कुर्सी,
कोई नाम,
मीडिया में चमकता,
अखबारों में दमकता,
करोड़ों में खेलता,
किसी सौदे में उलझा,
कहीं झंडे गाढ़ता,
लम्बी-लम्बी हांकता
विमान से नीचे झांकता
योजनाओं पर रोटियां सेंकता,
कुर्सियों की
अदला-बदली का खेल खेलता,
अक्सर पूछता है
कहां रहता है आम आदमी,
कैसा दिखता है आम आदमी।
क्यों राहों में आता है आम आदमी।
Share Me
कहते हैं कोई फ़ागुन आया
फ़ागुन आया, फ़ागुन आया, सुनते हैं, इधर कोई फ़ागुन आया
रंग-गुलाल, उमंग-रसरंग, ठिठोली-होली, सुनते हैं फ़ागुन लाया
उपवन खिले, मन-मनमीत मिले, ढोल बजे, कहीं साज सजे
आकुल-व्याकुल मन को करता, कहते हैं, कोई फ़ागुन आया।
Share Me
संसार है घर-द्वार
अपनेपन, सम्बन्धों का आधार है घर-द्वार
रिश्तों का, विश्वास का संसार है घर-द्वार
जीवन बीत जाता है संवारने-सजाने में
सुख-दुख के सामंजस्य का आधार है घर-द्वार
Share Me
दुनिया कहती है
काश !
लौट आये
अट्ठाहरवीं शती ।
गोबर सानती,
उपले बनाती,
लकडि़या चुन,ती
वन-वन घूमती ।
पांच हाथ घूंघट ओढ़ती,
गागर उठा कुंएं से पानी लाती,
बस रोटियां बनाती,
खिलाती और खाती।
रोटियां खाती, खिलाती और बनाती।
सच ! कितनी सही होती जि़न्दगी।
-
दुनिया कहती है
बाकी सब तो मर्दों के काम हैं।
Share Me
ओ बादल अब तो बरस ले
तेरे बिना
जीवन की आस नहीं,
तेरे बिना जीव का भास नहीं,
न जाने क्यों
अक्सर रूठ जाया करते हैं।
बुलाने पर भी
नहीं सूरत दिखाया करते हैं।
जानते हो,
मौसम बड़ा बेरहम है,
बस झलक दिखाकर
अक्सर मुंह मोड़कर
चले जाया करते हैं।
न चिन्ता न जताया करते हैं।
ओ बादल!
अब तो बरस ले,
हर बार,
ग्रीष्म में यूं ही सताया करते हैं।
Share Me
ज़िन्दगी के सवाल
ज़िन्दगी के सवाल
कभी भी
पहले और आखिरी नहीं होते।
बस सवाल होते हैं
जो एक-के-बाद एक
लौट-लौटकर
आते ही रहते हैं।
कभी उलझते हैं
कभी सुलझते हैं
और कभी-कभी
पूरा जीवन बीत जाता है
सवालों को समझने में ही।
वैसे ही जैसे
कभी-कभी हम
अपनी उलझनों को
सुलझाने के लिए
या अपनी उलझनों से
बचने के लिए
डायरी के पन्ने
काले करने लगते हैं
पहला पृष्ठ खाली छोड़ देते हैं
जो अन्त तक
पहुँचते-पहुँचते
अक्सर फ़ट जाता है।
तब समझ आता है
कि हम तो जीवन-भर
निरर्थक प्रश्नों में
उलझे रहे
न जीवन का आनन्द लिया
और न खुशियों का स्वागत किया।
और इस तरह
आखिरी पृष्ठ भी
बेकार चला जाता है।