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शोर को चीरकर एक खामोशी बोलती है।
मन आहत, घुटता है, भावों को तोलती है।
चुप्पी में शब्दों की आहट गहरी होती है,
पकड़ सको तो मन के सारे घाव खोलती है।
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मत विश्वास कर परछाईयों पर
कौन कहता है दर्पण सदैव सच बताता है
हम जो देखना चाहें अक्सर वही दिखाता है
मत विश्वास कर इन परछाईयों-अक्सों पर
बायें को दायां और दायें को बायां बताता है
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उड़ती चिड़िया के पर न गिनूं मैं
आप अब तक मेरी कविताएँ पढ़कर जान ही चुके होंगे कि मेरी विपरीत बुद्धि है। एक चित्र आया कावय रचना के लिए। आपको इस चित्र में किसके दर्शन हुए? मेरे सभी मित्रों को, किसी को विरहिणी नायिका दिखी, किसी को राधा, किसी को मीरा, किसी को बाट जोहती प्रेमिका आदि-आदि-इत्यादि। किन्तु मुझे जैसा यह चित्र प्रतीत हुआ, रचना आपके सामने है।
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फ़ोटू हो गई हो
मेरे सैयां
तो ये ताम-झाम हटवा दे।
इक कुर्सी-मेज़ ला दे।
उड़ती चिड़िया के पर न गिनूं मैं
फ़्रिज से
थोड़ा शीतल जल पिलवा दे।
कब तक नुमाईश करेगा मेरी,
आप आधुनिक बन बैठा है
मुझको भी नयी ड्रैस सिलवा दे।
अब खाना-वाना
न बनता मुझसे
स्वीगी से मंगवा दे।
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ज़्यादा मत उड़
कौन सी वास्तविकता है
और कौन सा छल,
अक्सर असमंजस में रह जाती हूं।
रोज़ हर रोज़
समाचारों में गूंजती हैं आवाजे़ं
देखो हमने
नारी को
कहां से कहां पहुंचा दिया।
किसी ने चूल्हा बांटा ,
किसी ने गैस,
किसी की सब्सिडी छीनी
तो किसी की आस।
नौकरियां बांट रहे।
घर संवार रहे।
मौज करवा रहे।
स्टेटस दिलवा रहे।
कभी चांद पर खड़ी दिखी।
कभी मंच पर अड़ी दिखी।
आधुनिकता की सीढ़ी पर
आगे और आगे बढ़ी।
अपना यह चित्र देख अघाती नहीं।
अंधविश्वासों ,
कुरीतियों का विरोध कर
मदमाती रही।
प्रंशसा के अंबार लगने लगे।
तुम्हारे नाम के कसीदे
बनने लगे।
साथ ही सब कहने लगे
ऐसी औरतें घर-बार की रहती नहीं
पर तुम अड़ी रही
ज़रा भी डिगी नहीं।
-
ज़्यादा मत उड़ ।
कहीं भी हो आओ
लौटकर यहीं,
यही चूल्हा-चौका करना है।
परम्पराओं के नाम पर
घूंघट की ओट में जीना है।
और ऐसे ही मरना है।।।
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हां हूं मैं बगुला भक्त
यह हमारी कैसी प्रवृत्ति हो गई है
कि एक बार कोई धारणा बना लेते हैं
तो बदलते ही नहीं।
कभी देख लिया होगा
किसी ने, किसी समय
एक बगुले को, एक टांग पर खड़ा
मीन का भोजन ढूंढते
बस उसी दिन से
हमने बगुले के प्रति
एक नकारात्मक सोच तैयार कर ली।
बीच सागर में
एक टांग पर खड़ा बगुला
इस विस्तृत जल राशि
को निहार रहा है
एकाग्रचित्त, वासी,
अपने में मग्न ।
सोच रहा है
कि जानते नहीं थे क्या तुम
कि जल में मीन ही नहीं होती
माणिक भी होते हैं।
किन्तु मैंने तो
अपनी उदर पूर्ति के लिए
केवल मीन का ही भक्षण किया
जो तुम भी करते हो।
माणिक-मोती नहीं चुने मैंने
जिनके लिए तुम समुद्र मंथन कर बैठते हो।
और अपने भाईयों से ही युद्ध कर बैठते हो।
अपने ही भ्राताओं से युद्ध कर बैठे।
किसी प्रलोभन में नहीं रहा मैं कभी।
बस एक आदत सी थी मेरी
यूं ही खड़ा होना अच्छा लगता था मुझे
जल की तरलता को अनुभव करता
और चुपचाप बहता रहता।
तुमने भक्त कहा मुझे
अच्छा लगा था
पर जब इंसानों की तुलना के लिए
इसे एक मुहावरा बना दिया
बस उसी दिन आहत हुआ था।
पर अब तो आदत हो गई है
ऐसी बातें सुनने की
बुरा नहीं मानता मैं
क्योंकि
अपने आप को भी जानता हूं
और उपहास करने वालों को भी
भली भांति पहचानता हूं।
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काहे तू इठलाय
हाथों में कमान थाम, नयनों से तू तीर चलाय।
हिरणी-सी आंखें तेरी, बिन्दिया तेरी मन भाय।
प्रत्यंचा खींच, देखती इधर है, निशाना किधर है,
नाटक कंपनी की पोशाक पहन काहे तू इठलाय।
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वरदान और श्राप
किसी युग में
वरदान और श्राप
साथ-साथ चलते थे।
वरदान की आशा में
भक्ति
और कठोर तपस्या करते थे
किन्तु सदैव
कोई भूल
कोई चूक
ले डूबती थी
सब अच्छे कर्मों को
और वरदान से पहले
श्राप आ जाता था।
और कभी-कभी
इतनी बड़ी गठरी होती थी
भूल-चूक की
कि वरदान तक
बात पहुँच ही नहीं पाती थी
मानों कोई भारी
बैरीकेड लगा हो।
श्राप से वरदान टूटता था
और वरदान से श्राप,
काल की सीमा
अन्तहीन हुआ करती थी।
और एक खतरा
यह भी रहता था
कि पता नहीं कब वरदान
श्राप में परिवर्तित हो जाये
और श्राप वरदान में
और दोनों का घालमेल
समझ ही न आये।
-
बस
इसी डर से
मैं वरदान माँगने का
साहस ही नहीं करती
पता नहीं
भूल-चूक की
कितनी बड़ी गठरी खुल जाये
या श्राप की लम्बी सूची।
-
जो मिला है
उसमें जिये जा
मज़े की नींद लिए जा।
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वक्त कब कहां मिटा देगा
वक्त कब क्यों बदलेगा कौन जाने
वक्त कब बदला लेगा कौन जाने
संभल संभल कर कदम रखना ज़रा
वक्त कब कहां मिटा देगा कौन जाने
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कहत हैं रेत से घर नहीं बनते
मन से
अपनी राहों पर चलती हूं
दूर तक छूटे
अपने ही पद-चिन्हों को
परखती हूं
कहत हैं रेत से घर नहीं बनते
नहीं छूटते रेत पर निशान,
सागर पलटता है
और सब समेट ले जाता है
हवाएं उड़ती हैं और
सब समतल दिखता है,
किन्तु भीतर कितने उजड़े घर
कितने गहरे निशान छूटे हैं
कौन जानता है,
कहीं गहराई में
भीतर ही भीतर पलते
छूटे चिन्ह
कुछ पल के लिए
मन में गहरे तक रहते हैं
कौन चला, कहां चला, कहां से आया
कौन जाने
यूं ही, एक भटकन है
निरखती हूं, परखती हूं
लौट-लौट देखती हूं
पर बस अपने ही
निशान नहीं मिलते।
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वक्त कहां किसी का
वक्त को
जब मैं वक्त नहीं दे पाई
तो वह कहां मेरा होता ।
कहा मेरे साथ चल, हंस दिया।
कहा, ठहर ज़रा,
मैं तैयार तो हो लूं
साथ तेरे चलने के लिए,
उपहास किया मेरा।
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सुना है कोई भाग्य विधाता है
सुना है
कोई भाग्य विधाता है
जो सब जानता है।
हमारी होनी-अनहोनी
सब वही लिखता है ,
हम तो बस
उसके हाथ की कठपुतली हैं
जब जैसा चाहे वैसा नचाता है।
और यह भी सुना है
कि लेन-देन भी सब
इसी ऊपर वाले के हाथ में है।
जो चाहेगा वह, वही तुम्हें देगा।
बस आस लगाये रखना।
हाथ फैलाये रखना।
कटोरा उठाये रखना।
मुंह बाये रखना।
लेकिन मिलेगा तुम्हें वही
जो तुम्हारे भाग्य में होगा।
और यह भी सुना है
कर्म किये जा,
फल की चिन्ता मत कर।
ऊपर वाला सब देगा
जो तुम्हारे भाग्य में लिखा होगा।
और भाग्य उसके हाथ में है
जब चाहे बदल भी सकता है।
बस ध्यान लगाये रखना।
और यह भी सुना है
कि जो अपनी सहायता आप करता है
उसका भाग्य ऊपर वाला बनाता है।
इसलिए अपनी भी कमर कस कर रखना
उसके ही भरोसे मत बैठे रहना।
और यह भी सुना है
हाथ धोकर
इस ऊपर वाले के पीछे लगे रहना।
तन मन धन सब न्योछावर करना।
मन्दिर, मस्जिद, गुरूद्वारा कुछ न छोड़ना।
नाक कान आंख मुंह
सब उसके द्वार पर रगड़ना।
और फिर कुछ बचे
तो अपने लिए जी लेना
यदि भाग्य में होगा तो।
आपको नहीं लगता
हमने कुछ ज़्यादा ही सुन लिया है।
अरे यार !
अपनी मस्ती में जिये जा।
जो सामने आये अपना कर्म किये जा।
जो मिलना है मिले
और जो नहीं मिलना है न मिले
बस हंस बोलकर आनन्द में जिये जा।
और मुंह ढककर अच्छी नींद लिये जा।