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कहते हैं
जड़ें ज़मीन में जितनी गहरी हों
वृक्ष उतने ही फलते-फूलते हैं।
अपनी मिट्टी की पकड़
उन्हें उर्वरा बनाये रखती है।
किन्तु वट-वृक्ष !
मैं नहीं जानती
कि ज़मीन के नीचे
इसकी कहां तक पैठ है।
किन्तु इतना समझती हूं
कि अपनी जड़ों को
यह धरा पर भी ले आया है।
डाल से डाल निकलती है
उलझती हैं,सुलझती हैं
बिखरती हैं, संवरती हैं,
वृक्ष से वृक्ष बनते हैं।
धरा से गगन,
और गगन से धरा की आेर
बार-बार लौटती हैं इसकी जड़ें
नव-सृजन के लिए।
-
बस
इंसान की हद का ही पता नहीं लगता
कि कितना ज़मीन के उपर है
और कितना ज़मीन के भीतर।
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आदान-प्रदान का युग है
जरूरी नहीं कि शिखर पर बैठा हर इंसान उत्थान का प्रतीक हो
जाने कौन-सी सीढ़ियां चढ़ा, कहां पग धरा, अनुगमन की लीक हो
पद, पदक, सम्मान, उपाधियाँ सदा उपलब्धियों की प्रतीक नहीं होते
आदान-प्रदान का युग है, ले-देकर काम चल रहा, यही सीख हो
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शब्द में अभिव्यक्ति हो
मान देकर प्रतिमान की आशा क्यों करें
दान देकर प्रतिदान की आशा क्यों करें
शब्द में अभिव्यक्ति हो पर भाव भी रहे
विश्वास देकर आभार की आशा क्यों करें
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क्रांति
क्रांति उस चिड़िया का नाम है
जिसे नई पीढ़ी ने जन्म दिया।
पुरानी पीढ़ी उसके पैदा होते ही
उसके पंख काट देना चाहती है।
लेकिन नई पीढ़ी उसे उड़ना सिखाती है।
जब वह उड़ना सीख जाती है
तो पुरानी पीढ़ी
उसके लिए,
एक सोने का पिंजरा बनवाती है
और यह कहकर उसे कैद कर लेती है
कि नई पीढ़ी तो उसे मार ही डालती।
यह तो उसकी सुरक्षा सुविधा का प्रबन्ध है।
वर्षों बाद
जब वह उड़ना भूल जाती है
तो पिंजरा खोल दिया जाता है
क्योंकि
अब तक चिड़िया उड़ना भूल गई है
और सोने का मूल्य भी बढ़ गया है
इसलिए उसे बेच दिया जाता हे
नया लोहे का लिया जाता है
जिसमें नई पीढ़ी को
इस अपराध में बन्द कर दिया जाता है
आजीवन
कि उसने हमें खत्म करने,
मारने का षड्यन्त्र रचा था
हत्या करनी चाही थी हमारी।
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किस बात का हम मान करें
कहते हैं
मिट्टी की यह देह
मिट्टी में मिल जायेगी।
मिट्टी चुन-चुन
थाप-थापकर
घट का निर्माण करें।
रंग-रूप में,
चमक-दमक में,
अपनी यूं ही शान करें।
ज़रा-सी धमक,
बिखर कर
फिर मिट्टी के नाम करें।
मिट्टी से बनते हैं,
फिर मिट्टी में मिल जाते हैं।
किस बात का हम मान करें।
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अकेलापन
अच्छा लगता है.
अकेलापन।
समय देता है
कुछ सोचने के लिए
अपने-आपसे बोलने के लिए।
गुनगुनी धूप
सहला जाती है मन।
खिड़कियों से झांकती रोशनी
कुछ कह जाती है।
रात का उनींदापन
और अलसाई-सी सुबह,
कड़वी-मीठी चाय के साथ
दिन-भर के लिए
मधुर-मधुर भाव दे जाती है।
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समझाती है ज़िन्दगी
कदम-दर-कदम यूँ ही आगे बढ़ती है ज़िन्दगी
कौन आगे, कौन पीछे, नहीं देखती है ज़िन्दगी।
बालपन क्या जाने, क्या पीठ पर, क्या हाथ में
अकेले-दुकेले, समय पर आप ही समझाती है ज़िन्दगी।
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कुछ अच्छा लिखने की चाह
कुछ अच्छा लिखने की चाह में
हर बार कलम उठाती हूं
किन्तु आज तक नहीं समझ पाई
शब्द कैसे बदल जाते हैं
किन आकारों में ढल जाते हैं
प्रेम लिखती हूं
हादसे बन जाते हैं।
मानवता लिखती हूँ
मौत दिखती है।
काली स्याही लाल रंग में
बदल जाती है।
.
कलम को शब्द देती हूँ
भाईचारा, देशप्रेम,
साम्प्रदायिक सौहार्द
न जाने कैसे बन्दूकों, गनों
तोपों के चित्र बन जाते हैं।
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कलम को समझाती हूं
चल आज धार्मिक सद्भाव की बात करें
किन्तु वह फिर
अलग-अलग आकार और
सूरतें गढ़ने लगती है,
शब्दों को आकारों में
बदलने लगती है।
.
हार नहीं मानती मैं,
कलम को फिर पकड़ती हूँ।
सच्चाई, नैतिकता,
ईमानदारी के विचार
मन में लाती हूँ।
किन्तु न जाने कहां से
कलम अरबों-खरबों के गणित में
उलझा जाती है।
.
हारकर मैंने कहा
चल भारत-माता के सम्मान में
गीत लिखें।
कलम हँसने लगी,
चिल्लाने लगी,
चीत्कार करने लगी।
कलम की नोक
तीखे नाखून-सी लगी।
कागज़
किसी वस्त्र का-सा
तार-तार होने लगा
मन शर्मसार होने लगा।
मान-सम्मान बुझने लगा।
.
हार गई मैं
किस्सा रोज़ का था।
कहां तक रोती या चीखती
किससे शिकायत करती।
धरती बंजर हो गई।
मैं लिख न सकी।
कलम की स्याही चुक गई।
कलम की नोक मुड़ गई ,
कुछ अच्छा लिखने की चाह मर गई।
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औरत होती है एक किताब
औरत होती है एक किताब।
सबको चाहिए
पुरानी, नई, जैसी भी।
अपनी-अपनी ज़रूरत
अपनी-अपनी पसन्द।
उस एक किताब की
अपने अनुसार
बनवा लेते हैं
कई प्रतियाँ,
नामकरण करते हैं
बड़े सम्मान से।
सबका अपना-अपना अधिकार
उपयोग का
अपना-अपना तरीका
अदला-बदली भी चलती है।
कुछ पृष्ठ कोरे रखे जाते है
इस किताब में
अपनी मनमर्ज़ी का
लिखने के लिए।
और जब चाहे
फाड़ दिये जाते हैं कुछ पृष्ठ।
सब मालिकाना हक़
जताते हैं इस किताब पर,
किन्तु कीमत के नाम पर
सब चुप्पी साध जाते हैं।
सबसे बड़ा आश्चर्य यह
कि पढ़ता कोई नहीं
इस किताब को
दावा सब करते हैं।
उपयोगी-अनुपयोगी की
बहस चलती रहती है
दिन-रात।
वैसे कोई रैसिपी की
किताब तो नहीं होती यह
किन्तु सबसे ज़्यादा
काम यहीं आती है।
अपने-आप में
एक पूरा युग जीती है
यह किताब
हर पन्ने पर
लिखा होता है
युगों का हिसाब।
अद्भुत है यह किताब
अपने-आपको ही पढ़ती है
समझने की कोशिश करती है
पर कहाँ समझ पाती है।
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यादों के उजाले नहीं भाते
यादों के उजाले
नहीं भाते।
घिर गये हैं
आज के अंधेरों में।
गहराती हैं रातें।
बिखरती हैं यादें।
सिहरती हैं सांसें
नहीं सुननी पुरानी बातें।
बिखरते हैं एहसास।
कहता है मन
नहीं चाहिए यादें।
बस आज में ही जी लें।
अच्छा है या बुरा
बस आज ही में जी लें।
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इंसान को न धिक्कारो यारो
आत्माओं का गुणगान करके इंसान को न धिक्कारो यारो
इंसानियत की नीयत और गुणों में पूरा विश्वास करो यारो
यह जीवन है, अच्छा-बुरा, ,खरा-खोटा तो चला रहेगा
अपनों को अपना लो, फिर जीवन सुगम है, समझो यारो।