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छोटी-सी छतरी तानी मैंने।
दाना-चुग्गा लाउंगा,
तुमको मैं खिलाउंगा।
मां कहती है,
बारिश में भीगो न,
ठंडी लग जायेगी।
मेरी मां तो
मुझको गुस्सा करती,
कहां गई तुम्हारी अम्मां।
ऐसे कैसे बैठे हो,
अपने घर जाओ,
कम्बल मैं दे जाउंगा।
कल जब धूप खिलेगा
तब आना
साथ-साथ खेलेंगे,
मेरे घर चलना,
मां से मैं मिलवाउंगा।
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नियति
जन्म होता है
मरने के लिए।
लड़कियां भी
जन्म लेती हैं
मरने के लिए।
अर्थात्
जन्म लेकर
मरना है
हर लड़की को।
फिर, जब
मरना तय है
तो क्या फ़र्क पड़ता है
कि वह
किस तरह मरे।
कल की मरती
आज मरे।
कल का क्लेश
आज कटे।
जलकर मरे
या डूबकर मरे।
या पैदा होने से
पहले ही मरे।
जब जन्म होता ही
मरने के लिए है
तो जल्दी जल्दी मरे।
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दीवारें एक नाम है पूरे जीवन का
दीवारें
एक नाम है
पूरे जीवन का ।
हमारे साथ
जीती हैं पूरा जीवन।
सुख-दुख, अपना-पराया
हंसी-खुशी या आंसू,
सब सहेजती रहती हैं
ये दीवारें।
सब सुनती हैं,
देखती हैं, सहती हैं,
पर कहती नहीं किसी से।
कुछ अर्थहीन रेखाएं
अंगुलियों से उकेरती हूं
इन दीवारों पर।
पर दीवारें
समझती हैं मेरे भाव,
मिट्टी दरकने लगती है।
कभी गीली तो कभी सूखी।
दरकती मिट्टी के साथ
कुछ आकृतियां
रूप लेने लगती हैं।
समझाती हैं मुझे,
सहलाती हैं मेरा सर,
बहते आंसुओं को सोख लेती हैं।
कभी कुछ निशान रह जाते हैं,
लोग समझते हैं,
कोई कलाकृति है मेरी।
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मन हर्षित होता है
दूब पर चमकती ओस की बूंदें, मन हर्षित कर जाती हैं।
सिर झुकाई घास, देखो सदा पैरों तले रौंद दी जाती है।
कहते हैं डूबते को तृण का सहारा ही बहुत होता है,
पूजा-अर्चना में दूर्वा से ही आचमन विधि की जाती है।
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गीत मधुर हम गायेंगे
गीत मधुर हम गायेंगे
गई थी मैं दाना लाने
क्यों बैठी है मुख को ताने।
दो चींटी, दो पतंगे,
तितली तीन लाई हूं।
अच्छे से खाकर
फिर तुझको उड़ना
सिखलाउंगी।
पानी पीकर
फिर सो जाना,
इधर-उधर नहीं है जाना।
आंधी-बारिश आती है,
सब उजाड़ ले जाती है।
नीड़ से बाहर नहीं है आना।
मैं अम्मां के घर लेकर जाउंगी।
देती है वो चावल-रोटी
कभी-कभी देर तक सोती।
कई दिन से देखा न उसको,
द्वार उसका खटखटाउंगी,
हाल-चाल पूछकर उसका
जल्दी ही लौटकर आउंगी।
फिर मिलकर खिचड़ी खायेंगे,
गीत मधुर हम गायेंगे।
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सपनों में जीने लगते हैं
लक्ष्य जितना सरल दिखता है
राहें
उतनी ही कठिन होने लगती हैं।
हमें आदत-सी हो जाती है
सब कुछ को
बस यूं ही ले लेने की
अभ्यास और प्रयास
की आदत छोड़ बैठते हैं
सपनों में जीने लगते हैं
लगता है
बस
हाथ बढ़ाएंगे
और चांद पकड़ लेंगे
अपने में खोये
ग्रहण और अमावस को
समझ नहीं पाते हम
सपनों में जीते
चांद को ही दोष देते हैं
सही राह नहीं पकड़ पाते हम।
-
लक्ष्य कठिन हो तो
राहें
आप ही सरल हो जाती हैं
क्योंकि तब हम समझ पाते हैं
चांद की दूरियां
और ग्रहण-अमावस का भाव
जीवन में।
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जो भी हुआ अच्छा हुआ
अच्छा हुआ
इधर कानों ने सुनना
कम कर दिया है।
अच्छा हुआ
आंखों पर चश्मा
चढ़ा हुआ है।
अच्छा हुआ
अब दूरियों की पहचान
होने लगी है।
अच्छा हुआ
नज़दीकियों की चाहत
घटने लगी है।
अच्छा हुआ
अब घर से निकलता
बन्द हुआ है।
अच्छा हुआ
अब कामनाओं पर
आहट होने लगी है।
अच्छा हुआ
सवालों के रूख
बदलने लगे हैं।
अच्छा हुआ
उत्तर अब बने-बनाये
मिलने लगे हैं।
अच्छा हुआ
ज़िन्दगी अब
ठहरने-सी लगी है।
सोचती हूं
जो भी हुआ।
अच्छा हुआ,
अच्छा ही हुआ।
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झूठे मुखौटे मत चढ़ा
झूठे मुखौटे मत चढ़ा।
असली चेहरा दुनिया को दिखा।
मन के आक्रोश पर आवरण मत रख।
जो मन में है
उसे निडर भाव से प्रकट कर।
यहां डर से काम नहीं चलता।
वैसे भी हंसी चेहरे,
और चेहरे पर हंसी,
लोग ज़्यादा नहीं सह पाते।
इससे पहले
कि कोई उतारे तुम्हारा मुखौटा,
अपनी वास्तविकता में जीओ,
अपनी अच्छाईयों-बुराईयों को
समभाव से समझकर
जीवन का रस पीओे।
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असमंजस में रहते हैं हम
कितनी बार,
हम समझ ही नहीं पाते,
कि परम्पराओं में जी रहे हैं,
या रूढ़ियों में।
.
दादी की परम्पराएं,
मां के लिए रूढ़ियां थीं,
और मां की परम्पराएं
मुझे रूढ़ियां लगती हैं।
.
हमारी पिछली पीढ़ियां
विरासत में हमें दे जाती हैं,
न जाने कितने अमूल्य विचार,
परम्पराएं, संस्कृति और व्यवहार,
कुछ पुराने यादगार पल।
इस धरोहर को
कभी हम सम्हाल पाते हैं,
और कभी नहीं।
कभी सार्थक लगती हैं,
तो कभी अर्थहीन।
गठरियां बांधकर
रख देते हैं
किसी बन्द कमरे में,
कभी ज़रूरत पड़ी तो देखेंगे,
और भूल जाते हैं।
.
ऐसे ही पीढ़ी-दर-पीढ़ी
सौंपी जाती है विरासत,
किसी की समझ आती है
किसी की नहीं।
किन्तु यह परम्परा
कभी टूटती नहीं,
चाहे गठरियों
या बन्द कमरों में ही रहें,
इतना ही बहुत है।
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किसे अपना समझें किसे पराया
किसे अपना समझें किसे पराया
मन के द्वार पर पहरे लगाकर बैठे हैं आज।
कोई भाव पढ़ न ले, गांठ बांध कर बैठे हैं आज।
किसे अपना समझें, किसे पराया, समझ नहीं,
अपनों को ही पराया समझ कर बैठे हैं आज।
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चेहरा गुलाल हुआ
यादों में उनकी चेहरा गुलाल हुआ
मन की बात कही नहीं, मलाल हुआ
राग बेसुरे हो गये, साज़ बजे नहीं
प्यार करना ही जी का जंजाल हुआ