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समाचार पत्र
कभी मोहल्ले की
रौनक हुआ करते थे।
एक आप लेते थे
एक पड़ोसियों से
मांगकर पढ़ा करते थे।
पूरे घर की
माँग हुआ करते थे।
दिनों-दिन
बातचीत का
आधार हुआ करते थे,
चैपाल और काॅफ़ी हाउस में
काफ़ी से ज़्यादा गर्म
चर्चा का आधार हुआ करते थे।
विश्वास का
नाम हुआ करते थे।
ज्ञान-विज्ञान की
खान हुआ करते थे।
नित नये काॅलम
पूरे परिवार के
मनोरंजन का
आधार हुआ करते थे।
-
मानों
युग बदल गया।
अब
समाचार पत्रों में
सब मिलता है
बस
समाचार नहीं मिलते।
कोई मुद्दे,
कोई भाव नहीं मिलते।
पृष्ठ घटते गये
विज्ञापन बढ़ते गये।
चार पन्नों को
उलट-पुलटकर
पलभर में रख देते हैं।
चित्र बड़े हो रहे हैं
पर कुछ बोलते नहीें।
बस
डराते हैं
धमकाते हैं
और चले जाते हैं।
कहानियाँ रह गईं
सत्य कहीं बिखर गया।
अन्त में लिखा रहता है
अनेक जगह
इन समाचारों/विचारों का
हमारा कोई दायित्व नहीं।
तो फिर
इनका
कुछ और नाम न रख लें।
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More Articles
मन में एक विश्चास हो
चल आज
इन उमड़ते-घुमड़ते बादलों
में जीवन का
एक मधुर चित्र बनायें।
सूरज की रंगीनियां
बादलों की अठखेलियां
किरणों से बनायें।
दूरियां कितनी भी हों,
जब हाथ में हाथ हो,
मन में एक विश्चास हो,
सहज-सरल-सरस
भाव हों,
बस , हम और आप हों।
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छटा निखर कर आई
शीत ऋतृ ने पंख समेटे धूप निखरकर आई
तितली ने मकरन्द चुना,फूलों ने ली अंगड़ाई
बासन्ती चूनर ओढ़े उपवन ने देखो रंग बदले,
पल्लव निखरे,पुष्प खिले,छटा निखर कर आई
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प्यार का नाता
एक प्यार का नाता है, विश्वास का नाता है
भाई-बहन से मान करता, अपनापन भाता है
दूर रहकर भी नज़दीकियाँ यूँ बनी रहें सदा
जब याद आती है, आँख में पानी भर आता है
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हिम्मत लेकर जायेगी शिखर तक
किसी के कदमों के छूटे निशान न कभी देखना
अपने कदम बढ़ाना अपनी राह आप ही देखना
शिखर तक पहुंचने के लिए बस चाहत ज़रूरी है
अपनी हिम्मत लेकर जायेगी शिखर तक देखना
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हाथों में हाथ हो
जब अपनों का साथ हो
हाथों में हाथ हो
तब धरा से गगन तक
मार्ग सुगम हो जाते हैं
चांद राहें रोशन करता है
ज्वार भावनाओं का
उमड़ता है
राहों में फूल बिछते हैं
दिल से दिल मिलते हैं
-
तो तुम्हें क्या ! ! ! !
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लाठी का अब ज़ोर चले
रंग फीके पड़ गये
सत्य अहिंसा
और आदर्शों के
पंछी देखो उड़ गये
कालिमा गहरी छा गई।
आज़ादी तो मिली बापू
पर लगता है
फिर रात अंधेरी आ गई।
निकल पड़े थे तुम अकेले,
साथ लोग आये थे।
समय बहुत बदल गया
लहर तुम्हारी छूट गई।
चित्र तुम्हारे बिक रहे,
ले-देकर उनको बात बने
लाठी का अब ज़ोर चले
चित्रों पर हैं फूल चढ़े
राहें बहुत बदल गईं
सब अपनी-अपनी राह चले
अर्थ-अनर्थ यहां हुआ
समझ तुम्हारे आये न।
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नेह के मोती
अपने मन से,
अपने भाव से,
अपने वचनों से,
मज़बूत बांधी थी डोरी,
पिरोये थे
नेह के मोती,
रिश्तों की आस,
भावों का सागर,
अथाह विश्वास।
-
किन्तु
समय की धार
बहुत तीखी होती है।
-
अकेले
मेरे हाथ में नहीं थी
यह डोर।
हाथों-हाथ
घिसती रही
रगड़ खाती रही
गांठें पड़ती रहीं
और बिखरते रहे मोती।
और जब माला टूटती है
मोती बिखरते हैं
तो कुछ मोती तो
खो ही जाते हैं
कितना भी सम्हाल लें
बस यादें रह जाती हैं।
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मानसिकता कहां बदली है
मांग भर कर रखना बेटी, सास ससुर की सब सहना बेटी
शिक्षा, स्वाबलम्बन भूलकर बस चक्की चूल्हा देखना बेटी
इस घर से डोली उठे, उस घर से अर्थी, मुड़कर न देखना कभी
कहने को इक्कीसवीं सदी है, पर मानसिकता कहां बदली है बेटी
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इशारों में ही बात हो गई
मेरे हाथ आज लगे
जिन्न और चिराग।
पूछा मैंने
क्या करोगे तुम मेरे
सारे काम-काज।
बोले, खोपड़ी तेरी
क्या घूम गई है
जो हमसे करते बात।
ज्ञात हो चुकी हमको
तुम्हारी सारी घात।
बहुत कर चुके रगड़ाई हमारी।
बहुत लगाये ढक्कन।
किन्तु अब हम
बुद्धिमान हो गये।
बोतल बड़ी-बड़ी हो गई,
लेन-देन की बात हो गई,
न रगड़ाई और न ढक्कन।
बस देता जा और लेता जा।
लाता जा और पाता जा।
भर दे बोतल, काम करा ले।
काम करा ले बोतल भर दे।
इशारों में ही बात हो गई
समझ आ गई तो ठीक
नहीं आई तो
जाकर अपना माथा पीट।
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त्रिवेणी विधा में रचना २
चेहरे अब अपने ही चेहरे पहचानते नहीं
मोहरे अब चालें चलना जानते ही नहीं
रीति बदल गई है यहां प्रहार करने की