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कभी-कभी
छोटी-छोटी रोशनी भी
मन आलोकित कर जाती है।
कुहासे में उलझी जि़न्दगी
एक बेहिसाब पटरी पर
दौड़ती चली जाती है।
राहों में आती हैं
कितनी ही रोशनियां
कितने ठहराव
कुछ नये, कुछ पुराने,
जाने-अनजाने पड़ाव
कभी कोई अनायास बन्द कर देता है
और कभी उन्मुक्तु हो जाते हैं सब द्वार
बस मन आश्वस्त है
कि जो भी हो
देर-सवेर
अपने ठिकाने पहुंच ही जाती है।
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एक उपहार है ज़िन्दगी
हर रोज़ एक नई कथा पढ़ाती है जिन्दगी
हर दिन एक नई आस लाती है ज़िन्दगी
कभी हंसाती-रूलाती-जताती है ज़िन्दगी
हर दिन एक नई राह दिखाती है ज़िन्दगी
कदम दर कदम नई आस दिलाती है जिन्दगी
घनघोर घटाओं में भी धूप दिखाती है जिन्दगी
कभी बादलों में कड़कती-चमकती-सी है ज़िन्दगी
कुछ पाने के लिए निरन्तर भगाती है जिन्दगी
भोर से शाम तक देखो जगमगाती है जिन्दगी
झड़ी में भी कभी-कभी धूप दिखाती है जिन्दगी
कभी आशाओं का सागर लहराती है जिन्दगी
और कभी कभी खूब धमकाती भी है जिन्दगी
तब दांव पर पूरी लगानी पड़ती है जिन्दगी
यूं ही तो नहीं आकाश दिला देती है जिन्दगी
पर कुल मिलाकर देखें तो एक उपहार है ज़िन्दगी
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दुराशा
जब भी मैंने
चलने की कोशिश की
मुझे
खड़े होने लायक
जगह दे दी गई।
जब मैंने खड़ा होना चाहा
मुझे बिठा दिया गया।
और ज्यों ही मैंने
बैठने का प्रयास किया
मुझे नींद की गोली दे दी गई।
चलने से लेकर नींद तक।
लेकिन मुझे फिर लौटना है
नींद से लेकर चलने तक।
जैसे ही
गोली का खुमार टूटता है
मैं
फिर
चलने की कोशिश
करने लगती हूं।
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मां के आंचल की छांव
प्रकृति का नियम है
विशाल वट वृक्ष तले
नहीं पनपते छोटे पेड़ पौधे।
नहीं पुष्पित पल्लवित होतीं यूं ही लताएं।
और यदि कुछ पनप भी जाये
तो उसे नाम नहीं मिलता।
पहचान नहीं मिलती।
बस, वट वृक्ष की विशालता के सामने
खो जाते हैं सब।
लेकिन, एक ऐसा वट वृक्ष भी है
जिसका अपना कोई नाम नहीं होता
कोई पहचान नहीं होती।
बस एक दीर्घ आंचल होता है
जिसके साये तले, पलती बढ़ती है
एक पूरी की पूरी पीढ़ी,
एक पूरा का पूरा युग।
अपनी जड़ों से पोषण करती है उनका।
नये पौधों का रोपण करती है
अपने आपको खोकर।
उन्हें नाम देती है, पहचान देती है
आंचल की छांव देती है।
पूरी ज़मीन और पूरा आकाश देती है।
युग बदलते हैं, पर नहीं बदलती
नहीं छूटती आंचल की छांव।
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बस एक हिम्मत की चाह
जीवन बोझ-सा
समस्याएं नाग-सी
तब चाहिए
तुम्हारा साथ
हाथ पकड़ा है
मैं तुम्हें समस्याओं से बचाउं
तुम मेरे साथ
तो जीवन भी बोझ-सा नहीं
बस एक हिम्मत की चाह
होंगे हम साथ-साथ
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मोबाईल: आवश्यकता अथवा व्यसन
हमारी एक प्रवृत्ति हो गई है कि हम बहुत जल्दी किसी भी बात की आलोचना अथवा सराहना करने लगते हैं। कोई एक करता है और फिर सब करने लगते हैं जैसे मानों नम्बर बनाने हों कि किसने कितनी आलोचना कर ली अथवा सराहना कर ली। जैसे हमारी विचार-शक्ति समाप्त हो जाती है और हम निर्भाव बहती धारा के साथ बहने लगते हैं।
मोबाईल!!!
आधुनिकता के इस युग में मोबाईल जीवन की आवश्यकता बन चुका है। चाहे कितनी भी आलोचना कर लें किन्तु वर्तमान सामाजिक परिस्थितियों में इसके महत्व और आवश्यकता को उपेक्षित नहीं किया जा सकता। हाँ, इतना अवश्य है कि आपको मोबाईल किस स्तर का चाहिए और किस कार्य के लिए।
एक समय था जब विद्यालयों में मोबाईल ले जाना प्रतिबन्धित था। फिर समय ऐसा आया कि यही मोबाईल शिक्षा का केन्द्र बन गया। कोराना काल ने आम आदमी के जीवन में इतने परिवर्तन कर दिये कि एक बार तो वह स्वयं ही समझ नहीं पाया कि यह सब क्या हो रहा है। जब तक समझ आती, जीवन की धाराएँ ही बदल चुकीं थीं।
शिक्षा का यह ऐसा काल था, लगभग दो वर्ष का, जिसने शिक्षा, ज्ञान और परीक्षाओं के सारे प्रतिमान ही बदल कर रख दिये। शिक्षा की इस नवीन प्रणाली ने पारिवारिक व्यवस्थाएँ, आवश्यकताएँ, जीवन का ढाँचा ही बदल कर रख दिया। देश के मध्यमवर्गीय परिवारों में रोटी से अधिक महत्वपूर्ण मोबाईल हो उठे। फिर वह पहली कक्षा का विद्यार्थी हो अथवा किसी बड़ी कक्षा का। किसी-किसी परिवार में एक साथ दो-दो लैपटॉप और तीन-चार मोबाईल की आवश्यकता उठ खड़ी हुई अर्थात लाखों का व्यय। आय बन्द, व्यवसाय बन्द, वेतन आधा और मोबाईल ज़रूरी। ऐसे कितने ही परिवार मैंने इस समय में देखे जहाँ माता-पिता के पास एक-एक मोबाईल था और पिता के पास लैपटॉप। अब तीन बच्चे। तीनों की एक समय ऑनलाईन क्लास। माता अध्यापिका। अब एक लैपटॉप और तीन मोबाईल की अनिवार्यता उठ खड़ी हुई। चाहिए भी एंड्राएड अर्थात कम से कम 15-20 हज़ार प्रति। जहाँ मोबाईल पढ़ाई की आवश्यकता बने वहाँ आदत का हिस्सा भी। असीमित ज्ञान का भण्डार। आय-व्यय, बैंकिंग, भुगतान-प्राप्ति का सरल साधन, डिजिटल पेमंट, खेल का माध्यम। बच्चे घर में बैठकर पूरी दुनिया से जुड़ रहे थे, ज्ञान का असीमित भण्डार का पिटारा मानों उनके सामने खुल गया था और वे अचम्भित थे। माता-पिता से जल्दी बच्चे यह सब सीखने लगे। इसमें कहीं भी कुछ भी ग़लत अथवा ठीक नहीं कहा जा सकता था, यह सब समय की आवश्यकता के कारण विकसित हो रहा था, जो धीरे-धीरे हमारे स्वभाव का हिस्सा बनता गया। यदि शिक्षा के क्षेत्र में यह मोबाईल न होता तो बच्चे दो वर्ष पीछे चले जाते और उन्होंने ऑन लाईन जो ज्ञान प्राप्त किया, आधुनिकता से जुड़े, वह एक बहुत बड़ा अभाव रह जाता।
आज का समय ऐसा नहीं है कि बच्चे विद्यालय से निकले और घर। नहीं जी, ट्यूशन, डांस क्लास, स्विमिंग, क्रिकेट और न जाने क्या-क्या। तब माता-पिता और बच्चों के बीच यही एक वार्तालाप का सहारा बनता है
ऐसा नहीं कि कोरोना काल में ही मोबाईल ने हमारे जीवन को प्रभावित किया। इससे पूर्व भी विद्यालयों में सीनियर कक्षाओं में प्रोजेक्ट वर्क, आर्ट वर्क और अनेक गृह कार्य ऐसे दिये जाते थे जो गूगल देवता की सहायता से ही किये जाते थे। कक्षाओं में स्मार्ट बोर्ड और अनेक तकनीक प्रयोग में पहले से ही चल रहे थे, बस मोबाईल की इसमें वृद्धि हुई।
किसी सीमा तक यह बात ठीक है कि जब किसी वस्तु का हम अत्याधिक प्रयोग करने लगत हैं तब आवश्यकता से बढ़कर वह हमारी आदत बन जाती है, हमें उसकी लत लग जाती है और जीवन पर दुष्प्रभाव पड़ने लगता है।
निश्चित रूप से बच्चे आज पक्षियों की भांति स्वतन्त्र पंछी नहीं रह गये हैं। इसका एक कारण मोबाईल हो सकता है किन्तु सारा दोष केवल मोबाईल को नहीं दिया जा सकता। आधुनिकतम जीवन शैली, शिक्षा एवं ज्ञान का माध्यम, बच्चे तो क्या हमारी पीढ़ी भी इसमें उलझी बैठी है। अब यह माता-पिता का कर्तव्य है और शिक्षा-संस्थानों का भी कि बच्चों को मोबाईल के उचित प्रयोग एवं सीमित प्रयोग के लिए प्रेरित करें न कि उन्हें आरोपित।
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सपने तो सपने होते हैं
सपने तो सपने होते हैं
कब-कब अपने होते हैं
आँखो में तिरते रहते हैं
बातों में अपने होते हैं।
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शब्द और भाव
बड़े सुन्दर भाव हैं
दया, करूणा, कृपा।
किन्तु कभी-कभी
कभी-कभी क्यों,
अक्सर
आहत कर जाते हैं
ये भाव
जहां शब्द कुछ और होते हैं
और भाव कुछ और।
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चिड़िया ने कहानी सुनाई
अरे,
एक–एक कर बोलो।
थक-हार कर आई हूं,
दाना-पानी लाई हूं,
कहां-कहां से आई हूं।
तुमको रोज़ कहानी चाहिए।
दुनिया की रवानी चाहिए।
अब तुमको क्या बतलाउं मैं
सुन्दर है यह दुनिया
बस लोग बहुत हैं।
रहने को हैं घर बनाते
जैसे हम अपना नीड़ सजाते।
उनके भी बच्चे हैं
छोटे-छोटे
वे भी यूं ही चिन्ता करते,
जब भी घर से बाहर जाते।
प्रेम, नेह , ममता लुटाते।
वे भी अपना कर्त्तव्य निभाते।
रूको, रूको, बतलाती हूं
अन्तर क्या है।
आशाओं, अभिलाषाओं का अन्त नहीं है।
जीने का कोई ढंग नहीं है।
भागम-भाग पड़ी है।
और चाहिए, और चाहिए।
बस यूं ही मार-काट पड़ी है।
घर-संसार भरा-पूरा है,
तो भी लूट-खसोट पड़ी है।
उड़ते हैं, चलते हैं, गिरते हैं,
मरते हैं
पता नहीं क्या क्या करते है।
चाहतें हैं कि बढ़ती जातीं।
बच्चों पर भी डाली जातीं।
बचपन मानों बोझ बना
मां-पिता की इच्छाओं का संसार घना।
अब क्या –क्या बतलाउं मैं।
आज बस इतना ही,
दाना लो और पिओ
जी भरकर विश्राम करो।
बस इतना ही जानो कि
इन तिनकों, पत्तों में,
रूखे-सूखे चुग्गे में,
बूंद-बूंद पानी में,
अपनी इस छोटी सी कहानी में,
जीवन में आनन्द भरा है।
उड़ना तुमको सिखलाती हूं।
बस इतना ही बतलाती हूं।
पंख पसारे
उड़ जाना तुम,
अपनी दुनिया में रहना तुम।
अपना कर्त्तव्य निभाना तुम।
अगली पीढ़ी को
अपने पंखों पर उड़ना सिखलाना तुम।
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सम्बन्धों की डोर
विशाल वृक्षों की जड़ों से जब मिट्टी दरकने लगती है।
जिन्दगी की सांसें भी तब कुछ यूं ही रिसने लगती हैं।
विशाल वृक्षों की छाया तले ही पनपने हैं छोटे पेड़ पौधे,
बड़ों की छत्रछाया के बिना सम्बन्धों की डोर टूटने लगती है।
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कड़वाहटों को बो रहे हैं हम
गत-आगत के मोह में आज को खो रहे हैं हम
जो मिला या न मिला इस आस को ढो रहे हैं हम
यहां-वहां, कहां-कहां, किस-किसके पास क्या है
इसी कशमकश में कड़वाहटों को बो रहे हैं हम