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बड़ी मौसमी,
बड़ी मूडी होती है कोयल।
अपनी कूक सुनाने के लिए
एक मौसम की प्रतीक्षा में
छिपकर बैठी रहती है।
पत्तों के झुरमुट में,
डालियों के बीच।
दूर से आवाज़ देती है
आम के मौसम की प्रतीक्षा में,
बैठी रहती है, लालची सी।
कौन से गीत गाती है
मुझे आज तक समझ नहीं आये।
मुझे तो आनन्द देती है
कौए की कां कां भी।
आवाज़ लगाकर,
कितने अपनेपन से,
अधिकार से आ बैठता है
मुंडेर पर।
बिना किसी नाटक के
आराम से बैठकर
जो मिल जाये
खाकर चल देता है।
हर मौसम में
एक-सा भाव रखता है।
बस कुछ धारणाएं
बनाकर बैठ जाते हैं हम,
नहीं तो, बेचारे पंछी
तो सभी मधुर बोलते हैं,
मौसम की आहट तो
हमारे मन की है
फिर वह बसन्त हो
अथवा पतझड़।
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स्वाधीनता हमारे लिए स्वच्छन्दता बन गई
एक स्वाधीनता हमने
अंग्रेज़ो से पाई थी,
उसका रंग लाल था।
पढ़ते हैं कहानियों में,
सुनते हैं गीतों में,
वीरों की कथाएं, शौर्य की गाथाएं।
किसी समूह,
जाति, धर्म से नहीं जुड़े थे,
बेनाम थे वे सब।
बस एक नाम जानते थे
एक आस पालते थे,
आज़ादी आज़ादी और आज़ादी।
तिरंगे के मान के साथ
स्वाधीनता पाई हमने
गौरवशाली हुआ यह देश।
मुक्ति मिली हमें वर्षों की
पराधीनता से।
हम इतने अधीर थे
मानों किसी अबोध बालक के हाथ
जिन्न लग गया हो।
समझ ही नहीं पाये,
कब स्वाधीनता हमारे लिए
स्वच्छन्दता बन गई।
पहले देश टूटा था,
अब सोच बिखरने लगी।
स्वतन्त्रता, आज़ादी और
स्वाधीनता के अर्थ बदल गये।
मुक्ति और स्वायत्तता की कामना लिए
कुछ शब्दों के चक्रव्यूह में फ़ंसे हम,
नवीन अर्थ मढ़ रहे हैं।
भेड़-चाल चल रहे हैं।
आधी-अधूरी जानकारियों के साथ
रोज़ मर रहे हैं और मार रहे हैं।
-
वे, जो हर युग में आते थे
वेश और भेष बदल कर,
लगता है वे भी
हार मान बैठ हैं।
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मन की बातें न बताएं
पन्नों पर लिखी हैं मन की वे सारी गाथाएं
जो दुनिया तो जाने थी पर मन था छुपाए
पर इन फूलों के अन्तस में हैं वे सारी बातें
न कभी हम उन्हें बताएं न वो हमें जताएं
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किस युग में जी रहे हो तुम
मेरा रूप तुमने रचा,
सौन्दर्य, श्रृंगार
सब तुमने ही तो दिया।
मेरा सम्पूर्ण व्यक्तित्व
मेरे गुण, या मेरी चमत्कारिता
सब तुम्हारी ही तो देन है।
मुझे तो ठीक से स्मरण भी नहीं
किस युग में, कब-कब
अवतरित हुआ था मैं।
क्यों आया था मैं।
क्या रचा था मैंने इतिहास।
कौन सी कथा, कौन सा युद्ध
और कौन सी लीला।
हां, इतना अवश्य स्मरण है
कि मैंने रचा था एक युग
किन्तु समाप्त भी किया था एक युग।
तब से अब तक
हज़ारों-लाखों वर्ष बीत गये।
चकित हूं, यह देखकर
कि तुम अभी भी
उसी युग में जी रहे हो।
वही कल्पनाएं, कपोल-कथाएं
वही माटी, वही बाल-गोपाल
राधा और गोपियां, यशोदा और माखन,
लीला और रास-लीलाएं।
सोचा कभी तुमने
मैंने जब भी
पुन:-पुन: अवतार लिया है
एक नये रूप में, एक नये भाव में
एक नये अर्थ में लिया है।
काल के साथ बदला हूं मैं।
हर बार नये रूप में, नये भाव में
या तुम्हारे शब्दों में कहूं तो
युगानुरूप
नये अवतार में ढाला है मैंने
अपने-आपको।
किन्तु, तुम
आज भी, वहीं के वहीं खड़े हो।
तो इतना जान लो
कि तुम
मेरी आराधना तो करते हो
किन्तु मेरे साथ नहीं हो।
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कभी तुम भी अग्नि-परीक्षा में खरे उतरो
ममता, नेह, मातृछाया बरसाने वाली नारी में भी चाहत होती है
कोई उसके मस्तक को भी सहला दे तो कितनी राहत होती है
पावनता के सारे मापदण्ड बने हैं बस एक नारी ही के लिए
कभी तुम भी अग्नि-परीक्षा में खरे उतरो यह भी चाहत होती है
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सुन्दर इंद्रधनुष लाये बादल
शरारती से न जाने कहां -कहां जायें पगलाये बादल
कही धूप, कहीं छांव कहीं यूं ही समय बितायें बादल
कभी-कभी बड़ी अकड़ दिखाते, यहां-वहां छुप जाते
डांट पड़ी तब जलधार संग सुन्दर इंद्रधनुष लाये बादल
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पुष्प निःस्वार्थ भाव से
पुष्प निःस्वार्थ भाव से नित बागों को महकाते।
पंछी को देखो नित नये राग हमें मधुर सुनाते।
चंदा-सूरज दिग्-दिगन्त रोशन करते हरपल,
हम ही क्यों छल-कपट में उलझे सबको बहकाते।
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मन में बजे सरगम
मस्ती में मनमौजी मन
पायल बजती छन-छनछन
पैरों की अनबन
बूँदों की थिरकन
हाथों से छल-छल
जल में
बनते भंवर-भंवर
हल्की-हल्की छुअन
बूँदों की रागिनी
मन में बजती सरगम।
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बीहड़ वन आकर्षित करते हैं मुझे
कभी भीतर तक जाकर
देखे तो नहीं मैंने बीहड़ वन,
किन्तु ,
आकर्षित करते हैं मुझे।
कितना कुछ समेटकर रहते हैं
अपने भीतर।
गगन को झुकते देखा है मैंने यहां।
पल भर में धरा पर
उतर आता है।
रवि मुस्कुराता है,
छन-छनकर आती है धूप।
निखरती है, कण-कण को छूती है।
इधर-उधर भटकती है,
न जाने किसकी खोज में।
वृक्ष निःशंक सर उठाये,
रवि को राह दिखाते हैं,
धरा तक लेकर आते हैं।
धाराओं को
यहां कोई रोकता नहीं,
बेरोक-टोक बहती हैं।
एक नन्हें जीव से लेकर
विशाल व्याघ्र तक रहते हैं यहां।
मौसम बदलने से
यहां कुछ नहीं बदलता।
जैसा कल था
वैसा ही आज है,
जब तक वहां मानव का
प्रवेश नहीं होता।
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मन के भीतर कल्पवृक्ष
मन के भीतर ही
उगे बैठे हैं
न जाने कितने कल्पवृक्ष।
रोज उगते हैं, फलते-फूलते हैं
जड़े जमाते हैं
और समय के प्रवाह में
सब कुछ दे जाते हैं।
न समुद्र मंथन की आवश्यकता,
न किसी युद्ध की
न देवताओं-असुरों की,
क्योंकि सब कुछ तो
इसी मन के भीतर है।
कहां बाहर भटकते हैं हम
क्यों बाहर भटकते हैं हम।
हां, यह और बात है
कि समय के प्रवाह में
बदल जाता है बहुत कुछ।
शब्दों के अर्थ बदल जाते हैं
भाव बदल जाते हैं
प्रभाव बदल जाते हैं।
इसलिए
मन के इस कल्पवृक्ष से भी
बहुत आशाएं मत रखना।
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सूख गये सब ताल तलैया
न प्रीत, न मीत के लिए, न मिलन, न विरह के लिए
घट लाई थी पनघट पर जल भर घर ले जाने के लिए
न घटा आई, न जल बरसा, सूख गये सब ताल–तलैया
संभल मानव, कुछ तो अच्छा कर जा अगली पीढ़ी के लिए