Share Me
इन राहों पर कदम रखना सम्भल कर, फ़िसलन है बहुत
मन को कौन समझाये इधर-उधर तांक-झांक करे है बहुत
इस श्वेताभ नि:स्तब्धता के भीतर जीवन की चंचलता है
छूकर देखना, है तो शीतल, किन्तु जलन देता है बहुत
Share Me
Write a comment
More Articles
तितली बोली
तितली उड़ती चुप-चुप, भंवरा करता भुन-भुन
भंवरे से बोली तितली, ज़रा मेरी बात तो सुन
तू काला, मैं सुंदर, रंग-बिरंगी, सबके मन भाती,
फूल-फूल मैं उड़ती फिरती, तू न सपने बुन।
Share Me
ऋद्धि सिद्धि बुध्दि के नायक
वक्रतुण्ड , एकदन्त, चतुर्भुज, फिर भी रूप तुम्हारा मोहक है
शांत चित्त, स्थिर पद्मासन में बैठै प्रिय भोज तुम्हारा मोदक है
ऋद्धि सिद्धि बुध्दि के नायक, क्षुद्र मूषक को सम्मान दिया
शिव गौरी के सुत, मां के वचन हेतु अपना मस्तक बलिदान किया
शांत चित्त, स्थिर पद्मासन में बैठै जग का नित कल्याण किया
Share Me
हिन्दी के प्रति
शिक्षा
अब ज्ञान के लिये नहीं
लाभ के लिए
अर्जित की जाती है,
और हिन्दी में
न तो ज्ञान दिखाई देता है
और न ही लाभ।
बस बोलचाल की
भाषा बनकर रह गई है,
कहीं अंग्रेज़ी हिन्दी में
और कहीं हिन्दी
अंग्रेज़ी में ढल गई है।
कुछ पुरस्कारों, दिवसों,
कार्यक्रमों की मोहताज
बन कर रह गई है।
बात तो बहुत करते हैं हम
हिन्दी चाहिए, हिन्दी चाहिए
किन्तु
कभी आन्दोलन नहीं करते
दसवीं के बाद
क्यों नहीं
अनिवार्य पढ़ाई जाती है हिन्दी।
प्रदूषित भाषा को
चुपचाप पचा जाते हैं हम।
सरलता के नाम पर
कुछ भी डकार जाते हैं हम।
गूगल अनुवादक लगाकर
हिन्दी लेखक होने का
गर्व पालते हैं हम।
प्रचार करते हैं
वैज्ञानिक भाषा होने का,
किन्तु लेखन और उच्चारण के
बीच के सम्बन्ध को
तोड़ जाते हैं हम।
कंधों पर उठाये घूम रहे हैं
अवधूत की तरह।
दफ़ना देते हैं
अपराधी की तरह।
और बेताल की तरह,
हर बार
वृक्ष पर लटक जाते हैं
कुछ प्रश्न अनुत्तरित।
हर वर्ष, इसी दिन
चादर बिछाकर
जितनी उगाही हो सके
कर लेते हैं
फिर वृक्ष पर टंग जाता है बेताल
अगली उगाही की प्रतीक्षा में।
Share Me
जब एक तिनका फंसता है
दांत में
जब एक तिनका फंस जाता है
हम लगे रहते हैं
जिह्वा से, सूई से,
एक और तिनके से
उसे निकालने में।
किन्तु , इधर
कुछ ऐसा फंसने लगा है गले में
जिसे, आज हम
देख तो नहीं पा रहे हैं,
जो धीरे-धीरे, अदृश्य,
एक अभेद्य दीवार बनकर
घेर रहा है हमें चारों आेर से।
और हम नादान
उसे दांत का–सा तिनका समझकर
कुछ बड़े तिनकों को जोड़-जोड़कर
आनन्दित हो रहे हैं।
किन्तु बस
इतना ही समझना बाकी रह गया है
कि जो कृत्य हम कर रहे हैं
न तो तिनके से काम चलने वाला है
न सूई से और न ही जिह्वा से।
सीधे झाड़ू ही फ़िरेगा
हमारे जीवन के रंगों पर।
Share Me
सोने की हैं ये कुर्सियां
सरकार अपनी आ गई है चल अब तोड़ाे जी ये कुर्सियां
काम-धाम छोड़-छाड़कर अब सोने की हैं जी ये कुर्सियां
पांच साल का टिकट कटा है हमरे इस आसन का
कई पीढ़ियों का बजट बनाकर देंगी देखो जी ये कुर्सियां
Share Me
कहते हैं हाथ की है मैल रूपया
जब से आया बजट है भैया, अपनी हो गई ता-ता थैया
जब से सुना बजट है वैरागी होने को मन करता है भैया
मेरा पैसा मुझसे छीनें, ये कैसी सरकार है भैया
देखो-देखो टैक्स बरसते, छाता कहां से लाउं मैया
कहते हैं हाथ की है मैल रूपया, थोड़ी मुझको देना भैया
छल है, मोह-माया है, चाह नहीं, कहने की ही बातें भैया
टैक्स भरो, टैक्स भरो, सुनते-सुनते नींद हमारी टूट गई
मुट्ठी से रिसता है धन, गुल्लक मेरी टूट गई
जब से सुना बजट है भैया, मोह-माया सब छूट गई
सिक्के सारे खन-खन गिरते किसने लूटे पता नहीं
मेरी पूंजी किसने लूटी, कैसे लूटी मुझको यह तो पता नहीं
किसकी जेबें भर गईं, किसकी कट गईं, कोई न जानें भैया
इससे बेहतर योग चला लें, चल मुफ्त की रोटी खाएं भैया
Share Me
हम धीरे-धीरे मरने लगते हैं We just Start Dying Slowly
जब हम अपने मन से
जीना छोड़ देते हैं
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
-
जब हम
अपने मन की सुनना
बन्द कर देते हैं
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
-
जब हम अपने नासूर
कुरेद कर
दूसरों के जख़्म भरने लगते हैं
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
-
जब हम अपने आंसुओं को
आंखों में सोखकर
दूसरों की मुस्कुराहट पर
खिलखिलाकर हँसते हैं
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
-
जब हम अपने सपनों को
भ्रम समझकर
दूसरों के सपने संजोने लगते हैं
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
-
जब हम अपने सत्कर्मों को भूलकर
दूसरों के अपराधों का
गुणगान करने लगते हैं
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
-
जब हम सवालों से घिरे
उत्तर देने से बचने लगते हैं
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
-
जब हम सच्चाईयों से
टकराने की हिम्मत खो बैठते हैं
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
जब हम
औरों के झूठ का पुलिंदा लिए
उसे सत्य बनाने के लिए
घूमने लगते हैं
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
-
जब हम कांटों में
सुगन्ध ढूंढने लगते हैं
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
-
जब हम
दुनियादारी की कोशिश में
परायों को अपना समझने लगते हैं
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
-
जब हम
विरोध की ताकत खो बैठते हैं
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
-
जब हम औरों के अपराध के लिए
अपने-आपको दोषी मानने लगते हैं
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
-
जब हमारी आँखें
दूसरों की आँखों से
देखने लगती हैं
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
-
जब हमारे कान
केवल वही सुनने लगते हैं
जो तुम सुनाना चाहते हो
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
-
जब हम केवल
इसलिए खुश रहने लगते हैं
कि कोई रुष्ट न हो जाये
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
-
जब हमारी तर्कशक्ति
क्षीण होने लगती है
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
-
जब हमारी विरोध की क्षमता
मरने लगती है
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
-
जब हम
नीम-करेले के रस को
शहद समझकर पीने लगते हैं
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
-
जब हम
सपने देखने से डरने लगते हैं
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
-
जब हम
अकारण ही
हँसते- हँसते रोने लगते हैं
और हँसते-हँसते रोने
तब हम
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
-
हम बस यूँ ही
धीरे-धीरे मरने लगते हैं।
Share Me
नारी में भी चाहत होती है
ममता, नेह, मातृछाया बरसाने वाली नारी में भी चाहत होती है
कोई उसके मस्तक को भी सहला दे तो कितनी ही राहत होती है
पावनता के सारे मापदण्ड बने हैं बस एक नारी ही के लिए
कभी तुम भी अग्नि-परीक्षा में खरे उतरो यह भी चाहत होती है
Share Me
मधुर-मधुर पल
प्रकृति अपने मन से
एक मुस्कान देती है।
कुछ रंग,
कुछ आकार देती है।
प्यार की आहट
और अपनेपन की छांव देती है।
कलियां
नवजीवन की आहट देती हैं।
खिलते हैं फूल
जीवन का आसार देती हैं।
जब गिरती हैं पत्तियां
रक्तवर्ण
मन में एक चाहत का भास देती हैं।
समेट लेती हूं मुट्ठी में
मधुर-मधुर पलों का आभास देती हैं।
Share Me
यादों का पिटारा
इस डिब्बे को देखकर
यादों का पिटारा खुल गया।
भूली-बिसरी चिट्ठियों के अक्षर
मस्तिष्क पटल पर
उलझने लगे।
हरे, पीले, नीले रंग
आंखों के सामने चमकने लगे।
तीन पैसे का पोस्ट कार्ड
पांच पैसे का अन्तर्देशीय,
और
बहुत महत्वपूर्ण हुआ करता था
बन्द लिफ़ाफ़ा
जिस पर डाकघर से खरीदकर
पचास पैसे का
डाक टिकट चिपकाया करते थे।
पत्र लिखने से पहले
कितना समय लग जाता था
यह निर्णय करने में
कि कार्ड प्रयोग करें
अन्तर्देशीय या लिफ़ाफ़ा।
तीन पैसे और पचास पैसे में
लाख रुपये का अन्तर
लगता था
और साथ ही
लिखने की लम्बाई
संदेश की सच्चाई
जीवन की खटाई।
वृक्षों पर लटके ,
सड़क के किनारे खड़े
ये छोटे-छोटे लाल डब्बे
सामाजिकता का
एक तार हुआ करते थे
अपनों से अपनी बात करने का,
दूरियों को पाटने का
आधार हुआ करते थे
द्वार से जब सरकता था पत्र
किसी अपने की आहट का
एहसास हुआ करते थे।