Share Me
न कर वन्दन मेंरा
न कर चन्दन मेरा
अपने भीतर खोज
देख क्रंदन मेरा।
हर युग में
हर मानव के भीतर जन्मा हूं।
न महाभारत रचा
न गीता पढ़ी मैंने
सब तेरे ही भीतर हैं
तू ही रचता है।
ग्वाल-बाल, गैया-मैया, रास-रचैया
तेरी अभिलाषाएं
नाम मेरे मढ़ता है।
बस राह दिखाई थी मैंने
न आयुध बांटे
न चक्रव्यूह रचे मैंने
लाक्षाग्रह, चीर-वीर,
भीष्म-प्रतिज्ञाएं
सब तू ही करता है
और अपराध छुपाने को अपना
नाम मेरा रटता है।
पर इस धोखे में मत रहना
तेरी यह चतुराई
कभी तुझे बचा पायेगी।
कुरूक्षेत्र अभी लाशों से पटा पड़ा है
देख ज़रा जाकर
तू भी वहीं कहीं पड़ा है।
Share Me
Write a comment
More Articles
रोशनी की चकाचौंध में
रोशनी की चकाचौंध में अक्सर अंधकार के भाव को भूल बैठते हैं हम
सूरज की दमक में अक्सर रात्रि के आगमन से मुंह मोड़ बैठते हैं हम
तम की आहट भर से बौखलाकर रोशनी के लिए हाथ जला बैठते हैं
ज्योति प्रज्वलित है, फिर भी दीप तले अंधेरा ही ढूंढने बैठते हैं हम
Share Me
बाल-मन की बात
हाथ जोड़कर तुम क्या मांग रहे मुझको कुछ भी नहीं पता
बैठा था गर्मी की छुट्टी की आस में, क्या की थी मैंने खता
मैं तो बस मांगूं एक टी.वी., एक पी.सी, एक आई फोन 6
और मांगू, गुम हो जाये चाबी स्कूल की, और मेरा बस्ता
Share Me
ठहरी ठहरी सी लगती है ज़िन्दगी
अब तो
ठहरी-ठहरी-सी
लगती है ज़िन्दगी।
दीवारों के भीतर
सिमटी-सिमटी-सी
लगती है ज़िन्दगी।
द्वार पर पहरे लगे हैं,
मन पर गहरे लगे हैं,
न कोई चोट है कहीं,
न घाव रिसता है,
रक्त के थक्के जमने लगे हैं।
भाव सिमटने लगे हैं,
अभिव्यक्ति के रूप
बदलने लगे हैं।
इच्छाओं पर ताले लगने लगे हैं।
सत्य से मन डरने लगा है,
झूठ के ध्वज फ़हराने लगे हैं।
न करना शिकायत किसी की
न बताना कभी मन के भेद,
लोग बस
तमाशा बनाने में लगे हैं।
न ग्रहण है न अमावस्या,
तब भी जीवन में
अंधेरे गहराने लगे हैं।
जीतने वालों को न पूछता कोई
हारने वालों के नाम
सुर्खियों में चमकने लगे हैं।
अनजाने डर और खौफ़ में जीते
अपने भी अब
पराये-से लगने लगे हैं।
Share Me
दो घूंट
छोड़ के देख
एक बार
बस एक बार
दो घूंट
छोड़ के देख
दो घूंट का लालच।
शाम ढले घर लौट
पर छोड़ के
दो घूंट का लालच।
फिर देख,
पहली बार देख
महकते हैं
तेरी बगिया में फूल।
पर एक बार
बस एक बार
छोड़ के देख
दो घूंट का लालच।
देख
फिर देख
जिन्दगी उदास है।
द्वार पर टिकी
एक मूरत।
निहारती है
सूनी सड़क।
रोज़
दो आंखें पीती हैं।
जिन्हें, देख नहीं पाता तू।
क्योंकि
पी के आता है
तू
दो घूंट।
डरते हैं,
रोते भी हैं
फूल।
और सहमकर
बेमौसम ही
मुरझा भी जाते हैं ये फूल।
कैसे जान पायेगा तू ये सब
पी के जो लौटता है
दो घूंट।
एक बार, बस एक बार
छोड़ के देख दो घूंट।
चेहरे पर उतर आयेगी
सुबह की सुहानी धूप।
बस उसी रोज़, बस उसी रोज़
जान पायेगा
कि महकते ही नहीं
चहकते भी हैं फूल।
जिन्दगी सुहानी है
हाथ की तेरे बात है
बस छोड़ दे, बस छोड़ दे
दो घूंट।
बस एक बार, छोड़ के देख
दो घूंट का लालच ।
Share Me
सिंदूरी शाम
अक्सर मुझे लगता है
दिन भर
आकाश में घूमता-घूमता
सूरज भी
थक जाता है
और संध्या होते ही
बेरंग-सा होने लगता है
हमारी ही तरह।
ठिठके-से कदम
धीमी चाल
अपने गंतव्य की ओर बढ़ता।
जैसे हम
थके-से
द्वार खटखटाते हैं
और परिवार को देखकर
हमारे क्लांत चेहरे पर
मुस्कान छा जाती है
दिनभर की थकान
उड़नछू हो जाती है
कुछ वैसे ही सूरज
जब बढ़ता है
अस्ताचल की ओर
गगन
चाँद-तारों संग
बिखेरने लगता है
इतने रंग
कि सांझ सराबोर हो जाती है
रंगों से।
और
बेरंग-सा सूरज
अनायास झूम उठता है
उस सिंदूरी शाम में
जाते-जाते हमें भी रंगीनियों से
भर जाता है।
Share Me
उड़ती चिड़िया के पर न गिनूं मैं
आप अब तक मेरी कविताएँ पढ़कर जान ही चुके होंगे कि मेरी विपरीत बुद्धि है। एक चित्र आया कावय रचना के लिए। आपको इस चित्र में किसके दर्शन हुए? मेरे सभी मित्रों को, किसी को विरहिणी नायिका दिखी, किसी को राधा, किसी को मीरा, किसी को बाट जोहती प्रेमिका आदि-आदि-इत्यादि। किन्तु मुझे जैसा यह चित्र प्रतीत हुआ, रचना आपके सामने है।
************-******************
फ़ोटू हो गई हो
मेरे सैयां
तो ये ताम-झाम हटवा दे।
इक कुर्सी-मेज़ ला दे।
उड़ती चिड़िया के पर न गिनूं मैं
फ़्रिज से
थोड़ा शीतल जल पिलवा दे।
कब तक नुमाईश करेगा मेरी,
आप आधुनिक बन बैठा है
मुझको भी नयी ड्रैस सिलवा दे।
अब खाना-वाना
न बनता मुझसे
स्वीगी से मंगवा दे।
Share Me
समझाने की बात नहीं
आजकल न जाने क्यों
यूं ही
आंख में पानी भर आता है।
कहीं कुछ रिसता है,
जो न दिखता है,
न मन टिकता है।
कहीं कुछ जैसे
छूटता जा रहा है पीछे कहीं।
कुछ दूरियों का एहसास,
कुछ शब्दों का अभाव।
न कोई चोट, न घाव।
जैसे मिट्टी दरकने लगी है।
नींव सरकने लगी है।
कहां कमी रह गई,
कहां नमी रह गई।
कई कुछ बदल गया।
सब अपना,
अब पराया-सा लगता है।
समझाने की बात नहीं,
जब भीतर ही भीतर
कुछ टूटता है,
जो न सिमटता है
न दिखता है,
बस यूं ही बिखरता है।
एक एहसास है
न शब्द हैं, न अर्थ, न ध्वनि।
Share Me
जीवन आशा प्रत्याशा या निराशा
हमारे बड़े-बुज़ुर्ग
सुनाया करते थे कहानियां,
चेचक, हैज़ा,
मलेरिया, डायरिया की,
जब महामारी फैलती थी,
तो सैंकड़ों नहीं
हज़ारों प्राण लेकर जाती थी।
गांव-गांव, शहर-शहर
लील जाती थी।
सूने हो जाते थे घर।
संक्रामक माना जाता था
इन रोगों को,
अलग कोठरी में
डाल दिया जाता था रोगी को,
और वहीं मर जाता था,
या कभी भाग्य अच्छा रहे,
तो बच भी जाया करता था।
और एक समय बाद
सन्नाटे को चीरता,
आप ही गायब हो जाता था रोग।
देसी दवाएं, हकीम, वैद्य
घरेलू काढ़े, हवन-पूजा,
बस यही थे रोग प्रतिरोधक उपाय।
और आज,
क्या वही दिन लौट आये हैं?
किसी और नाम से।
विज्ञान के चरम पर बैठे,
पर फिर भी हम बेबस,
हाथ बांधे।
उपाय तो बस दूरियां हैं
अपनों से अपनी मज़बूरियां हैं।
काल काल बनकर खड़ा है,
उपाय न कोई बड़ा है।
रोगी को अलग कर,
हाथ बांधे बस प्रतीक्षा में
बचेगा या पता नहीं मरेगा।
निर्मम, निर्मोही
जीवन-आशा,
जीवन-प्रत्याशा
या जीवन-निराशा ?
Share Me
खड़ी करनी है मज़बूत इमारत, प्यादों पर भरोसा कीजिए
जोकर, इक्का, बेगम, गुलाम, सबकी चाल चलनी आनी चाहिए
सारी चालें हैं वज़ीर के हाथ, इस बात पर भी ध्यान देना चाहिए
मुहावरों पर मत जाना कि गिरते देखे हैं ताश के महल भरभरा कर
“गर खड़ी करनी है मज़बूत इमारत, प्यादों पर भरोसा करना चाहिए
Share Me
कानून तोड़ना हक है मेरा
जीत हार की बात न करना
गाड़ी यहां अड़ी हुई है।
कितने आगे कितने पीछे,
किसकी आगे, किसकी पीछे,
जांच अभी चली हुई है।
दोपहिए पर बैठे पांच,
चौपहिए में दस-दस बैठें,
फिर दौड़ रहे बाजी लेकर,
कानून तोड़ना हक है मेरा
देखें, किसकी दाल यहां गली हुई है।
गली-गली में शोर मचा है
मार-काट यहां मची हुई है।
कौन है राजा, कौन है रंक
जांच अभी चली हुई है।
राजा कहता मैं हूं रंक,
रंक पूछ रहा तो मैं हूं कौन
बात-बात में ठनी हुई है।
सड़कों पर सैलाब उमड़ता
कौन सही है कौन नहीं है,
आज यहां हैं कल वहां थे,
क्यों सोचे हम,
हमको क्या पड़ी हुई है।
कल हम थे, कल भी होंगे,
यही समझकर
अपनी जेब भरी हुई है।
अभी तो चल रही दाल-रोटी
जिस दिन अटकेगी
उस दिन हम देखेंगे
कहां-कहां गड़बड़ी हुई है।
अभी क्या जल्दी पड़ी हुई है।