Share Me
काश ! पहाड़-सी होती मेरी ज़िन्दगी
ज़रा-ज़रा सी बात पर
यूं ही
भरभराकर
नहीं गिर जाते ये पहाड़।
अपने अन्त:करण में
असंख्य ज्वालामुखी समेटे
बांटते हैं
नदियों की तरलता
झरनों की शरारत
नहरों का लचीलापन।
कौन कहेगा इन्हें देखकर
कि इतने भाप्रवण होते हैं ये पहाड़।
पहाड़ों की विशालता
अपने सामने
किसी को बौना नहीं करती।
अपने सीने पर बसाये
एक पूरी दुनिया
ज़मीन से उठकर
कितनी सरलता से
छू लेते हैं आकाश को।
बादलों को सहलाते-दुलारते
बिजली-वर्षा-आंधी
सहते-सहते
कमज़ोर नहीं हो जाते यह पहाड़।
आकाश को छूकर
ज़मीन को नहीं भूल जाते ये पहाड़।
ज़रा-ज़रा सी बात पर
सागर की तरह
उफ़न नहीं पड़ते ये पहाड़।
नदियों-नहरों की तरह
अपने तटबन्धों को नहीं तोड़ते।
बार-बार अपना रास्ता नहीं बदलते
नहरों-झीलों-तालाबों की तरह
झट-से लुप्त नहीं हो जाते।
और मावन-मन की तरह
जगह-जगह नहीं भटकते।
अपनी स्थिरता में
अविचल हैं ये पहाड़।
अपने पैरों से रौंद कर भी
रौंद नहीं सकते तुम पहाड़।
पहाड़ों को उजाड़ कर भी
उजाड़ नहीं सकते तुम पहाड़।
पहाड़ की उंचाई
तो शायद
आंख-भर नाप भी लो
लेकिन नहीं जान सकते कभी
कितने गहरे हैं ये पहाड़।
बहुत बड़ी चाहत है मेरी
काश !
पहाड़-सी होती मेरी ज़िन्दगी।
Share Me
Write a comment
More Articles
औरत की दुश्मन औरत
एक बहुत प्रसिद्ध कहावत है कि औरत औरत की दुश्मन होती है। बड़ी सरलता से हमारे समाज में, व्यवहार में, परिवारों में, महिलाओं का उपहास करने के लिए इस वाक्य का प्रयोग किया जाता है।
कारण प्रायः केवल सास-बहू के बनते-बिगड़ते सम्बन्धों के आधार पर सत्यापित किया जाता है। अथवा कभी-कभी ननद-भाभी की परस्पर अनबन को लेकर।
किन्तु जितनी कहानियाँ हमारे समाज में इस तरह की बुनी जाती रही हैं और महिलाओं को इन कहानियों द्वारा अपमानित किया जाता है वे सत्य में कितनी हैं? क्या हम ही अपने परिवारों में देखें तो कितनी महिलाएँ परिवारों में दुश्मनों की तरह रह रही हैं। और केवल परिवारों में ही नहीं, समाज में, कार्यस्थलों में, राहों में , कहीं भी इस वाक्य को सुनाकर महिलाओं का अपमान कर दिया जाता है।
अनबन पिता-पुत्र में भी होती है, भाईयों में भी होती है, विशेषकर कार्यस्थलों में तो बहुत ही गहन ईर्ष्या-द्वेष भाव होता है किन्तु कोई नहीं कहता कि आदमी आदमी का दुश्मन है।
ऐसा क्यों ? क्यों महिलाओं के विरुद्ध इस तरह की कहावतें, मुहावरे बने हैं?
कहने को कुछ भी कह लें कि समाज बदल गया है, परिवारों में अब लड़का-लड़की समान हैं किन्तु कहीं एक क्षीण रेखा है जो भेद-भाव बताती है।
एक युवती अपना वह घर छोड़कर जाती है जहां उसने परायों की तरह बीस पच्चीस वर्ष बिताये हैं कि यह उसका घर नहीं है। और जिस घर में प्रवेश करती है वहां उसके लिए नये नियम.कानून पहले ही निर्धारित होते हैं जिनको उसे तत्काल भाव से स्वीकार करना होता है, मानों बिजली का बटन है वह, कि इस कमरे की बत्ती बुझाई और उस कमरे की जला दी। उसे अपने आपको नये वातावरण में स्थापित करने में जितना अधिक समय लगता है उतनी ही वह बुरी होती जाती है।
वास्तव में यदि सास-बहू अथवा ननद-भाभी की अनबन देखें तो वह वास्तव में अधिकार की लड़ाई है। एक युवती को मायके में अधिकार नहीं मिलते, वहाँ भाई और पिता ही सर्वोपरि होते हैं। ससुराल में वह इस आशा के साथ प्रवेश करती है कि यह उसका घर है और यहाँ उसके पास अधिकार होंगे। किन्तु उसके प्रवेश के साथ ही सास और ननद के मन में भय समा जाता है कि उनके अधिकार जाते रहेंगे। और उनकी इस मनोवैज्ञानिक समस्या में परिवार के पुरुषों का व्यवहार प्रायः आग में घी का काम करता है। वे न किसी का सहयोग देते हैं, न उचित पक्ष लेते हैं, न राह दिखाते हैं, बस औरतें तो होती ही ऐसी हैं कह कर पतली गली से निकल लेते हैं।
कभी आपने सुना कि माँ ने बेटी को घर से निकाल दिया अथवा इसके विपरीत। अथवा बेटी ने सम्पत्ति के लिए माँ के विरुद्ध कार्य किया। किन्तु पुरुषों में आप नित्य-प्रति कथाएँ सुनते हैं कि भाई भाई को मार डालता है, बेटा सम्पत्ति के लिए पिता की हत्या कर देता है। चाचे-भतीजे की लड़ाईयाँ। ज़रा-सा पढ़-लिख जाता है तो उसे अपने माता-पिता पिछड़े दिखाई देने लगते हैं ऐसी सत्य अनगिनत कथाएं हम जानते हैं, किन्तु कोई नहीं कहता कि आदमी आदमी का दुश्मन होता है। आज भी नारी: पुरूष अथवा परिवार की पथगामिनी ही है, वह अपने चुने मार्ग पर कहां चल पाती है। हां, परिवार में कुछ भी गलत हो तो आरोपी वही होती है। मां-बेटे, पिता-पुत्र, अन्य सम्बन्धियों के साथ कुछ भी बिगड़े, दोषारोपण नारी पर ही आता है।
दुख इस बात का कि हम स्वयं ही अपने विरूद्ध सोचने लगे हैं क्योंकि हमारा समाज हमारे विरूद्ध सोचता है।
Share Me
मन गया बहक बहक
चिड़िया की कुहुक-कुहुक, फूलों की महक-महक
तुम बोले मधुर मधुर, मन गया बहक बहक
सरगम की तान उठी, साज़ बजे, राग बने,
सतरंगी आभा छाई, ताल बजे ठुमक ठुमक
Share Me
युगे-युगे
मां ने कहा मीठे वचन बोलाकर
अमृत होता है इनमें
सुनने वाले को जीवन देते हैं ।
-
पिता ने कहा
चुप रहा कर
ज़माने की धार-से बोलने लगी है अभी से।
वैसे भी
लड़कियों का कम बोलना ही
अच्छा होता है।
-
यह सब लिखते हुए
मैं बताना तो नहीं चाहती थी
अपनी लड़की होने की बात।
क्योंकि यह पता लगते ही
कि बात कहने वाली लड़की है,
सुनने वाले की भंगिमा
बदल जाती है।
-
पर अब जब बात निकल ही गई,
तो बता दूं
लड़की नहीं, शादीशुदा ओैरत हूं मैं।
-
पति ने कहा,
कुछ पढ़ा-लिखाकर,
ज़माने से जुड़।
अखबार,
बस रसोई में बिछाने
और रोटी बांधने के लिए ही नहीं होता,
ज़माने भर की जानकारियां होती हैं इसमें,
कुछ अपना दायरा बढ़ा।
-
मां की गोद में थी
तब मां की सुनती थी।
पिता का शासनकाल था
तब उनका कहना माना।
और अब, जब
पति-परमेश्वर कह रहे हैं
तब उनका कहना सिर-माथे।
मां के दिये, सभी धर्म-ग्रंथ
उठाकर रख दिये मैंने ताक पर,
जिन्हें, मेरे समाज की हर औरत
पढ़ती चली आई है
पतिव्रता,
सती-सीता-सावित्री बनने के लिए।
और सुबह की चाय के साथ
समाचार बीनने लगी।
-
माईक्रोवेव के युग में
मेरी रसोई
मिट्टी के तेल के पीपों से भर गई।
मेरा सारा घर
आग की लपटों से घिर गया।
आदिम युग में
किस तरह भूना जाता होगा
मादा ज़िंदा मांस,
मेरी जानकारी बढ़ी।
औरत होने के नाते
मेरी भी हिस्सेदारी थी इस आग में।
किन्तु, कहीं कुछ गलत हो गया।
आग, मेरे भीतर प्रवेश कर गई।
भागने लगी मैं पानी की तलाश में।
एक फावड़ा ओैर एक खाली घड़ा
रख दिया गया मेरे सामने
जा, हिम्मत है तो कुंआं खोद
ओैर पानी ला।
भरे कुंएं तो कूदकर जान देने के लिए होते हैं।
-
अविवाहित युवतियां
लड़के मांगती हैं मुझसे।
पैदाकर ऐसे लड़के
जो बिना दहेज के शादी कर लें।
या फिर रोज़-रोज़ की नौटंकी से तंग आकर
आत्महत्या के बारे में
विमर्श करती हैं मेरे घर के पंखों से।
मैं पंखे हटा भी दूं,
तो और भी कई रास्ते हैं विमर्श के।
-
मेरे द्वार पर हर समय
खट्-खट् होने लगी है।
घर से निकाल दी गई औरतें
रोती हैं मेरे द्वार पर,
शरण मांगती हैं रात-आधी रात।
टी वी, फ्रिज, स्कूटर,
पैसा मांगती हैं मुझसे।
आदमी की भूख से कैसे निपटें
राह पूछती हैं मुझसे।
-
मेरे घर में
औरतें ही औरतें हो गईं हैं।
-
बीसियों बलात्कारी औरतों के चेहरे
मेरे घर की दीवारों पर
चिपक गये हैं तहकीकात के लिए।
पुलिसवाले,
कोंच-कोंचकर पूछ रहे हैं
उनसे उनकी कहानी।
फिर करके पूछते हैं,
ऐसे ही हुआ था न।
-
निरीह बच्चियां
बार-बार रास्ता भूल जाती हैं
स्कूल का।
ओढ़ने लगती हैं चूनरी।
मां-बाप इत्मीनान की सांस लेते हैं।
-
अस्पतालों में छांटें जाते हैं
लड़के ओैर लड़कियां।
लड़के घर भेज दिये जाते हैं
और लड़कियां
पुनर्जन्म के लिए।
-
अपने ही चाचा-ताउ से
चचेरों-ममेरों से, ससुर-जेठ
यानी जो भी नाते हैं नर से
बचकर रहना चाहिए
कब उसे किससे ‘काम’ पड़े
कौन जाने
फिर पांच वर्ष की बच्ची हो
अथवा अस्सी वर्ष की बुढ़िया
सब काम आ जाती है।
यह मैं क्या कर बैठी !
यूंही सबकी मान बैठती हूं।
कुछ अपने मन का करती।
कुछ गुनती, कुछ बुनती, कुछ गाती।
कुछ सोती, कुछ खाती।
मुझे क्या !
कोई मरे या जिये,
मस्तराम घोल पताशा पीये।
यही सोच मैंने छोड़ दी अखबार,
और इस बार, अपने मन से
उतार लिए,
ताक पर से मां के दिये सभी धर्मग्रंथ।
पर यह कैसे हो गया?
इस बीच,
अखबार की हर खबर
यहां भी छप चुकी थी।
यहां भी तिरस्कृत,
घर से निकाली जा रहीं थीं औरतेंै
अपहरण, चीरहरण की शिकार,
निर्वासित हो रही थीं औरतें।
शिला और देवी बन रहीं थीं औरतें।
अंधी, गूंगी, बहरीं,
यहां भी मर रहीं थीं औरतें।
-
इस बीच
पूछ बैठी मुझसे
मेरी युवा होती बेटी
मां क्या पढूं मैं।
मैं खबरों से बाहर लिकली,
बोली,
किसी का बताया
कुछ मत पढ़ना, कुछ मत करना।
जिन्दगी आप पढ़ायेगी तुझे पाठ।
बनी-बनाई राहों पर मत चलना।
किसी के कदमों का अनुगमन मत करना।
जिन्दगी का पाठ आप तैयार करना।
छोड़कर जाना अपने कदमों के निशान
कि सारा इतिहास, पुराण
और धर्म मिट जाये।
मिट जाये वर्तमान।
और मिट जाये
भविप्य के लिए तैयार की जा रही आचार-संहिता,
जिसमें सती, श्रापित, अपमानित
होती हैं औरतें।
शिला मत बनना।
बनाकर जाना शिलाएं ,
कि युग बदल जाये।
Share Me
ज़िन्दगी कोई गणित नहीं
ज़िन्दगी
जब कभी कोई
प्रश्नचिन्ह लगाती है,
उत्तर शायद पूर्वनिर्धारित होते हैं।
यह बात
हम समझ ही नहीं पाते।
किसी न किसी गणित में उलझे
अपने-आपको महारथी समझते हैं।
Share Me
खींच-तान में मन उलझा रहता है
आशाओं का संसार बसा है, मन आतुर रहता है
यह भी ले ले, वह भी ले ले, पल-पल ये ही कहता है
क्या छोड़ें, क्या लेंगे, और क्या मिलना है किसे पता
बस इसी खींच-तान में जीवन-भर मन उलझा रहता है
Share Me
बड़ी याद आती है शिमला तुम्हांरी
एक संस्मरण
*-*-*-*-*-*-*
आज जाने कौन-सी स्मृतियों में खींच कर ले गया मुझे मेरा मन। । शिमला का माल-रोड, वहां खड़ी फ़ायर ब्रिगेड की गाड़ी, बर्फ से ढके दूर-दूर तक फैले चीड़-देवदार के वृक्ष। अनायास बिछी एक सफ़ेद चादर। कभी रूईं के फ़ाहों सी, कभी श्वेत रजत-सी, जैसे कहीं दूर से दौड़ती आती और सब कुछ ढककर चली जाती। धरा से आकाश तक। एक स्वर्गिक अनुभव जिसकी अभिव्यक्ति के लिए शब्द नहीं होते।
शिमला में बर्फ़ क्या पड़ी] न जाने कौन-सी स्मृतियों में खींच कर ले गई मुझे। हरीतिमा को अद्भुत सौन्दर्य प्रदान करती एक श्वेत आभा।
शीत ऋतु से लड़ाई के लिए सब तैय्यार रहते थे।नवम्बर आरम्भ होते ही सर्दी की तैयारियां शुरू हो जाती थीं। चार-पांच महीने का राशन, कोयला-लकड़ी भरवानी है, अंगीठियां तैयार रहें, रजाईयां और रजाईयां ही रजाईयां। परिवार में जितने सदस्य उतनी गर्म पानी की बोतलें, वह भी गिलाफ़ चढ़ाकर, कोट, मोटे स्वेटर, छाते, बरसाती यानी रेनकोट, टोपी, मफलर, स्कार्फ, दस्ताने, गर्म जुराबें, गमबूट और न जाने क्या क्या।
प्रायः दिसम्बर में बर्फ पड़ जाती थी किन्तु कभी किसी ने छुट्टी लेने का सोचा ही नहीं। तीन-तीन चार-चार फुट बर्फ में भी सभी प्रायः चार-पांच किलोमीटर पैदल चलकर स्कूल, कालेज, कार्यालयों में पहुंचा करते थे। हर दफ्तर में स्टीम कोयले की अंगीठियां जला करती थीं जिन्हे महाम कहा जाता था। बाद में हीटर भी मिलने लगे। घरों में भी ऐसी ही अंगीठियां जलाते थे जिन पर साथ ही पानी भी गर्म हो सके। और पानी ! न जी न! पानी कहां। शून्य से नीचे के तापमान में पानी नलों में जम जाता था। पानी की पाईप फ़ट जाती थीं। पानी भरकर रखना पड़ता था और बर्तनों में भरकर रखे पानी में भी स्लेट जम जाती थी। सबसे आनन्द की बात तो यह होती थी कि न पानी आयेगा, न गर्म होगा न नहाना पड़ेगा।
25 दिसम्बर से 28 फरवरी तक सर्दी की छुट्टियां। दिन-रात अंगीठियां जली रहतीं। सारा दिन या तो अंगीठियों को घेरकर कम्बल-रजाईयां लपेटे बैठे रहते, खूब खाते। दिन भर में 12-15 चाय तो आम बात होती और वह भी आज के शब्दों में लार्ज। और बस मूंगफली। अथवा बिस्तरों में ही दुबके बैठे । आज सोचती हूं तो देखती हूं 8 सदस्यों के परिवार में 12-15 चाय अर्थात दिन-भर में 100 से अधिक चाय। काश! तब ठीक से सोचा होता तो परिवार से कोई तो प्रधानमंत्री बन सकता था। तभी तो दादी मां से कहती थी ‘’लाड़ी, पाणिये दी टांकिया बिच ही चीनी-पत्ती पाई देया कर, सारा दिन चाई दा डबरू इ चढ़ी रहंदा।‘’ (बहू, पानी की टांकी में ही चीनी-पत्ती डाल दिया कर, सारा दिन चाय का पतीला चढ़ा रहता है।) और बस मूंगफली और गुड़-शक्कर।
बर्फ को गिरते देखना, महसूस करना, हर बार एक नया आनन्द और अनुभव होता। बर्फ को हाथों से छूते, गोले बनाते, बर्फ के बुत बनाते, खाते और घर के अन्दर लाकर बर्तनों में भी रख देते। आश्चर्य होता था कि कैसे एक-एक पत्ती, कण-कण ढक जाता, एक कोमल श्वेत आभा से। टेढ़ी टीन की छतों पर से बर्फ धीरे-धीरे फ़िसलती, मानों कोई शरारत कर रहा हो। और हम नीचे खड़े प्रतीक्षा करते कि अब गिरी और तब गिरी। कभी धीरे-धीरे तो कभी धड़ाम से धमाका करती गिरती। ऐसे पलों की मानों हम प्रतीक्षा करते थे। जब बर्फ पिघलती, तो छत से टपकती बूंदों का स्वर आनन्दिन करता। तापमान शून्य से नीचे रहने पर छतों से टपकती बूंदे हवा में ही जमने लगतीं, और छतों से लटकती, लम्बी-लम्बी, मोटी पारदर्शी नलियाँ सुन्दर आकार ले लेंतीं, जिन्हें हम नलपियां कहते थे। उनका सौन्दर्य अद्भुत होता था। जब सूरज चमकता तो उनके भीतर से रंग-बिरंगी धाराएं दिखतीं। उन्हें तोड़-तोड़कर खाने का आनन्द लेते। वे इतनी सख्त और नुकीलीं होती थीं कि किसी को चुभ जाये अथवा मारी जाये तो गहरी चोट लग सकती थी।
और बर्फ में बनी कुल्फी ! जब रात को मौसम साफ होता था तो लोटे में चीनी मिश्रित गर्म दूध ढककर बर्फ में दबा देते थे और उसके चारों ओर नमक डाला जाता था। वाह ! क्या आनन्द था उस स्वाद का।
जब बर्फ गिरने लगती तो बाहर बरामदे में आकर बैठ जाते। मां चिल्लाती रह जाती, पर कौन सुनता। हाथों से छूते, गोले बनाते, बर्फ के बुत बनाते, खाते और घर के अन्दर लाकर बर्तनों में भी रख देते।
आज जब सब याद करती हूं तो देखती हूं कि कितनी भी समस्याएं होती थीं कभी समस्या लगी ही नहीं। बिजली नहीं, पानी नहीं, आवागमन का कोई साधन नहीं, किन्तु कभी इस बारे में सोचते ही नहीं थे, बस आनन्द ही लेते थे। कैसा भी मौसम हो शाम को माल-रोड के तीन चक्कर तो लगाने ही हैं स्कैंडल-प्वाईंट से लेडीज़ पार्क तक। और हाथ में बालज़ीस की आईसक्रीम-कोण।
बड़ी याद आती है शिमला तुम्हारी ।।।
इस ऋतु के लिए तैय्यारियां तो पूरा वर्ष ही चली रहती थीं। स्वेटर, गर्म जुराबें ,दस्ताने , मफ़लर तो घर पर ही बुने जाते थे। शिमला की महिलाएं इस बात के लिए बहुत प्रसिद्ध रही हैं कि उनके हाथ में सदैव उन-सिलाईयां रहती थीं।
प्रायः दिसम्बर में बर्फ पड़ जाती थी किन्तु कभी किसी ने छुट्टी लेने का सोचा ही नहीं। और वैसे कभी छुट्टी लें भी लें, किन्तु बर्फ में तो जाना ही है। और यदि छुट्टी है तो पहली बर्फ़ का आनन्द लेने तो माल-रोड जाना ही होगा। तीन-तीन चार-चार फुट बर्फ में भी सभी प्रायः चार-पांच यहां तक कि आठ-दस किलोमीटर पैदल चलकर स्कूल, कालेज, कार्यालयों में पहुंचा करते थे और वह भी समय से। उस समय वाहन की सुविधाएं न के बराबर थीं। हम शिमला में लोअर कैथू रहते थे, स्कूल था छोटा-शिमला में ,लगभग पांच किलोमीटर। पांच वर्ष से 17 वर्ष तक हज़ारों किलोमीटर सफ़र तो इसी रूट पर तय कर लिया होगा आज सोचती हूं। बाद में कालेज, विश्वविद्यालय, बैंक। चढ़ाई-उतराई कुछ न महसूस होती। प्रतिदिन इतनी लम्बी यात्रा का भरपूर आनन्द उठाते थे। बर्फ गिरने के बाद जब दिन भर धूप रहती अथवा बादल, तो बर्फ़ पिघलने लगती। और यदि रात को मौसम साफ़ हो तो सड़कों पर पानी की अदृश्य स्लेटें जम जातीं। खूब फ़िसलन होती, लोगों को गिरते देखने में बड़ा आनन्द आता था।
आज जब सब याद करती हूं तो देखती हूं कि कितनी भी समस्याएं होती थीं कभी समस्या लगी ही नहीं। बिजली नहीं, पानी नहीं, आवागमन का कोई साधन नहीं, किन्तु कभी इस बारे में सोचते ही नहीं थे, बस आनन्द ही लेते थे। कैसा भी मौसम हो शाम को माल-रोड के तीन चक्कर तो लगाने ही हैं स्कैंडल-प्वाईंट से लेडीज पार्क तक। और आकाश से गिरती बर्फ़ और हाथ में बालजीस की आईसक्रीम-कोण।
बड़ी याद आती है शिमला तुम्हांरी ।।।
Share Me
आजकल मेरी कृतियां
आजकल
मेरी कृतियां मुझसे ही उलझने लगी हैं।
लौट-लौटकर सवाल पूछने लगी हैं।
दायरे तोड़कर बाहर निकलने लगी हैं।
हाथ से कलम फिसलने लगी है।
मैं बांधती हूं इक आस में,
वे चौखट लांघकर
बाहर का रास्ता देखने में लगी हैं।
आजकल मेरी ही कृतियां,
मुझे एक अधूरापन जताती हैं ।
कभी आकार का उलाहना मिलता है,
कभी रूप-रंग का,
कभी शब्दों का अभाव खलता है।
अक्सर भावों की
उथल-पुथल हो जाया करती है।
भाव और होते हैं,
आकार और ले लेती हैं,
अनचाही-अनजानी-अनपहचानी कृतियां
पटल पर मनमानी करने लगती हैं।
टूटती हैं, बिखरती हैं,
बनती हैं, मिटती हैं,
रंग बदरंग होने लगते हैं।
आजकल मेरी ही कृतियां
मुझसे ही दूरियां करने में लगी हैं।
मुझे ही उलाहना देने में लगी हैं।
Share Me
इंसानियत को जीत
अपने भीतर झांककर इंसानियत को जीत
कर सके तो कर अपनी हैवानियत पर जीत
क्या करेगा किसी के गुण दोष देखकर
पूजा, अर्चना, आराधना का अर्थ है बस यही
कर ऐसे कर्म बनें सब इंसानियत के मीत
Share Me
सजावट रह गईं हैं पुस्तकें
दीवाने खास की सजावट बनकर रह गईं हैं पुस्तकें
बन्द अलमारियों की वस्तु बनकर रह गई हैं पुस्तकें
चार दिन में धूल झाड़ने का काम रह गई हैं पुस्तकें
कोई रद्दी में न बेच दे,छुपा कर रखनी पड़ती हैं पुस्तकें।
Share Me
व्रत एवं उपवास
‘‘व्रत’’ एवं ‘‘उपवास’’ हमारे पास ये दो शब्द हैं जिन्हें हम प्रायः एक ही अभिप्राय अथवा अर्थ में प्रयोग करते हैं अथवा कह सकते हैं कि पर्यायवाची शब्दों के रूप में प्रयोग करते हैं। किन्तु यह भी सत्य है कि पर्यायवाची शब्दों में भी अर्थ-भेद होता है।
व्याकरण के अनुसार ‘‘व्रत’’ शब्द का अर्थ ‘‘उपवास’’ के अतिरिक्त ‘‘शपथ, प्रण, क़सम, सौगंध’’ भी है। किन्तु हम वर्तमान में उपवास के लिए व्रत शब्द का ही अधिक प्रयोग करते हैं। वास्तव में उपवास करना भी एक व्रत है, सम्भवतः इसी कारण हम दोनों शब्दों का अर्थभेद भूलकर एक ही अभिप्राय से इनका प्रयोग करने लगे हैं।
क्या कभी आपने इस ओर ध्यान दिया है कि हमारे सारे व्रत बदलते मौसम में आते हैं। पहले नवरात्रि मार्च-अप्रैल में तथा दूसरी नवरात्रि सितम्बर-अक्तूबर में। इस समय मौसम बदलता है। प्रथम शीत ऋतु से ग्रीष्म में, द्वितीय सितम्बर-अक्तूबर में ग्रीष्म ऋतु से शीत में। शिवरात्रि पर्व भी मार्च में होता है और जन्माष्टी प्रायः अगस्त में, जब वर्षा ऋतु हमारे स्वास्थ्य को प्रभावित करती है। उपरान्त तीज, करवाचौथ, होई आदि उपवास के पर्व भी इसी मौसम में आते हैं। ग्रीष्म ऋतु में केवल जून में एक उपवास है निर्जलाकादशी। क्षेत्रानुसार भी अलग-अलग पर्व एवं व्रत-उपवास का विधान है।
बदलते मौसम में जहाँ हमारे खान-पान में परिवर्तन होने लगता है वहाँ हमारी पाचन-शक्ति भी प्रभावित होती है, निर्बल होने लगती है। उपवास एवं उपवास में विशेष एवं विविध प्रकार का खान-पान हमारे शरीर एवं पाचन-तंत्र को व्यवस्थित बनाने में सहायक होते हैं।
भारतीय मान्यताओं एवं हमारे भारतीय परिवारों में व्रत एवं उपवास एक अनुष्ठान है, पूजा विधि है, दिन, पर्व, काल की मान्यताएँ एवं परम्पराएँ हैं। स्वच्छता, पवित्रता, कठोर नियम, सबका बन्धन है। इसके अतिरिक्त माह एवं सप्ताह में कुछ दिन अधिक विशेष माने गये हैं, उन दिनों में भी खान-पान एवं व्रत का बन्धन माना जाता है, जैसे संक्राति, मंगलवार, बृहस्पतिवार, शनिवार, एकादशी आदि। अनेक परिवारों में इन में से किसी दिन खान-पान की शुद्धता, व्रत आदि का ध्यान किया जाता है। यह माना जाता है कि यदि सप्ताह में एक दिन उपवास किया जाये तो पाचन-शक्ति सबल रहती है एवं रोग-प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है। कुछ पदार्थों का भी निषेध रहता है।
इन सबके साथ ही श्रृंगार की विधियाँ भी हैं। जैसे करवाचौथ एवं तीज पर मेंहदी लगाना। मेंहदी का प्रभाव भी मानव शरीर को शीतलता प्रदान करता है, यह त्वचा के लिए लाभदायक होती है एवं रक्त प्रवाह को भी प्रभावित करती है। अधिक ज्वर की स्थिति में पैरों के तलवों में मेंहदी का लेप किया जाता था।
इन व्रतों की भोज्य सामग्री शरीर को मौसम के अनुकूल बनाने के लिए एवं पाचन-तंत्र को सशक्त बनाने में सहायक होती है। यहाँ यह भी महत्वपूर्ण है कि भोजन में उन्हीं खाद्य-पदार्थों को सम्मिलित किया जाता है जो उसी मौसम के हों।
ये सब मान्यताएँ एवं पर्व पर्यावरण के अनुकूल, मानसिक एवं शारीरिक सन्तुलन नियन्त्रित रखने के लिए बने हैं। यह भी एक पूरा मौखिक ज्ञान-विज्ञान है जो महिलाएँ पीढ़ी-दर-पीढ़ी सौंपती थीं।
किन्तु काल प्रवाह में, जीवन-शैली के परिवर्तन के साथ, दिनचर्या की कार्यविधियों के अनुकूल व्यवस्थाएँ बदलने लगीं, परम्पराएँ तिरोहित होने लगीं एवं मान्यताएँ भी। क्षेत्रानुसार मनाए जाने वाले तीज-त्योहारों, व्रतों का क्षेत्र विस्तृत होने लगा, सब मिश्रित होने लगा। इसमें कुछ भी गलत-ठीक नहीं होता, स्वाभाविक होता है। परिवार सीमित होने लगे, एकल परिवार बनने लगे और महिलाएँ घर से बाहर निकलीं। इन सब एवं अन्य अनेक कारणों से व्यवस्थाओं पर हमारा नियन्त्रण नहीं रह गया और बहुत कुछ सुविधानुसार परिवर्तित हो गया अथवा बदली हुई जीवन-शैली में हम स्वयँ को ढालने लगे जो अत्यावश्यक था। जितना स्मरण है, सुविधा है, आवश्यक है, हमारी विधियाँ वहीं तक सीमित होने लगीं। जो सब करते हैं वही हम कर लेते हैं।
बदली हुई जीवन-शैली, पारिवारिक व्यवस्थाएँ, बाहरी दायित्वों के कारण व्रतों के लिए बाज़ार स्वयँमेव ही सुविधाएँ एवं सामग्री उपलब्ध करवाने लगा। पहले हर वस्तु घर में बनाई जाती थी, किन्तु अब न वह कला बची है, न समय, न ही आवश्यकता। रसोई बदल गई, खान-पान के नियम बदल गये, समय-निर्धारण खो गया। रसोई घर स्टैंडिग हो गये, नियम स्वतः भंग होते चले गये, शायद यह कहना सकारात्मक होगा कि सुविधानुसार एवं बदली जीवन-शैली के अनुसार परिवर्तन स्वीकार कर लिए गये।
यही जीवन है और इसे हमें स्वीकार करना ही होगा अथवा करना ही चाहिए ऐसा मेरे विचार हैं।