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कहां है आपदा,
कहां हुई तबाही,
कोई विपदा नहीं कहीं।
कुछ मर गये,
कुछ भूखे रह गये।
किसी को चिकित्सा नहीं मिल पाई।
आग लगी या
भवन ढहा,
कौन-सा पहाड़ टूट पड़ा।
करोड़ों-अरबों में
अब किस-किस को देखेंगे?
घर-घर जाकर
किस-किसको पूछेंगे।
आसमान से तो
कह नहीं कर सकते,
बरसना मत।
सूरज को तो रोक नहीं सकते,
ज़्यादा चमकना मत।
सड़कों पर सागर है,
सागर में उफ़ान,
घरों में तैरती मछलियां देखीं आज,
और नदियों में बहते घर।
तो कहां है विपदा,
कहां है तबाही,
कौन सी आपदा।
बड़े-बड़े शहरों में
छोटी-छोटी बातें
तो होती रहती हैं सैटोरीना।
ज़्यादा मत सोचा कर।
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नहीं समझ पाते स्याह सफ़ेद में अन्तर
गिरगिट की तरह
यहां रंग बदलते हैं लोग।
बस,
बात इतनी सी
कि रंग
कोई और चढ़ा होता है
दिखाई और देता है।
समय पर
हम कहां समझ पाते हैं
स्याह-सफ़ेद में अन्तर।
कब कौन
किस रंग से पुता है
हम देख ही नहीं पाते।
कब कौन
किस रंग में आ जाये
हम जान ही नहीं पाते।
अक्सर काले चश्मे चढ़ाकर
सफ़ेदी ढूंढने निकलते हैं।
रंगों से पुती है दुनिया,
कब किसका रंग उतरे,
और किस रंग का परदा चढ़ जाये
हम कहां जान पाते हैं।
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काजल पोत रहे अंधे
अंधे के हाथ बटेर लगना,
अंधों में काना राजा,
आंख के अंधे नाम नयनसुख,
सुने थे कुछ ऐसे ही मुहावरे।
पर आज ज्ञात हुआ
यहां तो
काजल पोत रहे अंधे।
बड़ी असमंजस की स्थिति बन आई है।
क्यों काजल पोत रहे अंधे।
किसके चेहरे पर हाथ
साफ़ कर रहे ये बंदे।
काजल लगवाने के लिए
उजले मुख लेकर
कौन घूम रहे बंदे।
अंधे तो पहले ही हैं
और कालिमा लेकर
अब कर रहे कौन ये धंधे।
कालिमा लग जाने के बाद
कौन बतलायेगा,
कौन समझायेगा,
कैसे लगी, किसने लगाई।
किसके लगी, कहां से आई।
काजल की है, या कोयले की,
या कर्मोa की,
करेगा कौन निर्णय।
कहीं ऐसा तो नहीं
जो पोत रहे काजल,
सब हैं आंख से चंगे,
और हम ही बन रहे अंधे।
क्योंकि हम देखने से डरने लगे हैं।
समझने से कतराने लगे हैं।
सच बोलने से हटने लगे हैं।
अधिकार की बात करने से बचने लगे हैं।
किसी का साथ देने से कटने लगे हैं।
और
गांधी के तीन बन्दर बनने में लगे हैं ।
न देखो, न सुनो, न बोलो।
‘‘बुरा’’ तो गांधी जी के साथ ही चला गया।
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थक गई हूं इस बनावट से
जीवन में
और भी बहुत रोशनियां हैं
ज़रा बदलकर देखो।
सजावट की
और भी बहुत वस्तुएं हैं
ज़रा नज़र हटाकर देखो।
प्रेम, प्रीत, अश्रु, सजन
विरह, व्यथा, श्रृंगार,
इन सबसे हटकर
ज़रा नज़र बदलकर देखो,
थक गई हूं
इस बनावट से
ज़रा मुझे भी
आम इंसान बनाकर देखो।
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काश ! हम कोई शिला होते
पत्थरों में प्यार तराशते हैं
और जिह्वा को कटार बनाये घूमते हैं।
छैनी जब रूप-आकार तराशती है
तब एक संसार आकार लेता है।
तूलिका जब रंग बिखेरती है
तब इन्द्रधनुष बिखरते हैं।
किन्तु जब हम
अन्तर्मन के भावों को
रूप-आकार, रंगों का संसार
देने लगते हैं,
सम्बन्धों को तराशने लगते हैं
तब न जाने कैसे
छैनी-हथौड़े
तीखी कटार बन जाते हैं,
रंग उड़ जाते हैं
सूख जाते हैं।
काश ! हम भी
वास्तव में ही कोई शिला होते
कोई तराशता हमें,
रूप-रंग-आकार देता
स्नेह उंडेलता
कोई तो कृति ढलती,
कोई तो आकृति सजती।
कौन जाने
फिर रंग भी रंगों में आ जाते
और छैनी-हथौड़ी भी
सम्हल जाते।
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मेरी कागज़ की नाव खो गई
कागज़ की नाव में
जितने सपने थे
सब अपने थे।
छोटे-छोटे थे
पर मन के थे ।
न डूबने की चिन्ता
न सपनों के टूटने की चिन्ता।
तिरती थी,
पलटती थी,
टूट-फूट जाती थी,
भंवर में अटकती थी,
रूक-रूक जाती थी,
एक जाती थी,
एक और आ जाती थी।
पर सपने तो सपने थे
सब अपने थे]
न टूटते थे न फूटते थे,
जीवन की लय
यूं ही बहती जाती थी।
फिर एक दिन
हम बड़े हो गये
सपने भारी-भारी हो गये।
अपने ही नहीं
सबके हो गये।
पता ही नहीं लगा
वह कागज़ की नाव
कहां खो गई।
कभी अनायास यूं ही
याद आ जाती है
तो ढूंढने निकल पड़ते हैं,
किन्तु भारी सपने कहां
पीछा छोड़ते हैं।
सपने सिर पर लादे घूम रहे हैं,
अब नाव नहीं बनती।
मेरी कागज़ की नाव
न जाने कहां खो गई
मिल जाये तो लौटा देना।
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ये चांद है अदाओं का
चांद
यूं ही तो नहीं
चमकता है आसमान में।
उसकी भी अपनी अदाएं हैं।
किसी को तो चांद सी
सूरत दे देता है
और किसी के जीवन में
चांद से दाग
और किसी किसी के लिए तो
कभी चांद निकलता ही नहीं
बस
अमावस्या ही बनी रहती है जीवन भर।
बस एक भ्रम पालकर
जिन्दगी जी लेते हैं
कि चांद है उनकी जिन्दगी में
क्योंकि जब
चांद आसमान में है
तो कुछ तो उनकी
जिन्दगी में भी होगा ही।
और कहीं कहीं तो कभी
चांद डूबता ही नहीं,
बस पूर्णिमा ही बनी रहती है।
इसलिए इस भ्रम में
या इस गणना में मत रहना
कि इतने दिन बाद
चौथ का चांद
आ जायेगा जीवन में,
या अमावस्या या पूर्णिमा,
उसकी मर्ज़ी आये या न आये
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तीर और तुक्का
एक बार आसमां पर तीर जरूर तानिए
लौटकर आयेगा, प्रभाव, उसका जानिए
तीर के साथ तुक्के का ध्यान भी रखें
नहीं तो तरकस खाली होगा, यह मानिए
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गगन
गगन
बादलों के आंचल में
चांद को समेटकर
छुपा-छुपाई खेलता रहा।
और हम
घबराये,
बौखलाये-से
ढूंढ रहे।
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अपना ही साथ हो
उम्र के इस पड़ाव पर
अनजान सुनसान राहों पर
जब नहीं पाती हूं
किसी को अपने आस पास
तब अपनी ही प्रतिकृति तराशती हूं ।
मन का कोना कोना खोलती हूं उसके साथ।
बालपन से अब तक की
कितनी ही यादें और कितनी ही बातें
सब सांझा करती हूं इसके साथ।
लौट आता है मेरा बचपना
वह अल्हड़पन और खुशनुमा यादें
वो बेवजह की खिलखिलाहटें
वो क्लास में सोना
कंचे और गोटियां, सड़क पर बजाई सीटियां
छत की पतंग
आमपापड़ और खट्टे का स्वाद
पुरानी कापियां देकर
चूरन और रेती खाने की उमंग
गुल्लक से चुराए पैसे
फिल्में देखीं कैसे कैसे
टीचर की नकल, उनके नाम
और पता नहीं क्या क्या
अब सब तो बताया नहीं जा सकता।
यूं ही
खुलता है मन का कोना कोना।
बांटती हूं सब अपने ही साथ।
जिन्हें किसी से बांटने के लिए तरसता था मन
अपना ही हाथ पकड़कर आगे बढ़ जाती हूं
नये सिरे से।
यूं ही डरती थी, सहमी थी।
अब जानी हूं
ज़िन्दगी को पहचानी हूं।
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कानून तोड़ना अधिकार हमारा
अधिकारों की बात करें
कर्तव्यो का ज्ञान नहीं,
पढ़े-लिखे अज्ञानी
इनको कौन दे ज्ञान यहां।
कानून तोड़ना अधिकार हमारा।
पकड़े गये अगर
ले-देकर बात करेंगे,
फिर महफिल में बीन बजेगी
रिश्वतखोरी बहुत बढ़ गई,
भ्रष्टाचारी बहुत हो गये,
कैसे अब यह देश चलेगा।
आरोपों की झड़ी लगेगी,
लेने वाला अपराधी है
देने वाला कब होगा ?