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हमें स्वतन्त्र हुए
इतने
या कितने वर्ष हो गये,
इस बार हम
कौन सा
गणतन्त्र दिवस
या स्वाधीनता दिवस
मनाने जा रहे हैं,
गणना करने लगे हैं हम।
उत्सवधर्मी तो हम हैं ही।
सजने-संवरने में लगे हैं हम।
गली-गली नेता खड़े हैं,
अपने-अपने मोर्चे पर अड़े हैं,
इस बार कौन ध्वज फ़हरायेगा
चर्चा चल रही है।
स्वाधीनता सेनानियों को
आज हम इसलिए
स्मरण नहीं कर रहे
कि उन्हें नमन करें,
हम उन्हें जाति, राज्य और
धर्म पर बांध कर नाप रहे।
सड़कों पर चीखें बिखरी हैं,
सुनाई नहीं देती हमें।
सैंकड़ों जाति, धर्म वर्ग बताकर
कहते हैं
हम एक हैं, हम एक हैं।
किसको सम्मान मिला,
किसे नहीं
इस बात पर लड़-मर रहे।
मूर्तियों में
इनके बलिदानों को बांध रहे।
पर उनसे मिली
अमूल्य धरोहर को कौन सम्हाले
बस यही नहीं जान रहे।
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आदान-प्रदान का युग है
जरूरी नहीं कि शिखर पर बैठा हर इंसान उत्थान का प्रतीक को
जाने कौन-सी सीढ़ियां चढ़ा, कहां पग धरा, अनुगमन की लीक हो
पद, पदक, सम्मान, उपाधियाँ सदा उपलब्धियों की प्रतीक नहीं होते
आदान-प्रदान का युग है, ले-देकर काम चल रहा, यही सीख हो
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समानता का भाव
बस एक इंसानियत का भाव जगाना होगा।
समानता का भाव सबके मन में लाना होगा।
मानवता को बांटकर देश प्रगति नहीं करते,
हर तरह का भेद-भाव अब मिटाना होगा।
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आपको चाहिए क्या पारिजात वृक्ष
कृष्ण के स्वर्ग पहुंचने से पूर्व
इन्द्र आये थे मेरे पास
इस आग्रह के साथ
कि स्वीकार कर लूं मैं
पारिजात वृक्ष, पुष्पित –पल्लवित
जो मेरी सब कामनाएं पूर्ण करेगा।
स्वर्ग के लिए प्रस्थान करते समय
कृष्ण ने भी पूछा था मुझसे
किन्तु दोनों का ही
आग्रह अस्वीकार कर दिया था मैंने।
लौटा दिया था ससम्मान।
बात बड़ी नहीं, छोटी-सी है।
पारिजात आ जाएगा
तब जीवन रस ही चुक जायेगा।
सब भाव मिट जायेंगे,
शेष जीवन व्यर्थ हो जायेगा।
जब चाहत न होगी, आहत न होगी
न टूटेगा दिल, न कोई दिलासा देगा
न श्रम का स्वेद होगा
न मोतियों सी बूंदे दमकेंगी भाल पर
न सरस-विरस होगा
न लेन-देन की आशाएं-निराशाएं
न कोई उमंग-उल्लास
न कभी घटाएं तो न कभी बरसात
रूठना-मनाना, लेना-दिलाना
जब कभी तरसता है मन
तब आशाओं से सरस होता है मन
और जब पूरी होने लगती हैं आशाएं-आकांक्षाएं
तब
पारिजात पुष्पों के रस से भी अधिक
सरस-सरस होता है मन।
मगन-मगन होता है मन।
बस
बात बड़ी नहीं, छोटी-सी है।
चाहत बड़ी नहीं, छोटी-सी है।
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घर की पूरी खुशियाँ
आंगन में चरखा चलता था
आंगन में मंजी बनती थी
पशु पलते थे आंगन में
आँगन में कुँआ होता था
आँगन में पानी भरते थे
आँगन में चूल्हा जलता था
आँगन में रोटी पकती थी
आँगन में सब्ज़ी उगती थी
आँगन में बैठक होती थी
आँगन में कपड़े धुलते थे
आँगन में बर्तन मंजते थे।
गज़ भर के आँगन में
सब हिल-मिल रहते थे
घर की पूरी खुशियाँ
इस छोटे-से आँगन में बसती थीं
पूरी दुनिया रचती थीं।
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कच्चे धागों से हैं जीवन के रिश्ते
हर दिन रक्षा बन्धन का-सा हो जीवन में
हर पल सुरक्षा का एहसास हो जीवन में
कच्चे धागों से बंधे हैं जीवन के सब रिश्ते
इन धागों में विश्वास का एहसास हो जीवन में
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रोज़ की ही कहानी है
जब जब कोई घटना घटती है,
हमारी क्रोधाग्नि जगती है।
हमारी कलम
एक नये विषय को पाकर
लिखने के लिए
उतावली होने लगती है।
समाचारों से हम
रचनाएं रचाते हैं।
आंसू शब्द तो सम्मानजनक है,
लिखना चाहिए
टसुए बहाते हैं।
दर्द बिखेरते हैं।
आधी-अधूरी जानकारियों को
राजनीतिज्ञों की तरह
भुनाते हैं।
वे ही चुने शब्द
वे ही मुहावरे
देवी-देवताओं का आख्यान
नारी की महानता का गुणगान।
नारी की बेचारगी,
या फिर
उसकी शक्तियों का आख्यान।
पूछती हूं आप सबसे,
कभी अपने आस-पास देखा है,
एक नज़र,
कितना करते हैं हम नारी का सम्मान।
कितना दिया है उसे खुला आसमान।
उसकी वाणी की धार को तराशते हैं,
उसकी आन-बान-शान को संवारते हैं,
या फिर
ऐसे किस्सों से बाहर निकलने के बाद
कुछ अच्छे उपहासात्मक
चुटकुले लिख डालते हैं।
आपसे क्या कहूं,
मैं भी शायद
यहीं कहीं खड़ी हूं।
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आदमी आदमी से पूछता
आदमी आदमी से पूछता है
कहां मिलेगा आदमी
आदमी आदमी से पूछता है
कहीं मिलेगा आदमी
आदमी आदमी से डरता है
कहीं मिल न जाये आदमी
आदमी आदमी से पूछता है
क्यों डर कर रहता है आदमी
आदमी आदमी से कहता है
हालात बिगाड़ गया है आदमी
आदमी आदमी को बताता है
कर्त्तव्यों से भागता है आदमी
आदमी आदमी को बताता है
अधिकार की बात करता है आदमी
आदमी आदमी को सताता है
यह बात जानता है हर आदमी
आदमी आदमी को बताता है
हरपल जीकर मरता है आदमी
आदमी आदमी को बताता है
सबसे बेकार जीव है तू आदमी
आदमी आदमी से पूछता है
ऐसा क्यों हो गया है आदमी
आदमी आदमी को समझाता है
आदमी से बचकर रहना हे आदमी
और आदमी, तू ही आदमी है
कैसे भूल गया, तू हे आदमी !
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कैसा बिखराव है यह
मन घुटता है ,बेवजह।
कुछ भीतर रिसता है,बेवजह।
उधेड़ नहीं पाती
पुरानी तरपाई।
स्वयं ही टूटकर
बिखरती है ।
समेटती लगती हूं
पुराने धागों को,
जो किसी काम के नहीं।
कितनी भी सलवटें निकाल लूं
किन्तु ,तहों के निशान
अक्सर जाते नहीं।
क्यों होता है मेरे साथ ऐसा,
कहना कुछ और चाहती हूं
कह कुछ और जाती हूं।
बात आज की है,
और कल की बात कहकर
कहानी को पलट जाती हूं,
कि कहीं कोई
समझ न ले मेरे मन को,
मेरे आज को
या मेरे बीते कल को ।
शायद इसीलिए
उलट-पलट जाती हूं।
कहना कुछ और चाहती हूं,
कह कुछ और जाती हूं।
यह सिलसिला
‘गर ज़िन्दगी भर चलेगा,
तो कहां तक, और कब तक ।
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ज़िन्दगी सहज लगने लगी है
आजकल, ज़िन्दगी
कुछ नाराज़-सी लगने लगी है।
शीतल हवाओं से भी
चुभन-सी होने लगी है।
नयानाभिराम दृश्य
चुभने लगे हैं नयनों में,
हरीतिमा में भी
कालिमा आभासित होने लगी है।
सूरज की तपिश का तो
आभास था ही,
ये चाँद भी अब तो
सूरज-सा तपने लगा है।
मन करता है
कोई सहला जाये धीरे से
मन को,
किन्तु यहाँ भी कांटों की-सी
जलन होने लगी है।
ज़िन्दगी बीत जाती है
अपनों और परायों में भेद समझने में।
कल क्या था
आज क्या हो गया
और कल क्या होगा कौन जाने
क्यों तू सच्चाईयों से
मुँह मोड़ने लगी है।
कहाँ तक समझायें मन को
अब तो यूँ ही
ऊबड़-खाबड़ राहों पर
ज़िन्दगी सहज लगने लगी है।
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पावस की पहली बूंद
पावस की पहली बूंद
धरा तक पहुंचते-पहुंचते ही
सूख जाती है।
तपती धरा
और तपती हवाएं
नमी सोख ले जाती हैं।
अब पावस की पहली बूंद
कहां नम करती है मन।
कहां उमड़ती हैं
मन में प्रेम-प्यार,
मनुहार की बातें।
समाचार डराते हैं,
पावस की पहली बूंद
आने से पहले ही
चेतावनियां जारी करते हैं।
सम्हल कर रहना,
सामान बांधकर रख लो,
राशन समेट लो।
कभी भी उड़ा ले जायेंगी हवाएँ।
अब पावस की बूंद,
बूंद नहीं आती,
महावृष्टि बनकर आती है।
कहीं बिजली गिरी
कहीं जल-प्लावन।
क्या जायेगा
क्या रह जायेगा
बस इसी सोच में
रह जाते हैं हम।
क्या उजड़ा, क्या बह गया
क्या बचा
बस यही देखते रह जाते हैं हम
और अगली पावस की प्रतीक्षा
करते हैं हम
इस बार देखें क्या होगा!!!