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नयनों की एक बूंद
सागर के जल से गहरी होती है
ढूंढोगे तो किन्तु
जलराशि जब अपने तटबन्धों को
तोड़ती है
तब भी विप्लव होता है
और जब भीतर ही भीतर
सिमटती है तब भी।
कहां सीख पाये हैं हम
सीमाओं में रहना।
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प्रेम-प्यार की बात न करना
प्रेम-प्यार की बात न करना,
घृणा के बीज हम बो रहे हैं।
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सम्बन्धों का मान नहीं अब,
दीवारें हम अब चिन रहे हैं।
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काले-गोरे की बात चल रही,
चेहरों को रंगों से पोत रहे हैं ।
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अमीर-गरीब की बात कर रहे,
पैसे से दुनिया को तोल रहे हैं ।अ
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कौन है सच्चा, कौन है झूठा,
बिन जाने हम कोस रहे हैं।
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पढ़ना-लिखना बात पुरानी
सुनी-सुनाई पर चल रहे हैं।
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सर्वधर्म समभाव भूल गये,
भेद-भाव हम ढो रहे हैं।
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अपने-अपने रूप चुन लिए,
किस्से रोज़ नये बुन रहे हैं।
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राजनीति का ज्ञान नहीं है
चर्चा में हम लगे हुए हैं।
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क्या यह दृष्टि-भ्रम है
क्या यह दृष्टि-भ्रम है ?
मुझे नहीं दिखती
गहन जलप्लावन में
सिर पर टोकरी रखे
बच्चे के साथ गहरे पानी में
कोई माँ, डूबती-सी।
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नहीं अनुभव होता मुझे
किसी किशन कन्हैया
नंद बाबा
यशोदा मैया या देवकी का।
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शायद बहुत भावशून्य हूँ मैं,
आप कह सकते हैं।
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मुझे दिखती हैं
अव्यवस्थाएँ
महलों में बनती योजनाएँ
दूरबीन से देखते
डूबता-तिरता आम आदमी
बोतलों में बन्द पानी
विमान से बनाते बांध
आकाश से गिरता भोजन।
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कुछ दिन में आप ही
निकल जायेगा जल
सम्हल जायेगा आम आदमी
अगले वर्ष की प्रतीक्षा में।
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लेकिन बस इतना ध्यान रहे
विभीषिका नाम, स्थान,
समय और काल नहीं देखती।
झोंपड़िया टूटती हैं
तो महल भी बिखर जाते हैं।
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कामधेनु कुर्सी बनी
समुद्र मंथन से मिली सुरभि, मनोकामनाएं पूरी थी करती,
राजाओं, ऋषियों की स्पर्धा बनी, मान दिलाया थी करती,
गायों को अब कौन पूछता, अब कुर्सी की बात करो यारो,
कामधेनु कुर्सी बनी, इसके चैपायों की पूजा दुनिया करती।
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मन बहक-बहक जाये
इन फूलों को देखकर
अकारण ही मन मुस्काए।
न जाने
किस की याद आये।
तब, यहां
गुनगुनाती थी चिड़ियां।
तितलियां पास आकर पूछती थीं,
क्यों मन ही मन शरमाये।
उलझी-उलझी सी डालियां,
मानों गलबहियां डाले,
फूलों की ओट में छुप जायें।
हवाओं का रूख भी
अजीब हुआ करता था,
फूलों संग लाड़ करती
शरारती-सी
महक-महक जाये।
खिली-खिली-सी धूप,
बादलों संग करती अठखेलियां,
न जाने क्या कह जाये।
झरते फूलों को
अंजुरि में समेट
मन बहक-बहक जाये।
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मन उदास-उदास क्यों है
हवाएं बहक रहीं
मौसम सुहाना है
सावन में पंछी कूक रहे
वृक्षों पर
डाली-डाली
पल्लव झूम रहे
कहीं रिमझिम-रिमझिम
तो कहीं फुहारें
मन सरस-सरस
कोयल कूके
पिया-पिया
मैं निहार रही सूनी राहें
कब लौटोगे पिया
और तुम पूछ रहे
मन उदास-उदास क्यों है ?
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हम खुश हैं जग खुश है
इस भीड़ भरे संसार में मुश्किल से मिलती है तन्हाई सखा
आ, ज़रा दो बातें कर लें,कल क्या हो,जाने कौन सखा
ये उजली धूप,समां सुहाना,हवा बासंती,हरा भरा उपवन
हम खुश हैं, जग खुश है, जीवन में और क्या चाहिए सखा
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शिकायतों का पुलिंदा
शिकायतों का
पुलिंदा है मेरे पास।
है तो सबके पास
बस सच बोलने का
मेरा ही ठेका है।
काश!
कि शिकायतें
आपसे होतीं
किसी और से होतीं,
इससे-उससे होतीं,
तब मैं कितनी प्रसन्न होती,
बिखेर देती
सारे जहाँ में।
इसकी, उसकी
बुराईयाँ कर-कर मन भरती।
किन्तु
क्या करुँ
सारी शिकायतें
अपने-आपसे ही हैं।
जहाँ बोलना चाहिए
वहाँ चुप्पी साध लेती हूँ
जहाँ मौन रहना चाहिए
वहाँ बक-झक कर जाती हूँ।
हँसते-हँसते
रोने लग जाती हूँ,
रोते-रोते हँस लेती हूँ।
न खड़े होने का सलीका
न बैठने का
न बात करने का,
बहक-बहक जाती हूँँ
मन कहीं टिकता नहीं
बस
उलझी-उलझी रह जाती हूँ।
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जीवन में पतंग-सा भाव ला
जीवन में पतंग-सा भाव ला।
आकाश छूने की कोशिश कर।
पांव धरा पर रख।
सूरज को बांध
पतंग की डोरी में।
उंची उड़ान भर।
रंगों-रंगीनियों से खेल।
मन छोटा न कर।
कटने-टूटने से न डर।
एक दिन
टूटना तो सभी को है।
बस हिम्मत रख।
आकाश छू ले एक बार।
फिर टूटने का,
लौटकर धरा पर
उतरने का दुख नहीं सालता।
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हर चीज़ मर गई अगर एहसास मर गया
मेरी आंखों के सामने
एक चिड़िया तार में फंसी,
उलझी-उलझी,
चीं-चीं करती
धीरे-धीरे मरती रही,
और हम दूर खड़े बेबस
शायद तमाशबीन से
देख रहे थे उसे
वैसे ही
धीरे-धीरे मरते।
तभी
चिड़ियों का एक दल
कहीं दूर से
उड़ता आया,
और उनकी चिड़चिडाहट से
गगन गूंज उठा,
रोंगटे खड़े हो गये हमारे,
और दिल दहल गया।
उनके प्रयास विफ़ल थे
किन्तु उनका दर्द
धरा और गगन को भेदकर
चीत्कार कर उठा था।
कुछ देर तक हम
देखते रहे, देखते रहे,
चिड़िया मरती रही,
चिड़ियां रूदन करती रहीं,
इतने में ही
कहीं से एक बाज आया,
चिड़ियों के दल को भेदता,
तार में फ़ंसी चिड़िया के पैर खींचे
और ले उड़ा,
कुछ देर चर्चा करते रहे हम।
फिर हम भीतर आकर
टी. वी. पर
दंगों के समाचारों का
आनन्द लेने लगे।
क्रूरता की कोई सीमा नहीं ।
हर चीज़ मर गई
अगर एहसास मर गया।
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मन गया बहक बहक
चिड़िया की कुहुक-कुहुक, फूलों की महक-महक
तुम बोले मधुर मधुर, मन गया बहक बहक
सरगम की तान उठी, साज़ बजे, राग बने,
सतरंगी आभा छाई, ताल बजे ठुमक ठुमक