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इस सूनेपन में
मन बहक गया।
धुंधलेपन में
मन भटक गया।
छोटी-सी रोशनी
मन चहक गया।
गहन, बीहड़ वन में
मन अटक गया।
आकर्षित करती हैं,
लहकी-लहकी-सी डालियां
बुला रहीं,
चल आ झूम ले।
दुनियादारी भूल ले।
कल किसने देखा है
आजा,
आज जी भर घूम ले।
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मन गया बहक बहक
चिड़िया की कुहुक-कुहुक, फूलों की महक-महक
तुम बोले मधुर मधुर, मन गया बहक बहक
सरगम की तान उठी, साज़ बजे, राग बने,
सतरंगी आभा छाई, ताल बजे ठुमक ठुमक
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मन तो बहकेगा ही
कभी बादलों के बीच से झांकता है चांद।
न जाने किस आस में
तारे उसके आगे-पीछे घूम रहे,
तब रूप बदलने लगा ये चांद।
कुछ रंगीनियां बरसती हैं गगन से]
धरा का मन शोख हो उठा ।
तिरती पल्लवों पर लाज की बूंदे
झुकते हैं और धरा को चूमते हैं।
धरा शर्माई-सी,
आनन्द में
पक्षियों के कलरव से गूंजता है गगन।
अब मन तो बहकेगा ही
अब आप ही बताईये
क्या करें।
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जीवन की डोर पकड़
पुष्प-पल्लवविहीन वृक्षों का
अपना ही
एक सौन्दर्य होता है।
कुछ बिखरी
कुछ उलझी-सुलझी
किसी छत्रछाया-सी
बिना झुके,
मानों गगन को थामे
क्षितिज से रंगीनियाँ
सहेजकर छानतीं,
भोर की मुस्कान बाँटतीं
मानों कह रही
राही बढ़े चल
कुछ पल विश्राम कर
न डर, रह निडर
जीवन की डोर पकड़
राहों पर बढ़ता चल।
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आपको चाहिए क्या पारिजात वृक्ष
कृष्ण के स्वर्ग पहुंचने से पूर्व
इन्द्र आये थे मेरे पास
इस आग्रह के साथ
कि स्वीकार कर लूं मैं
पारिजात वृक्ष, पुष्पित –पल्लवित
जो मेरी सब कामनाएं पूर्ण करेगा।
स्वर्ग के लिए प्रस्थान करते समय
कृष्ण ने भी पूछा था मुझसे
किन्तु दोनों का ही
आग्रह अस्वीकार कर दिया था मैंने।
लौटा दिया था ससम्मान।
बात बड़ी नहीं, छोटी-सी है।
पारिजात आ जाएगा
तब जीवन रस ही चुक जायेगा।
सब भाव मिट जायेंगे,
शेष जीवन व्यर्थ हो जायेगा।
जब चाहत न होगी, आहत न होगी
न टूटेगा दिल, न कोई दिलासा देगा
न श्रम का स्वेद होगा
न मोतियों सी बूंदे दमकेंगी भाल पर
न सरस-विरस होगा
न लेन-देन की आशाएं-निराशाएं
न कोई उमंग-उल्लास
न कभी घटाएं तो न कभी बरसात
रूठना-मनाना, लेना-दिलाना
जब कभी तरसता है मन
तब आशाओं से सरस होता है मन
और जब पूरी होने लगती हैं आशाएं-आकांक्षाएं
तब
पारिजात पुष्पों के रस से भी अधिक
सरस-सरस होता है मन।
मगन-मगन होता है मन।
बस
बात बड़ी नहीं, छोटी-सी है।
चाहत बड़ी नहीं, छोटी-सी है।
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मेरा भारत महान
ऐसे चित्र देखकर
मन द्रवित, भावुक होता है,
या क्रोधित,
अपनी ही समझ नहीं आता।
.
कुछ कर नहीं सकते,
या करना नहीं चाहते,
किंतु बनावट की कहानियां,
इस तरह की बानियां,
गले नहीं उतरतीं।
मेरा भारत महान है।
महान ही रहेगा।
पर रोटी, कपड़ा, मकान
की बात कौन करेगा?
सोचती हूं
बच्चे के हाथ में
किसने दी
स्लेट और चाॅक,
और कौन सिखा रहा
इसे लिखना
मेरा भारत महान?
स्लेट की जगह दो रोटी दे देते,
और देते पिता को कोई काम।
बच्चे के तन पर कपड़े होते,
तब शायद मुझे लगता,
मेरा भारत और भी ज़्यादा महान।
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तब विचार अच्छे बनते हैं
बीमारी एक बड़ी है आई
साफ़ सफ़ाई रखना भाई
कूड़ा-करकट न फै़लाना
सुंदर-सुंदर पौधे लाना
बगिया अपनी खूब खिलाना
हाथों को साफ़ है रखना
बार-बार है धोना
मुंह, नाक, आंख न छूना
घर में रहना सुन लो ताई
मुंह को रखना ढककर तुम
हाथों की दूरी है रखनी
दूर से सबसे बात है करनी
प्लास्टिक का उपयोग न करना
घर में बैठकर रोज़ है पढ़ना
जब साफ़-सफ़ाई रखते हैं
तब विचार अच्छे बनते हैं
स्वच्छ अभियान बढ़ायेंगें
देश का नाम चमकाएंगें।
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काश! यह दुनिया कोई सपना होती
काश!
यह दुनिया कोई सपना होती,
न तेरी होती न मेरी होती।
न किस्से होते
न कोई कहानी होती।
न झगड़ा, न लफ़ड़ा।
न मेरा न तेरा,
ये दुनिया कितनी अच्छी होती।
न जात-पात,
न धर्म-कर्म, न भेद-भाव।
आकाश भी अपना,
जमीन भी अपनी होती,
बहक-बहक कर,
चहक-चहक कर,
दिन-भर मीठे गीत सुनाते।
रात-रात भर
तारों संग
टिम-टिम-टिम-टिम घूमा करते,
सबका अपना चंदा होता,
चांदनी से न कोई शिकायत होती।
सब कुछ अपना-अपना लगता।
काश!
यह दुनिया कोई सपना होती,
न तेरी होती न मेरी होती।
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मुझको विश्व-सुन्दरी बनना है
बड़ी देर से निहार रही हूं
इस चित्र को]
और सोच रही हूं
क्या ये सास-बहू हैं
टैग ढूंढ रही हूं
कहां लिखा है
कि ये सास-बहू हैं।
क्यों सबको
सास-बहू ही दिखाई दे रही हैं।
मां-बेटी क्यों नहीं हो सकती
या दादी-पोती।
नाराज़ दादी अपनी पोती से
करती है इसरार
मैं भी चलूंगी साथ तेरे
मुझको भी ऐसा पहनावा ला दे
बहुत कर लिया चैका-बर्तन
मुझको भी माॅडल बनना है।
बूढ़ी हुई तो क्या
पढ़ा था मैंने अखबारों में
हर उमर में अब फैशन चलता है]
ले ले मुझसे चाबी-चैका]
मुझको
विश्व-सुन्दरी का फ़ारम भरना है।
चलना है तो चल साथ मेरे
तुझको भी सिखला दूंगी
कैसे करते कैट-वाक,
कैसे साड़ी में भी सब फबता है
दिखलाती हूं तुझको,
सिखलाती हूं तुझको
इन बालों का कैसे जूड़ा बनता है।
चल साथ मेरे
मुझको विश्व-सुन्दरी बनना है।
दे देना दो लाईक
और देना मुझको वोट
प्रथम आने का जुगाड़ करना है,
अब तो मुझको ही विश्व-सुन्दरी बनना है।
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डर ज़िन्दगी से नहीं लगता
डर ज़िन्दगी से नहीं लगता
ज़िन्दगी जीने के
तरीके से लगता है।
एहसास मिटने लगे हैं
रिश्ते बिखरने लगे हैं
कौन अपना,
कौन पराया,
समझ से बाहर होने लगे हैं।
सड़कों पर खून बहता है
हाथ फिर भी साफ़ दिखने लगे हैं।
कहने को हम हाथ जोड़ते हैं,
पर कहां खुलते हैं,
कहां बांटते हैं,
कहां हाथ साफ़ करते हैं,
अनजाने से रहने लगे हैं।
क्या खोया , क्या पाया
इसी असमंजस में रहने लगे हैं।
पत्थरों को चिनने के लिए
अरबों-खरबों लुटाने के लिए
तैयार बैठे हैं,
पर भीतर जाने से कतराने लगे हैं।
पिछले रास्ते से प्रवेश कर,
ईश्वर में आस्था जताने लगे हैं।
प्रसाद की भी
कीमत लगती है आजकल
हम तो, यूं ही
आपका स्वाद
कड़वा करने में लगे हैं।
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अपने भीतर झांक
नदी-तट पर बैठ
करें हम प्रलाप
हो रहा दूषित जल
क्या कर रही सरकार।
भूल गये हम
जब हमने
पिकनिक यहां मनाई थी
कुछ पन्नियां, कुछ बोतलें
यहीं जल में बहाईं थीं
कचरा-वचरा, बचा-खुचा
छोड़ वहीं पर
मस्ती में
हम घर लौटे थे।
साफ़-सफ़ाई पर
किश्तीवाले को
हमने खूब सुनाई थी।
फिर अगले दिन
नदियों की दुर्दशा पर
एक अच्छी कविता-कहानी
बनाई थी।