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कागज़ की नाव में
जितने सपने थे
सब अपने थे।
छोटे-छोटे थे, पर मन के थे ।
न डूबने की चिन्ता
न सपनों के टूटने की चिन्ता।
तिरती थी, पलटती थी
टूट-फूट जाती थी, भंवर में अटकती थी।
रूक-रूक जाती थी।
एक जाती थी, एक और आ जाती थी।
पर सपने तो सपने थे,
सब अपने थे।
न टूटते थे न फूटते थे ।
जीवन की लय यूं ही बहती जाती थी ।
फिर एक दिन हम बड़े हो गये ।
सपने भारी-भारी हो गये ।
अपने ही नहीं, सबके हो गये ।
पता ही नहीं लगा
वह कागज़ की नाव कहां खो गई ।
कभी अनायास यूं ही
याद आ जाती है,
तो ढूंढने निकल पड़ते हैं ।
किन्तु भारी सपने कहां
पीछा छोड़ते हैं,
सपने सिर पर लादे घूम रहे हैं ।
अब नाव नहीं बनती।
मेरी कागज़ की नाव
न जाने कहां खो गई,
मिल जाये तो लौटा देना ।
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मेरी समझ कुछ नहीं आता
मां,
मास्टर जी कहते हैं
धरती गोल घूमती।
चंदा-तारे सब घूमते
सूरज कैसे आता-जाता
बहुत कुछ बतलाते।
मेरी समझ नहीं कुछ आता
फिर हम क्यों नहीं गिरते।
पेड़-पौधे खड़े-खड़े
हम पर क्यों नहीं गिरते।
चंदा लटका आसमान में
कभी दिखता
कभी खो जाता।
कैसे कहां चला जाता है
पता नहीं क्या-क्या समझाते।
इतने सारे तारे
घूम-घूमकर
मेरे बस्ते में क्यों नहीं आ जाते।
कभी सूरज दिखता
कभी चंदा
कभी दोनों कहीं खो जाते।
मेरी समझ कुछ नहीं आता
मास्टर जी
न जाने क्या-क्या बतलाते।
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बड़े-बड़े कर रहे आजकल बात बहुत साफ़-सफ़ाई की
शौचालय का विज्ञापन करके, करते खूब कमाई जी
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अंदाज़ उनका
उलझा कर गया अंदाज़ उनका
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अंधेरे में रोशनियाँ हैं चमक रही
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छुट्टी हमको चाहिए, रसोई आज सम्हालो तुम।
झाड़ू, पोचा, बर्तन, कपड़े, सब करना होगा,
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बढ़ती आबादी को रोक नहीं पाते
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रोशनी से
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नमन करने चला मैं।
न बदला सूरज
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तो अपनी राहों पर
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उम्र यूं ही बीती जाती
सोचते-सोचते
आगे बढ़ता चला मैं।
धूल-धूसरित राहें
न रोकें मुझे
हाथ में लाठी लिए
मनमस्त चला मैं।
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हाथ नहीं मांगता
अपने दम पर
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शाखाएं झुक रहीं
छांव बांटतीं
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तभी तो
अपनी राहों पर
अपने हक से चला मैं।
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क्या आयु
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कौन-सा आरक्षण
और इस सबका क्या आधार ?
अनुत्तरित हैं सब प्रश्न।
यह कौन सी आग है
जो अपने-आप को ही जला रही है।
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तिनका-तिनका जोड़कर
बनता है एक घरौंदा।
शताब्दियों से लूटे जाते रहे हम
आततायियों से।
जाने कहां से आते थे
और देश लूटकर चले जाते थे,
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कैसे निकले उस सबसे बाहर
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कैसे भूल सकते हैं हम।
और आज !
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