Share Me
खाली कागज पर लकीरें
खींचती रहती हूं मैं।
यूं तो
अपने दिल का हाल लिखती हूं,
पर सुना नहीं सकती
इस जमाने को,
इसलिए कह देती हूं
यूं ही
समय बिताने के लिए
खाली कागज पर लकीरें
खींचती रहती हूं मैं।
जब कोई देख लेता है
मेरे कागज पर
उतरी तुम्हारी तस्वीर,
पन्ना पलट कर
कह देती हूं,
यूं ही
समय बिताने के लिए
खाली कागज पर
लकीरें
खींचती रहती हूं मैं।
कोई गलतफहमी न
हो जाये किसी को
इसलिए
दिल का हाल
कुछ लकीरों में बयान कर
यूं ही
खाली कागज पर
लकीरें
खींचती रहती हूं मैं।
पर समझ नहीं पाती,
यूं ही
कागज पर खिंची खाली लकीरें
कब रूप ले लेती हैं
मन की गहराईयों से उठी चाहतों का
उभर आती है तुम्हारी तस्वीर ,
डरती हूं जमाने की रूसवाईयों से
इसलिए
अब खाली कागज पर लकीरें
भी नहीं खींचती हूं मैं।
Share Me
Write a comment
More Articles
कड़वा सच पिलवाऊँगा
न मैंने पी है प्यारी
न मैंने ली है।
नई यूनिफ़ार्म
बनवाई है
चुनाव सभा के लिए आई है।
जनसभा से आया हूँ,
कुछ नये नारे
लेकर आया हूँ।
चाय नहीं पीनी है मुझको
जाकर झाड़ू ला।
झाड़ू दूँगा,
हाथ भी दिखलाऊँगा,
फूलों-सा खिल जाऊँगा,
साईकिल भी चलाऊँगा,
हाथी पर तुझको
बिठलाऊँगा,
फिर ढोलक बजवाऊँगा।
वहाँ तीर-कमान भी चलते हैं
मंजी पर बिठलाऊँगा।
आरी भी देखी मैंने
हल-बैल भी घूम रहे,
तुझको
क्या-क्या बतलाउँ मैं।
सूरज-चंदा भी चमके हैं
लालटेन-बल्ब
सब वहाँ लटके हैं।
चल ज़रा मेरे साथ
वहाँ सोने-चाँदी भी चमके है,
टाट-पैबन्द भी लटके हैं,
चल तुझको
असली दुनियाँ दिखलाऊँगा,
चाय-पानी भूलकर
कड़वा सच पिलवाऊँगा।
Share Me
कितना मुश्किल होता है
कितना मुश्किल होता है
जब रोटी गोल न पकती है
दूध उफ़नकर बहता है
सब बिखरा-बिखरा रहता है।
तब बच्चा दिनभर रोता है
न खाता है न सोता है
मन उखड़ा-उखडा़ रहता है।
कितना मुश्किल होता है
जब पैसा पास न होता है
रोज़ नये तकाज़े सुनता
मन सहमा-सहमा रहता है।
तब आंखों में रातें कटती हैं
पल-भर काम न होता है
मन हारा-हारा रहता है।
कितना मुश्किल होता है,
जब वादा मिलने का करते हैं
पर कह देते हैं भूल गये,
मन तनहा-तनहा रहता है।
तब तपता है सावन में जेठ,
आंखों में सागर लहराता है
मन भीगा-भीगा रहता है ।
कितना मुश्किल होता है
जब बिजली गुल हो जाती है
रात अंधेरी घबराती है
मन डरा-डरा-सा रहता है।
तब तारे टिमटिम करते हैं
चांदी-सी रात चमकती है
मन हरषा-हरषा रहता है।
Share Me
हमारे नाम की चाबी
मां-पिता
जब ईंटें तोड़ते हैं
तब मैंने पूछा
इनसे क्या बनता है मां ?
मां हंसकर बोली
मकान बनते हैं बेटा!
मैंने आकाश की ओर
सिर उठाकर पूछा
ऐसे उंचे बनते हैं मकान?
कब बनते हैं मकान?
कैसे बनते हैं मकान?
कहां बनते हैं मकान?
औरों के ही बनते हैं मकान,
या अपना भी बनता है मकान।
मां फिर हंस दी।
पिता की ओर देखकर बोली,
छोटा है अभी तू
समझ नहीं पायेगा,
तेरे हिस्से का मकान कब बन पायेगा।
शायद कभी कोई
हमारे नाम से चाबी देने आयेगा।
और फिर ईंटें तोड़ने लगी।
मां को उदास देख
मैंने भी हथौड़ी उठा ली,
बड़ी न सही, छोटी ही सही,
तोड़ूंगा कुछ ईंटें
तो मकान तो ज़रूर बनेगा,
इतना उंचा न सही
ज़मीन पर ज़रूर बनेगा मकान!
Share Me
अनुभव की थाती
पर्वतों से टकराती, उबड़-खाबड़ राहों पर जब नदी-नीर-धार बहती है
कुछ सहती, कुछ गाती, कहीं गुनगुनाती, तब गंगा-सी निर्मल बन पाती है
अपनेपन की राहों में ,फूल उगें और कांटे न हों, ऐसा कम ही होता है
यूं ही जीवन में कुछ खोकर, कुछ पाकर, अनुभव की थाती बन पाती है।
Share Me
छोड़ दो अब मुफ्त की बात
क्या तुम्हारी शिक्षा
क्या आयु
कितनी आय
कौन-सी नौकरी
कौन-सा आरक्षण
और इस सबका क्या आधार ?
अनुत्तरित हैं सब प्रश्न।
यह कौन सी आग है
जो अपने-आप को ही जला रही है।
कैसे भूल सकते हैं हम
तिनका-तिनका जोड़कर
बनता है एक घरौंदा।
शताब्दियों से लूटे जाते रहे हम
आततायियों से।
जाने कहां से आते थे
और देश लूटकर चले जाते थे,
अपनों से ही युद्धों में
झोंक दिये जाते थे हम।
कैसे निकले उस सबसे बाहर
फिर शताब्दियां लग गईं,
कैसे भूल सकते हैं हम।
और आज !
अपना ही परिश्रम,
अपनी ही सम्पत्ति
अपना ही घर फूंक रहे हैं हम।
अपने ही भीतर
आततायियों को पाल रहे हैं हम।
किसके झांसे में आ गये हैं हम।
न शिक्षा चाहिए
न विकास, न उद्यम।
खैरात में मिले, नाम बाप के मिले
एक नौकरी सरकारी
धन मिले, घर मिले,
अपना घर फूंककर मिले,
मरे की मिले
या जिंदा दफ़न कर दें तो मिले
लाश पर मिले, श्मशान में मिले
कफ़न बेचकर मिले
बस मुफ्त की मिले
बस जो भी मिले, मुफ्त ही मिले
Share Me
ठहरी ठहरी सी लगती है ज़िन्दगी
अब तो
ठहरी-ठहरी-सी
लगती है ज़िन्दगी।
दीवारों के भीतर
सिमटी-सिमटी-सी
लगती है ज़िन्दगी।
द्वार पर पहरे लगे हैं,
मन पर गहरे लगे हैं,
न कोई चोट है कहीं,
न घाव रिसता है,
रक्त के थक्के जमने लगे हैं।
भाव सिमटने लगे हैं,
अभिव्यक्ति के रूप
बदलने लगे हैं।
इच्छाओं पर ताले लगने लगे हैं।
सत्य से मन डरने लगा है,
झूठ के ध्वज फ़हराने लगे हैं।
न करना शिकायत किसी की
न बताना कभी मन के भेद,
लोग बस
तमाशा बनाने में लगे हैं।
न ग्रहण है न अमावस्या,
तब भी जीवन में
अंधेरे गहराने लगे हैं।
जीतने वालों को न पूछता कोई
हारने वालों के नाम
सुर्खियों में चमकने लगे हैं।
अनजाने डर और खौफ़ में जीते
अपने भी अब
पराये-से लगने लगे हैं।
Share Me
डर ज़िन्दगी से नहीं लगता
डर ज़िन्दगी से नहीं लगता
ज़िन्दगी जीने के
तरीके से लगता है।
एहसास मिटने लगे हैं
रिश्ते बिखरने लगे हैं
कौन अपना,
कौन पराया,
समझ से बाहर होने लगे हैं।
सड़कों पर खून बहता है
हाथ फिर भी साफ़ दिखने लगे हैं।
कहने को हम हाथ जोड़ते हैं,
पर कहां खुलते हैं,
कहां बांटते हैं,
कहां हाथ साफ़ करते हैं,
अनजाने से रहने लगे हैं।
क्या खोया , क्या पाया
इसी असमंजस में रहने लगे हैं।
पत्थरों को चिनने के लिए
अरबों-खरबों लुटाने के लिए
तैयार बैठे हैं,
पर भीतर जाने से कतराने लगे हैं।
पिछले रास्ते से प्रवेश कर,
ईश्वर में आस्था जताने लगे हैं।
प्रसाद की भी
कीमत लगती है आजकल
हम तो, यूं ही
आपका स्वाद
कड़वा करने में लगे हैं।
Share Me
अनुभव की बात है
कभी किसी ने कह दिया
एक तिनके का सहारा भी बहुत होता है।
किस्मत साथ दे ,
तो सीखा हुआ
ककहरा भी बहुत होता है।
लेकिन पुराने मुहावरे
ज़िन्दगी में सदा साथ नहीं देते ।
यूं तो बड़े-बड़े पहाड़ों को
यूं ही लांघ जाता है आदमी ,
लेकिन कभी-कभी
एक तिनके की चोट से
घायल मन
हर आस-विश्वास खोता है।
Share Me
बेभाव अपनापन बांटते हैं
किसी को
अपना बना सकें तो क्या बात है।
जब रह रह कर
मन उदास होता है,
तब बिना वजह
खिलखिला सकें तो क्या बात है।
चलो आज
उड़ती चिड़िया के पंख गिने,
जो काम कोई न कर सकता
वही आज कर लें
तो क्या बात है।
किसी की
प्यास बुझा सकें तो क्या बात है।
चलो,
आज बेभाव अपनापन बांटते हैं,
किसी अपने को
सच में
अपना बना सकें तो क्या बात है।
Share Me
जीवन-दर्शन दे जाते हैं ये पत्थर
किसी छैनी हथौड़ी के प्रहार से नहीं तराशे जाते हैं ये पत्थर
प्रकृति के प्यार मनुहार, धार धार से तराशे जाते हैं ये पत्थर
यूं तो ठोकरे खा-खाकर भी जीवन संवर-निखर जाता है
इस संतुलन को निहारती हूं तो जीवन डांवाडोल दिखाई देता है
मैं भाव-संतुलन नहीं कर पाती, जीवन-दर्शन दे जाते हैं ये पत्थर
देखो तो सूर्य भी निहारता है जब आकार ले लेते हैं ये पत्थर