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सोचती हूं,
पर पहले ही बता दूं
कि जो मैं सोचती हूं
वह आपकी दृष्टि में
ठीक नहीं होगा,
किन्तु अपनी सोच को
रोक तो नहीं सकती,
और मेरी सोच पर
आप रोक लगा नहीं सकते,
और आपको बिना बताये
मैं रह भी नहीं सकती।
कितना अच्छा हो
कि संविधान में
नियम बन जाये
कि एक वेशभूषा
एक रंग और एक ही ढंग
जैसे विद्यालयों में बच्चों की
यूनिफ़ार्म।
फिर हाथ सामने जोड़ें
माथा टेकें
अथवा आकाश को पुकारें
कहीं कुछ अलग-सा
महसूस नहीं होगा,
चाहे तुम मुझे धूप से बचाओ
या मैं तुम्हें
वर्षा में भीगने के लिए खींच लूं
कोई गलत अर्थ नहीं निकालेगा,
कोई थोथी भावुकता नहीं परोसेगा
और शायद न ही कोई
आरोप जड़ेगा।
चलो,
आज बाज़ार चलकर
एक-सा पहनावा बनवा लें।
चलोगे क्या ??????
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सरकार यहां पर सोती है
पत्थरों को पूजते हैं, इंसानियत सड़कों पर रोती है।
बस मन्दिर खुलवा दो, मौत सड़कों पर होती है।
मेहनतकश मज़दूरों को देख-देखकर दिल दहला है।
चुप रहना, शोर न करना, सरकार यहां पर सोती है।
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टांके लगा नहीं रही हूं काट रही हूं
अपनी उलझनों को सिलते-सिलते
निहारती हूं अपना जीवन।
मिट्टी लिपा चूल्हा,
इस लोटे, गागर, थाली
गिलास-सा,
किसी पुरातन युग के
संग्रहालय की वस्तुएं हों मानों
हम सब।
और मैं वही पचास वर्ष पुरानी
आेढ़नी लिये,
बैठी रहती हूं
तुम्हारे आदेश की प्रतीक्षा में।
कभी भी आ सकते हो तुम।
चांद से उतरते हुए,
देश-विदेश घूमकर लौटे,
पंचतारा सुविधाएं भोगकर,
अपने सुशिक्षित,
देशी-विदेशी मित्रों के साथ।
मेरे माध्यम से
भारतीय संस्कृति-परम्पराओं का प्रदर्शन करने।
कैसा होता था हमारा देश।
कैसे रहते थे हम लोग,
किसी प्राचीन युग में।
कैसे हमारे देश की नारी
आज भी निभा रही है वही परम्परा,
सिर पर आेढ़नी लिये।
सिलती है अपने भीतर के टांके
जो दिखते नहीं किसी को।
लेकिन, ध्यान से देखो ज़रा।
आज टांके लगा नहीं रही हूं,
काट रही हूं।
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अहं सर्वत्र रचयिते : एक व्यंग्य
हम कविता लिखते हैं।
कविता को गज़ल, गज़ल को गीत, गीत को नवगीत, नवगीत को मुक्त छन्द, मुक्त छन्द को मुक्तक और चतुष्पदी बनाना जानते हैं। और इन सबको गद्य की विविध विधाओं में परिवर्तित करना भी जानते हैं।
अर्थात् , मैं ही लेखक हूँ, मैं ही कवि, गीतकार, गज़लकार, साहित्यकार, गद्य-पद्य की रचयिता, , प्रकाशक, मुद्रक, विक्रेता, क्रेता, आलोचक, समीक्षक भी मैं ही हूँ।
मैं ही संचालक हूँ, मैं ही प्रशासक हूँ।
सब मंचों पर मैं ही हूँ।
इस हेतु समय-समय पर हम कार्यशालाएँ भी आयोजित करते हैं।
अहं सर्वत्र रचयिते।
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जरा सी रोशनी के लिए
जरा सी रोशनी के लिए
सूरज धरा पर उतारने में लगे हैं
जरा सी रोशनी के लिए
दीप से घर जलाने में लगे हैं
ज़रा-सी रोशनी के लिए
हाथ पर लौ रखकर घुमाने में लगे हैं
ज़रा-सी रोशनी के लिए
चांद-तारों को बहकाने में लगे हैं
ज़रा-सी रोशनी के लिए
आज की नहीं
कल की बात करने में लगे हैं
ज़रा -सी रोशनी के लिए
यूं ही शोर मचाने में लगे हैं।
.
यार ! छोड़ न !!
ट्यूब लाईट जला ले,
या फिर
सी एफ़ एल लगवा ले।।।
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मुस्कानों को नहीं छीन सकता कोई
ज़िन्दगियाँ पानी-पानी हो रहीं
जंग खातीं काली-काली हो रहीं
मुस्कानों को नहीं छीन सकता कोई
चाहें थालियाँ खाली-खाली हो रहीं।
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एक मुस्कान हो जाये
देर से
तुम्हें निहारते निहारते
मेरे जीवन में भी
रंग करवट लेने लगे है।।
इस में
अपनों से
मन की बात कह ली हो
तो चलो
एक उड़ान हो जाये
एक मुस्कान हो जाये
बस यूं
गुमसुम गुमसुम न बैठो।
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पर मुझे चिड़िया से तो पूछना होगा
नन्हीं चिड़िया रोज़ उड़ान भरती है
क्षितिज पर छितराए रंगों से आकर्षित होकर।
पर इससे पहले
कि चिड़िया उन रंगों को छू ले
रंग छिन्न-भिन्न हो जाते हैं ।
फिर रंग भी छलावा-भर हैं
शायद, तभी तो रोज़ बदलते हैं अपना अर्थ।
उस दिन
सूरज आग का लाल गोला था।
फिर अचानक किसी के गोरे माथे पर
दमकती लाल बिन्दी सा हो गया।
शाम घिरते-घिरते बिखरते सिमटते रंग
बिन्दी लाल, खून लाल
रंग व्यंग्य से मुस्कुराते
हत्या के बाद सुराग न मिल पाने पर
छूटे अपराधी के समान।
आज वही लाल–पीले रंग
चूल्हे की आग हो गये हैं
जिसमें रोज़ रोटी पकती है
दूध उफ़नता है, चाय गिरती है,
गुस्सा भड़कता है
फिर कभी–कभी, औरत जलती है।
आकाश नीला है, देह के रंग से।
फिर सब शांत। आग चुप।
सफ़ेद चादर । लाश पर । आकाश पर ।
कभी कोई छोटी चिड़िया
अपनी चहचहाहट से
क्षितिज के रंगों को स्वर देने लगती है
खिलखिलाते हैं रंग।
बच्चे किलोल करते हैं,
संवरता है आकाश
बिखरती है गालों पर लालिमा
जिन्दगी की मुस्कुराहट।
तभी, कहीं विस्फ़ोट होता है
रंग चुप हो जाते हैं,
बच्चा भयभीत।
और क्षितिज कालिमा की ओर अग्रसर।
अन्धेरे का लाभ उठाकर
क्षितिज – सब दफ़ना देता है
सुबह फ़िर सामान्य।
पीला रंग कभी तो बसन्त लगता है,
मादकता भरा
और कभी बीमार चेहरा, भूख
भटका हुआ सूरज,
मुर्झाई उदासी, ठहरा ठण्डापन।
सुनहरा रंग, सुनहरा संसार बसाता है
फिर अनायास
क्षितिज के माथे पर
टूटने– बिखरने लगते हैं सितारे
सब देखते है, सब जानते हैं,
पर कोई कुछ नहीं बोलता।
सब चुप ! क्षितिज बहुत बड़ा है !
सब समेट लेगा।
हमें क्या पड़ी है।
इतना सब होने पर भी
चिड़िया रोज़ उड़ान भरती है।
पर मैं, अब
शेष रंगों की पहचान से
डर गई हूं
और पीछे हट गई हूं।
समझ नहीं पा रही हूं
कि चिड़िया की तरह
रोज़ उड़ान भरती रहूं
या फ़िर इन्हीं रंगों से
क्षितिज का इतिहास लिख डालूं
पर मुझे
चिड़िया से तो पूछना होगा।
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नयन क्यों भीगे
मन के उद्गारों को कलम उचित शब्द अक्सर दे नहीं पाती
नयन क्यों भीगे, यह बात कलम कभी समझ नहीं पाती
धूप-छांव तो आनी-जानी है हर पल, हर दिन जीवन में
इतनी सी बात क्यों इस पगले मन को समझ नहीं आती
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आने वाला कल
अपने आज से परेशान हैं हम।
क्या उपलब्धियां हैं
हमारे पास अपने आज की,
जिन पर
गर्वोन्नत हो सकें हम।
और कहें
बदलेगा आने वाला कल।
.
कैसे बदलेगा
आने वाला कल,
.
डरे-डरे-से जीते हैं।
सच बोलने से कतराते हैं।
अन्याय का
विरोध करने से डरते हैं।
भ्रमजाल में जीते हैं -
आने वाला कल अच्छा होगा !
सही-गलत की
पहचान खो बैठे हैं हम,
बनी-बनाई लीक पर
चलने लगे हैं हम।
राहों को परखते नहीं।
बरसात में घर से निकलते नहीं।
बादलों को दोष देते हैं।
सूरज पर आरोप लगाते हैं,
चांद को घटते-बढ़ते देख
नाराज़ होते हैं।
और इस तरह
वास्तविकता से भागने का रास्ता
ढूंढ लेते हैं।
-
तो
कैसे बदलेगा आने वाला कल ?
क्योंकि
आज ही की तो
प्रतिच्छाया होता है
आने वाला कल।
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ज़िन्दगी बहुत झूले झुलाती है
ज़िन्दगी बहुत झूले झुलाती है
कभी आगे,कभी पीछे ले जाती है
जोश में कभी ज़्यादा उंचाई ले लें
तो सीधे धराशायी भी कर जाती है