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आज मेरा मन गद्गद् है। मेरा मन कभी भी इतनी देशीय, देश-भक्त नहीं हुआ जितना कल रात हुआ।
रात के 11 बजे यह हादसा हुआ।
अब कोई मुझसे पूछे कि इतनी रात मैं फ़ेसबुक पर क्या कर रही थी।
वही कर रही थी जो आप सब करते हैं। किन्तु आजकल किसी भी समय फ़ेसबुक पर जाईये आॅन लाईन काव्य पाठ सुनने को मिल जायेगा और जब मिलेगा तो सुनना भी चाहिए, इस आशा में कि शायद कभी मुझे भी इस मंच से काव्य पाठ का अवसर मिल जाये, इसी आशा में सुनना पड़ता है।
अब सीधे-सीधे मुद्दे की बात करती हूं।
रात्रि 11 बजे एक महान कवियत्री आॅन लाइन काव्य पाठ के माध्यम से चीन को सीधे-सीधे चेतावनी दे रही थी, ललकार रही थी, पुकार रही थी, चिल्ला-चिल्लाकर कह रही थी, अरे बाहर निकल, तुझे तो मैं देख लूंगी। उनकी हुंकार से बड़े-बड़े डर जाते, चीन की तो बात ही क्या। तू बाहर निकल कर तो दिखा, इधर नज़र उठाकर तो दिखा। इस देश की अनेक वीरांगनाओं को भी उन्होंने निमन्त्रण दिया। मुझे पहली बार ज्ञात हुआ कि मेरा देश इतनी वीरांगनाओं से प्लावित और ग्रसित है। मेरा तो ज्ञान ही अल्प मात्रा में है, मुझे तो बस एक झांसी की रानी का ही नाम स्मरण था, किन्तु उनका ज्ञान अद्भुत था। वे तो पता नहीं कितनी ही वीरांगनाओं को बुलाकर मंच पर ले आईं। यहां तक कि पद्मिनी जिसने जौहर किया था, उसे भी तलवार के साथ बुला लिया और पांच सौ और महिलाओं को भी आग से बाहर निकाल कर अपने साथ सेना बना ली, आओ, चीन वालो, तुम्हें तो हम ही देख लेंगे। अब रात्रि 11 बजे का समय था, मुझे डर लगने लगा , नींद के झोंके भी थे। किन्तु बीच-बीच में मुझे द्रौपदी, कुंती, राधा, मीरा, उर्वशी तक के भी नाम सुनाई दिये। मैंने जल्दी से पी सी बन्द किया, एक चादर ली और मुंह ढककर सोने का प्रयास करने लगी, कि कवियत्री महोदया ने आॅन-लाईन में मेरा नाम पढ़ लिया होगा, कहीं मुझे न पुकार ले। इस महोदया को तीन लोग सुन रहे थे, जिनमें एक मैं थी।
किन्तु जाने से पहले एक और बात बताना चाहूंगी कि मैंने सुना है कि इधर सीमाओं पर कवियत्रियों की नियुक्ति की जाने वाली है, कवि सम्मेलन आयोजित किये जाने की बात चल रही है, वे सीमाओं पर अपनी ओजपूर्ण, दहाड़पूर्ण, ललकारपूर्ण, हुंकारपूर्ण कविताएं सुनाएंगी, वे भी गा-गाकर, चीनी सेना तो यूं ही भाग लेगी।
सोचती हूं कुछ दिन के लिए कविताएं लिखना बन्द कर दूं।
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बस प्यार किया जाता है
मन है कि
आकाश हुआ जाता है
विश्वास हुआ जाता है
तुम्हारे साथ
एक एहसास हुआ जाता है
घनघारे घटाओं में
यूं ही निराकार जिया जाता है
क्षणिक है यह रूप
भाव, पिघलेंगे
हवा बहेगी
सूरत, मिट जायेगी
तो क्या
मन में तो अंकित है इक रूप
बस,
उससे ही जिया जाता है
यूं ही, रहा जाता है
बस प्यार, किया जाता है
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गौरैया से मैंने पूछा कहां रही तू इतने दिन
गौरैया से मैंने पूछा कहां रही तू इतने दिन
बोली मायके से भाई आया था कितने दिन
क्या-क्या लाया, क्या दे गया और क्या बात हुई
मां की बहुत याद आई रो पड़ी, गौरैया उस दिन
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कभी गोल हुआ करता था पैसा
कभी गोल हुआ करता था पैसा
इसलिए कहा जाता था
टिकता नहीं किसी के पास।
पता नहीं
कब लुढ़क जाये,
और हाथ ही न आये।
फिर खन-खन भी करता था पैसा।
भरी और भारी रहती थीं
जेबें और पोटलियां।
बचपन में हम
पैसों का ढेर देखा करते थे,
और अलग-अलग पैसों की
ढेरियां बनाया करते थे।
घर से एक पैसा मिलता था
स्कूल जाते समय।
जिस दिन पांच या दस पैसे मिलते थे,
हमारे अंदाज़ शाही हुआ करते थे।
लेकिन अब कहां रह गये वे दिन,
जब पैसों से आदमी
शाह हुआ करता था।
अब तो कागज़ से सरक कर
एक कार्ड में पसर कर
रह गया है पैसा।
वह आनन्द कहां
जो रेज़गारी गिनने में आता था।
तुम क्या समझोगे बाबू!!!
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अपने आकर्षण से बाहर निकल
अपने आकर्षण से बाहर निकल।
देख ज़रा
प्रतिच्छाया धुंधलाने लगी है।
रंगों से आभा जाने लगी है।
नृत्य की गति सहमी हुई है
घुंघरूओं की थाप बहरी हुई है।
गति विश्रृंखलित हुई है।
मुद्रा तेरी थकी हुई है।
वन-कानन में खड़ी हुई है।
पीछे मुड़कर देख।
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झूठी प्रशंसाओं से निकल।
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अब तो चले आओ प्रियतम कब से आस लगाये बैठे हैं।
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खून का असली रंग
हमारे यहाँ
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किसी का अपना
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और
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-
लेकिन
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खून का असली रंग
तभी पहचान में आता है।
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यहां
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तुम्हारे पक्ष में।
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कुछ इसी तरह की होती है।
उसकी फुंकार भी
आकर्षित करती है तुम्हें
किसी मौके पर।
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तो कभी देवता समझ कर
उसकी पूजा करते हो।
यह जानते हुए भी
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और तुम भी
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अपनी पिटारी में।
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जग में न मिला अपनापन
सुख के दिन बीते, दुख के बीहड़ में नहीं दिखता अपनापन।
अपने सब दूर हुए, दृग तरसें, ढूंढे जग में न मिला अपनापन।
द्वार बन्द मिले, पहचान खो गई, दूर तलक न मिला कोई,
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उम्र के इस पड़ाव पर
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मन का कोना कोना खोलती हूं उसके साथ।
बालपन से अब तक की
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सब सांझा करती हूं इसके साथ।
लौट आता है मेरा बचपना
वह अल्हड़पन और खुशनुमा यादें
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कंचे और गोटियां, सड़क पर बजाई सीटियां
छत की पतंग
आमपापड़ और खट्टे का स्वाद
पुरानी कापियां देकर
चूरन और रेती खाने की उमंग
गुल्लक से चुराए पैसे
फिल्में देखीं कैसे कैसे
टीचर की नकल, उनके नाम
और पता नहीं क्या क्या
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यूं ही
खुलता है मन का कोना कोना।
बांटती हूं सब अपने ही साथ।
जिन्हें किसी से बांटने के लिए तरसता था मन
अपना ही हाथ पकड़कर आगे बढ़ जाती हूं
नये सिरे से।
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अब जानी हूं
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पोखर भैया ताल-तलैया
ताल-तलैया, पोखर भैया,
मैं क्या जानू्ं
क्या होते सरोवर मैया।
बस नाम सुना है
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गड्ढे देखे, नाले देखे,
सड़कों पर बहते परनाले देखे,
छप-छपाछप गाड़ी देखी।
सड़कों पर आबादी देखी।
-
जब-जब झड़ी लगे,
डाली-डाली बहके।
कुहुक-कुहुक बोले चिरैया ।
रंग निखरें मन महके।
मस्त समां है,
पर लोगन को लगता डर है भैया।
सड़कों पर होगा
पोखर भैया, ताल-तलैया
हमने बोला मैया,
अब तो हम भी देखेंगे ,
कैसे होते हैं ताल-तलैया,
और सरोवर, पोखर भैया ।