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बचपन की
यादों के झरोखे खुल गये,
कितने ही खेल खेलने में
मन ही मन जुट गये।
चलो, आपको सब याद दिलाते हैं।
खेल-कूद क्या होती है,
तुम क्या समझोगे फेसबुक बाबू।
वो चार कंचे जीतना,
बड़ा कंचा हथियाना,
स्टापू में दूसरे के काटे लगाना,
कोक-लाछी-पाकी में पीठ पर धौंस जमाना।
वो गुल्ली-डंडे में गुल्ली उड़ाना,
तेरी-मेरी उंच-नीच पर रोटियां पकाना,
लुका-छिपी में आंख खोलना।
आंख पर पट्टी बांधकर पकड़म-पकड़ाई ,
लंगड़ी टांग का आनन्द लेना।
कक्षा की पिछली सीट पर बैठकर
गिट्टियां बजाना, लट्टू घुमाना ।
कापी के आखिरी पन्ने पर
काटा-ज़ीरों बनाना,
पिट्ठू में पत्थर जमाना ।
पुरानी कापियों के पन्नों के
किश्तियां बनाना और हवाई-ज़हाज उड़ाना।
सांप-सीढ़ी के खेल में 99 से एक पर आना,
और कभी सात से 99 पर जाना।
पोशम-पा भई पोशम-पा में चोर पकड़ना।
व्यापार में ढेर-से रूपये जीतना।
विष-अमृत और रस्सी-टप्पा।
है तो और भी बहुत-कुछ।
किन्तु
खेल-कूद क्या होती है
तुम क्या समझोगे फेसबुक बाबू।
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कुछ सपने बोले थे कुछ डोले थे
कागज की कश्ती में
कुछ सपने थे
कुछ अपने थे
कुछ सच्चे, कुछ झूठ थे
कुछ सपने बोले थे
कुछ डोले थे
कुछ उलझ गये
कुछ बिखर गये
कुछ को मैंने पानी में छोड़ दिया
कुछ को गठरी में बांध लिया
पानी में कश्ती
इधर-उधर तिरती
हिलती
हिचकोले खाती
कहती जाती
कुछ टूटेंगे
कुछ नये बनेंगे
कुछ संवरेंगे
गठरी खुल जायेगी
बिखर-बिखर जायेगी
डरना मत
फिर नये सपने बुनना
नई नाव खेना
कुछ नया चुनना
बस तिरते रहना
बुनते रहना
बहते रहना
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मर्यादाओं की चादर ओढ़े
मर्यादाओं की चादर में लिपटी खड़ी है नारी
न इधर राह न उधर राह, देख रही है नारी
किसको पूछे, किससे कह दे मन की व्यथा
फ़टी-पुरानी, उधड़ी चादर ओढ़े खड़ी है नारी
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एक वृक्ष बरगद का सपना
मेरे आस-पास
एक बंजर है - रेगिस्तान।
मैंने अक्सर बीज बोये हैं।
पर वर्षा नहीं होती।
पर पानी के बिना भी
पता नहीं
कहां से नमी पाकर
अक्सर
हरी-हरी, विनम्र, कोमल-सी
कांेपल उग आया करती है
एक वृक्ष बरगद का सपना लेकर।
लेकिन वज्रपात !
इस बेमौसम
ओलावृष्टि का क्या करूं
जो सब-कुछ
छिन्न-भिन्न कर देती है।
पर मैं
चुप बैठने वाली नहीं हूं।
निरन्तर बीज बोये जा रही हूं।
यह निमन्त्रण है।
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मन को किसी गह्वर में रखना है मुझे
कल तक
एक घर मेरा था।
आज अचानक
सब बदल गया।
-
यह रूप-श्रृंगार
यह स्वर्ण-माल
मेरे
अगले जीवन का आधार
एक नया परिवार।
-
मात्र, एक पल लगा
मुझे एक से
दूसरे में बदलने में।
नाम-धाम सब सिमटने में।
-
नये सम्बन्ध, नये भाव
नये कर्तव्य और
पता नहीं कितने अधिकार।
सुना करती थी
बचपन से
पराया धन ! पराया धन !!
आज समझ पाई।
-
यह एक पल
न काम आती है
शिक्षा, न ज्ञान, न अभिमान
बस जीवन-परिवर्तन।
नहीं जानती
क्या मिला, क्या पाया, क्या खोया।
-
एक परिवार था मेरे पास
उसे मैं अपने जीवन के
पच्चीस वर्षों में न समझ पाई
किन्तु
एक नये परिवार को समझने के लिए
मुझे नहीं मिलेंगे
पच्चीस मिनट भी।
शायद पच्चीस पल में ही
मुझे सम्हालने होंगे
सारे नये सम्बन्ध
नये भाव, नया घर, नये लोग,
नई आशाएँ, आकांक्षाएँ।
-
मस्तिष्क एक डायरी बन गया।
-
पिछला क्या-क्या भूल जाना है मुझे
तिलांजलि देनी है
कौन-से सम्बन्धों को
और नया
क्या-क्या याद रखना है मुझे,
कितने कदम पीछे हटना है मुझे
कितने कदम आगे बढ़ना है मुझे।
ड्योढ़ी से अन्दर कदम रखते ही
ज्ञात हो जाना चाहिए सब मुझे।
रिश्तों के नये ताने-बाने को
संवारना है मुझे
सबकी भूख-प्यास का हिसाब
रखना है मुझे
अपने मन को किसी गह्वर में रखना है मुझे।
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ढोल की थाप पर
संगीत के स्वरों में कुछ रंग ढलते हैं
मनमीत के संग जीवन के पल संवरते हैं
ढोल की थाप पर तो नाचती है दुनिया
हम आनन्द के कुछ पल सृजित करते हैं।
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बुढ़िया सठिया गई है
प्रेम मनुहार की बात करती हूं वो मुझे दवाईयों का बक्सा दिखाता है।
तीज त्योहार पर सोलह श्रृंगार करती हूं वो मुझे आईना दिखाता है।
याद दिलाती हूं वो यौवन के दिन,छिप छिप कर मिलना,रूठना-मनाना ।
कहता है बुढ़िया सठिया गई है, पागलखाने का रास्ता दिखाता है।
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सीधी राहों की तलाश में जीवन
अपने दायरे आप खींच
न तकलीफ़ों से आंखें मींच
.
हाथों की लकीरें
अजब-सी
आड़ी-तिरछी होती हैं,
जीवन की राहें भी
शायद इसीलिए
इतनी घुमावदार होती हैं।
किन्तु इन
घुमावदार राहों
पर खिंची
आड़ी-तिरछी लकीरें
गोल दायरों में घुमाती रहती हैं
जीवन भर
और हम
इन राहों के आड़े-तिरछेपन,
और गोल दायरों के बीच
अपने लिए
सीधी राहों की तलाश में
घूमते रहते हैं जीवन भर।
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वहीं के वहीं खड़े हैं
क्यों पूछते हो
कहाँ आ गये।
अक्सर लगता है
जहाँ से चले थे
वहीं के वहीं खड़े हैं
कदम ठहरे से
भाव सहमे से
प्रश्न झुंझलाते से
उत्तर नाकाम।
न लहरों में
लहरें
न हवाओं में
सिरहन
न बातों में
मिठास
न अपनों से
अपनापन
भावहीन-सा मन
क्यों पूछते हो
कहाँ आ गये
एक अर्थहीन
ठहराव में जी रहे हैं
क्यों पूछते हो
कहाँ आ गये।
अक्सर लगता है
जहाँ से चले थे
वहीं के वहीं खड़े हैं।
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जीवन की नवीन शुरुआत
जीवन के कुछ पल
अनमोल हुआ करते हैं,
बड़ी मुश्किल से
हाथ आते हैं
जब हम
सारे दायित्वों को
लांघकर
केवल अपने लिए
जीने की कोशिश करते हैं।
नहीं अच्छा लगता
किसी का हस्तक्षेप
किसी का अपनापन
किसी की निकटता
न करे कोई
हमारी वृद्धावस्था की चिन्ता
हमारी हँसी-ठिठोली में
न बने बाधा कोई
न सोचे कोई हमारे लिए
गर्मी-सर्दी या रोग,
अब लेने दो हमें
टेढ़ेपन का आनन्द
ये जीवन की
एक नवीन शुरुआत है।
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आई दुल्हन
पायल पहले रूनझुन करती आई दुल्हन।
कंगन बजते, हार खनकते, आई दुल्हन।
श्रृंगार किये, सबके मन में रस बरसाती]
घर में खुशियों के रंग बिखेरे आई दुल्हन।