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उदित होते सूर्य की रश्मियां
मन को आह्लादित करती हैं।
विविध रंग
मन को आह्लादमयी सांत्वना
प्रदान करते हैं।
शांत चित्त, एकान्त चिन्तन
सांसारिक विषमताओं से
मुक्त करता है।
सांसारिकता से जूझते-जूझते
जब मन उचाट होता है,
तब पल भर का ध्यान
मन-मस्तिष्क को
संतुलित करता है।
आधुनिकता की तीव्र गति
प्राय: निढाल कर जाती है।
किन्तु एक दीर्घ उच्छवास
सारी थकान लूट ले जाता है।
जब मन एकाग्र होता है
तब अधिकांश चिन्ताएं
कहीं गह्वर में चली जाती हैं
और स्वस्थ मन-मस्तिष्क
सारे हल ढूंढ लाता है।
इन व्यस्तताओं में
कुछ पल तो निकाल
बस अपने लिये।
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चिराग जलायें बैठे हैं
घनघोर अंधेरे में
जुगनुओं को जूझते देखा।
गहरे सागर में
दीपक को राह ढूंढते
तिरते देखा।
गहन अंधेरी रातों में
चांद-तारे भी
भटकते देखे मैंने,
रातों की आहट से
सूरज को भी डूबते देखा।
और हमारी
हिम्मत देखो
चिराग जलायें बैठे हैं
चलो, राह दिखाएं तुमको।
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जल की महिमा
बूंद-बूंद से घट भरे, बूंद-बूंद से न घटे सागर
जल की महिमा वो जाने, जिसके पास न गागर
पानी की बरबादी चुभती है, खड़़े पानी में कीट
अंजुरी-भर पानी ले, सोचिए कैसे रखें पानी बचाकर
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क्रांति
क्रांति उस चिड़िया का नाम है
जिसे नई पीढ़ी ने जन्म दिया।
पुरानी पीढ़ी उसके पैदा होते ही
उसके पंख काट देना चाहती है।
लेकिन नई पीढ़ी उसे उड़ना सिखाती है।
जब वह उड़ना सीख जाती है
तो पुरानी पीढ़ी
उसके लिए,
एक सोने का पिंजरा बनवाती है
और यह कहकर उसे कैद कर लेती है
कि नई पीढ़ी तो उसे मार ही डालती।
यह तो उसकी सुरक्षा सुविधा का प्रबन्ध है।
वर्षों बाद
जब वह उड़ना भूल जाती है
तो पिंजरा खोल दिया जाता है
क्योंकि
अब तक चिड़िया उड़ना भूल गई है
और सोने का मूल्य भी बढ़ गया है
इसलिए उसे बेच दिया जाता हे
नया लोहे का लिया जाता है
जिसमें नई पीढ़ी को
इस अपराध में बन्द कर दिया जाता है
आजीवन
कि उसने हमें खत्म करने,
मारने का षड्यन्त्र रचा था
हत्या करनी चाही थी हमारी।
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कहते हैं कोई ऊपरवाला है
कहते हैं कोई ऊपरवाला है, सब कुछ वो ही तो दिया करता है
पर हमने देखा है, जब चाहे सब कुछ ले भी तो लिया करता है
लोग मांगते हाथ जोड़-जोड़कर, हरदम गिड़गिड़ाया करते हैं
पर देने की बारी सबसे ज़्यादा टाल-मटोल वही किया करता है
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इन्द्रधनुष-सी ज़िन्दगी
प्रतिदिन निरखती हूँ
आकाश को
भावों से सराबोर
कभी मुस्कुराता
कभी खिल-खिल हँसता
कभी रूठता-मनाता
सूरज, चंदा, तारों संग खेलता
कभी मुट्ठी में बाँधता कभी छोड़ता।
बादलों को अपने ऊपर ओढ़ता
फिर बादलों की ओट से
झाँक-झाँक देखता।
.
आकाश में बिखरे रंगों से
कभी मुलाकात की है आपने?
मेरे मन में अक्सर उतर आते हैं।
गिन नहीं पाती, परख नहीं पाती
बस हाथों में लिए
निरखती रह जाती हूँ।
आकाश से धरा तक बरसते
चाँद-तारों संग गीत गाते
बादलों में उलझते
दिन-रात, सांझ-सवेरे
नवीन आकारों में ढलते
पल-पल, हर पल रूप बदलते
वर्षा की रिमझिम बूँदों से झांकते।
पत्तों पर लहराती
ओस की बूँदों के भीतर
छुपन-छुपाई खेलते।
.
और फिर
सूरज की किरणों से झांकती
रिमझिम बारिश के बीच से
रंगों के बनते हैं भंवर
जिनमें डूबता-उतरता है मन
आकाश में लहराते हैं
लहरिए सात रँग।
.
इन रँगों को अपनी आँखों से
मन के भीतर तक ले जाती हूँ
और इस तरह
इन्द्रधनुष-सी रंगीन
हो जाती है ज़िन्दगी।
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सागर का मन
पूर्णिमा के चांद को देख
चंचल हो उठता है
सागर का मन,
उत्ताल तरंगें
उमड़ती हैं
उसके मन में,
वैसे ही सीमा-विहीन है
सागर का मन।
ऐसे में
और बिखर-बिखर जाता है,
कौन समझा है यहां।
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दिखाने को अक्सर मन हंसता है
चोट कहां लगी थी,
कब लगी थी,
कौन बतलाए किसको।
दिल छोटा-सा है
पर दर्द बड़ा है,
कौन बतलाए किसको।
गिरता है बार-बार,
और बार-बार सम्हलता है।
बहते रक्त को देखकर
दिखाने को अक्सर मन हंसता है।
मन की बात कह ले पगले,
कौन समझाए उसको।
न डर कि कोई हंसेगा,
या साथ न देगा कोई।
ऐसे ही दुनिया चलती है,
जीवन ऐसे ही चलता है,
कौन समझाए उसको।
आंसू भीतर-भीतर तिरते हैं,
आंखों में मोती बनते हैं,
तिनका अटका है आंख में,
कहकर,
दिखाने को अक्सर मन हंसता है।
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मेरी वीणा के तारों में ऐसी झंकार
काल की रेखाओं में
सुप्त होकर रह गये थे
मेरे मन के भाव।
दूरियों ने
मन रिक्त कर दिया था
सिक्त कर दिया था
आहत भावनाओं ने।
बसन्त की गुलाबी हवाएँ
उन्मादित नहीं करतीं थीं
न सावन की घटाएँ
पुकारती थीं
न सुनाती थीं प्रेम कथाएँ।
कोई भाव
नहीं आता था मन में
मधुर-मधुर रिमझिम से।
अपने एकान्त में
नहीं सुनना चाहती थी मैं
कोई भी पुकार।
.
किन्तु अनायास
मन में कुछ राग बजे
आँखों में झिलमिल भाव खिले
हुई अंगुलियों में सरसराहट
हृदय प्रकम्पित हुआ,
सुर-साज सजे।
तो क्या
वह लौट आया मेरे जीवन में
जिसे भूल चुकी थी मैं
और कौन देता
मेरी वीणा के तारों में
ऐसी झंकार।
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हैं तो सब इंसान ही
एक असमंजस की स्थिति में हूं।
शब्दों के अर्थ
अक्सर मुझे भ्रमित करते हैं।
कहते हैं
पर्यायवाची शब्द
समानार्थक होते हैं,
तब इनकी आवश्यकता ही क्या ?
इंसान और मानव से मुझे,
इंसानियत और मानवीयता का बोध होता है।
आदमी से एक भीड़ का,
और व्यक्ति से व्यक्तित्व,
एकल भाव का।
.
शायद
इन सबके संयोग से
यह जग चलता है,
और तब ईश्वर यहीं
इनमें बसता है।
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सच बोलने की आदत है बुरी
सच बोलने की आदत है बुरी।
इसीलिए
सभी लोग रहने लगे हैं किनारे ।
पीठ पर वार करना मुझे भाता नहीं।
चुप रहना मुझे आता नहीं।
भाती नहीं मुझे झूठी मिठास।
मन मसोस कर मैं जीती नहीं।
खरी-खरी कहने से मैं रूकती नहीं।
इसीलिए
सभी लोग रहने लगे हैं किनारे।
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हालात क्या बदले,
वक्त ने क्या चोट दी,
सब लोग रहने लगे हैं किनारे ।
काश !
कोई तो हमारी डूबती कश्ती में
सवार होता संग हमारे।
कहीं तो हम नाव खेते
किसी के सहारे।
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किन्तु हालात यूं बदले
न पता लगा, कब टूटे किनारे।
सब लोग जो बैठे थे किनारे।
डूबते-उतरते वे अब ढूंढने लगे सहारे।
तैर कर निकल आये हम तो किनारे।
उसी कश्ती को थाम ,
अब वे भी ढूंढने में लगे हैं किनारे ।