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राधा बोली कृष्ण से, चल श्याम वन में, रासलीला के लिए
कृष्ण हतप्रभ, बोले गीता में दिया था संदेश हर युग के लिए
बहुत अवतार लिए, युद्ध लड़े, उपदेश दिये तुम्हें हे मानव!
कर्म-काण्ड छोड़कर, बस कर्म करो मेरी आराधना के लिए
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नाम लिखा है तुम्हारा
रोज़ एक फूल छुपाती थी किताबों में
तुम्हारे चेहरे का अक्स बनाती थी किताबों में
दिल की बात बताती थी किताबों में
फिर एक दिन किताब पुरानी हो गई
पन्ने खुलने लगे, फूल झरने लगे
सूखे फूलों को समेटा, पत्ती पत्ती को सहेजा
कोई देख न ले
इसलिए बंद मुठ्ठी में सहेजा
पर मुठ्ठी की दरारों से, चाहत झरने लगी
फूल फिर रूप लेने लगे,
रंग फिर बहकने लगे
नाम तुम्हारा लिखने लगे
दिल में बाग खिलने लगे
उपहार भेजती हूं तुम्हें
तुम्हारा ही दिल
नाम लिखा है तुम्हारा
फूलों में, कलियों में
इन उलझी लड़ियों में
सलमे सितारों में
तारों में , हारों में ।।।।।।
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नदी हो जाना
बहती नदी के
सौन्दर्य की प्रशंसा करना
कितना सरल है]
और नदी हो जाना
उतना ही कठिन।
+
नदी
मात्र नदी ही तो नहीं है]
यह प्रतीक है]
एक लम्बी लड़ाई की,
बुराईयों के विरुद्ध
कटुता और शुष्कता के विरुद्ध
निःस्वार्थ भावना की
निष्काम भाव से
कर्म किये जाने की
समर्पण और सेवा की
विनम्रता और तरलता की।
अपनी मंज़िल तक पहुंचने के लिए
प्रकृति से युद्ध की।
हर अमृत और विष पी सकने वाली।
नदी
कभी रुकती नहीं
थकती नहीं।
मीलों-मील दौड़ती
उंचाईयों-निचाईयों को नापती
विघ्न-बाधाओं से टकराती
दुनिया-भर की धुल-मिट्टी
अपने अंक में समेटती
जिन्दगी बिखेरती
नीचे की ओर बढ़कर भी
अपने कर्मों सेे
निरन्तर
उपर की ओर उठती हुई
- नदी-
कभी तो
रास्ते में ही
सूखकर रह जाती है
और कभी जा पहुंचती है
सागर-तल तक
तब उसे कोइ नहीं पहचानता
यहां
मिट जाता है
उसका अस्तित्व।
नदी समुद्र हो जाती है
बदल जाता है उसका नाम।
समुद्र और कोई नहीं है
नदी ही तो है
बार-बार आकर
समुद्र बनती हुई
चाहो तो तुम भी समुद्र हो सकते हो
पर इसके लिए पहले
नदी बनना होगा।
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काश ! हम कोई शिला होते
पत्थरों में प्यार तराशते हैं
और जिह्वा को कटार बनाये घूमते हैं।
छैनी जब रूप-आकार तराशती है
तब एक संसार आकार लेता है।
तूलिका जब रंग बिखेरती है
तब इन्द्रधनुष बिखरते हैं।
किन्तु जब हम
अन्तर्मन के भावों को
रूप-आकार, रंगों का संसार
देने लगते हैं,
सम्बन्धों को तराशने लगते हैं
तब न जाने कैसे
छैनी-हथौड़े
तीखी कटार बन जाते हैं,
रंग उड़ जाते हैं
सूख जाते हैं।
काश ! हम भी
वास्तव में ही कोई शिला होते
कोई तराशता हमें,
रूप-रंग-आकार देता
स्नेह उंडेलता
कोई तो कृति ढलती,
कोई तो आकृति सजती।
कौन जाने
फिर रंग भी रंगों में आ जाते
और छैनी-हथौड़ी भी
सम्हल जाते।
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कहते हैं कोई ऊपरवाला है
कहते हैं कोई ऊपरवाला है, सब कुछ वो ही तो दिया करता है
पर हमने देखा है, जब चाहे सब कुछ ले भी तो लिया करता है
लोग मांगते हाथ जोड़-जोड़कर, हरदम गिड़गिड़ाया करते हैं
पर देने की बारी सबसे ज़्यादा टाल-मटोल वही किया करता है
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दोराहों- चौराहों को सुलझाने बैठी हूं
छोटे-छोटे कदमों से
जब चलना शुरू किया,
राहें उन्मुक्त हुईं।
ज़िन्दगी कभी ठहरी-सी
कभी भागती महसूस हुई।
अनगिन सपने थे,
कुछ अपने थे,
कुछ बस सपने थे।
हर सपना सच्चा लगता था।
हर सपना अच्छा लगता था।
मन की भटकन थी
राहों में अटकन थी।
हर दोराहे पर, हर चौराहे पर,
घूम-घूमकर जाते।
लौट-लौटकर आते।
जीवन में कहीं खो जाते।
समझ में ही थी तकरार
दुविधा रही अपार।
सब पाने की चाहत थी,
पर भटके कदमों की आहट थी।
क्या पाया, क्या खोया,
कभी कुछ समझ न आया।
अब भी दोराहों- चौराहों को
सुलझाने बैठी हूं,
न जाने क्यों ,
अब तक इस में उलझी बैठी हूं।
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बूंदे गिरतीं
बादल आये, वर्षा लाये।
बूंदे गिरतीं,
टप-टप-टप-टप।
बच्चे भागे ,
छप-छप-छप-छप।
मेंढक कूदे ,
ढप-ढप-ढप-ढप।
बकरी भागी, कुत्ता भागा।
गाय बोली मुझे बचाओ
भीग गई मैं
छाता लाओ, छाता लाओ।
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होगा कैसे मनोरंजन
कौन कहे ताक-झांक की आदत बुरी, होगा कैसे मनोरंजन
किस घर में क्या पकता, नहीं पता तो कैसे मानेगा मन
अपने बर्तन-भांडों की खट-पट चाहे सुनाये पूरी कथा
औरों की सीवन उधेड़ कर ही तो मिलता है चैन-अमन
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शब्दों से जलाने वाले
आग लगाने वाले यहां बहुत हैं
बिना आग सुलगाने वाले बहुत हैं
बुझाने की बात तो करना ही मत
शब्दों से जलाने वाले यहां बहुत हैं
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मुझको विश्व-सुन्दरी बनना है
बड़ी देर से निहार रही हूं
इस चित्र को]
और सोच रही हूं
क्या ये सास-बहू हैं
टैग ढूंढ रही हूं
कहां लिखा है
कि ये सास-बहू हैं।
क्यों सबको
सास-बहू ही दिखाई दे रही हैं।
मां-बेटी क्यों नहीं हो सकती
या दादी-पोती।
नाराज़ दादी अपनी पोती से
करती है इसरार
मैं भी चलूंगी साथ तेरे
मुझको भी ऐसा पहनावा ला दे
बहुत कर लिया चैका-बर्तन
मुझको भी माॅडल बनना है।
बूढ़ी हुई तो क्या
पढ़ा था मैंने अखबारों में
हर उमर में अब फैशन चलता है]
ले ले मुझसे चाबी-चैका]
मुझको
विश्व-सुन्दरी का फ़ारम भरना है।
चलना है तो चल साथ मेरे
तुझको भी सिखला दूंगी
कैसे करते कैट-वाक,
कैसे साड़ी में भी सब फबता है
दिखलाती हूं तुझको,
सिखलाती हूं तुझको
इन बालों का कैसे जूड़ा बनता है।
चल साथ मेरे
मुझको विश्व-सुन्दरी बनना है।
दे देना दो लाईक
और देना मुझको वोट
प्रथम आने का जुगाड़ करना है,
अब तो मुझको ही विश्व-सुन्दरी बनना है।
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जब चाहिए वरदान तब शीश नवाएं
जब-जब चाहिए वरदान तब तब करते पूजा का विधान
दुर्गा, चण्डी, गौरी सबके आगे शीश नवाएं करते सम्मान
पर्व बीते, भूले अब सब, उठ गई चौकी, चल अब चौके में
तुलसी जी कह गये,नारी ताड़न की अधिकारी यह ले मान।।