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इन राहों पर कदम रखना सम्भल कर, फ़िसलन है बहुत
मन को कौन समझाये इधर-उधर तांक-झांक करे है बहुत
इस श्वेताभ नि:स्तब्धता के भीतर जीवन की चंचलता है
छूकर देखना, है तो शीतल, किन्तु जलन देता है बहुत
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मेहनत की ज़िन्दगी है
प्रेम का प्रतीक है
हाथ में मेरे
न देख मेरा चेहरा
न पूछ मेरी आस।
भीख नहीं मांगती
दया नहीं मांगती
मेहनत की ज़िन्दगी है
छोटी है तो क्या
मुझ पर न दया दिखा।
मुझसे ज्यादा जानते हो तुम
जीवन के भाव को।
न कर बात यूं ही
इधर-उधर की
लेना हो तो ले
मंदिर में चढ़ा
किसी के बालों में लगा
कल को मसलकर
सड़कों पर गिरा
मुझको क्या
लेना हो तो ले
नहीं तो आगे बढ़
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खत लिखने से डरते थे।
मन ही मन
उनसे प्यार बहुत करते थे
पर खत लिखने से डरते थे।
कच्ची पैंसिल, फटा लिफ़ाफ़ा
आटे की लेई,
कापी का आखिरी पन्ना।
फिर सुन लिया
लोग लिफ़ाफ़ा देखकर
मजमून भांप लिया करते हैं।
उनसे प्यार बहुत करते थे
पर इस कारण
खत लिखने से डरते थे।
अब हमें
मजमून का अर्थ तो पता नहीं था
लेकिन
मजमून से
कुछ मजनूं की-सी ध्वनि
प्रतिध्वनित होती थी।
कुछ लैला-मजनूं की-सी।
और कभी-कभी जूं की-सी।
और
इन सबसे हम डरते थे ।
उनसे प्यार बहुत करते थे
पर इस कारण
खत लिखने से डरते थे।
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लीक पीटना छोड़ दें
युग बदलते हैं भाव कहां बदलते हैं।
राम-रावण तो हर युग में पनपते हैं।
कथाओं को घोट-घोट कर पी रहे हम]
लीक पीटना छोड़ दें तब जीवन संवरते हैं।
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शिक्षा की यह राह देखकर
शिक्षा की कौन-सी राह है यह
मैं समझ नहीं पाई।
आजकल
बेटियां-बेटियां
सुनने में बहुत आ रहा है।
उनको ऐसी नई राहों पर
चलना सिखलाया जा रहा है।
सामान ढोने वाली
कुण्डियों पर लटकाया जा रहा है
और शायद
विद्यालय का मार्ग दिखलाया जा रहा है।
बच्चियां हैं ये अभी
नहीं जानती कि
राहें बड़ी लम्बी, गहरी
और दलदल भरी होती हैं।
न पैरों के नीचे धरा है
न सिर पर छाया,
बस दिवा- स्वप्न दिखा-दिखाकर
अधर में फ़ंसाया जा रहा है।
अवसर मिलते ही
डराने लगते हैं हम
धमकाने लगते हैं हम।
और कभी उनका
अति गुणगान कर
भटकाने लगते हैं हम।
ये राहें दिखाकर
उनके हौंसले
तोड़ने पर लगे हैं।
नौटंकियां करने में कुशल हैं।
चांद पर पहुंच गये,
आधुनिकता के चरम पर बैठे,
लेकिन
शिक्षा की यह राह देखकर
चुल्लू भर पानी में
डूब मरने को मन करता है।
किन्तु किससे कहें,
यहां तो सभी
गुणगान करने में जुटे हैं।
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कृष्ण की पुकार
न कर वन्दन मेंरा
न कर चन्दन मेरा
अपने भीतर खोज
देख क्रंदन मेरा।
हर युग में
हर मानव के भीतर जन्मा हूं।
न महाभारत रचा
न गीता पढ़ी मैंने
सब तेरे ही भीतर हैं
तू ही रचता है।
ग्वाल-बाल, गैया-मैया, रास-रचैया
तेरी अभिलाषाएं
नाम मेरे मढ़ता है।
बस राह दिखाई थी मैंने
न आयुध बांटे
न चक्रव्यूह रचे मैंने
लाक्षाग्रह, चीर-वीर,
भीष्म-प्रतिज्ञाएं
सब तू ही करता है
और अपराध छुपाने को अपना
नाम मेरा रटता है।
पर इस धोखे में मत रहना
तेरी यह चतुराई
कभी तुझे बचा पायेगी।
कुरूक्षेत्र अभी लाशों से पटा पड़ा है
देख ज़रा जाकर
तू भी वहीं कहीं पड़ा है।
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एक साल और मिला
अक्सर एक एहसास होता है
या कहूं
कि पता नहीं लग पाता
कि हम नये में जी रहे हैं
या पुराने में।
दिन, महीने, साल
यूं ही बीत जाते हैं,
आगे-पीछे के
सब बदल जाते हैं
किन्तु हम अपने-आपको
वहीं का वहीं
खड़ा पाते हैं।
** ** ** **
अंगुलियों पर गिनती रही दिन
कब आयेगा वह एक नया दिन
कब बीतेगा यह साल
और सब कहेंगे
मुबारक हो नया साल
बहुत-सी शुभकामनाएं
कुछ स्वाभाविक, कुछ औपचारिक।
** ** ** **
वह दिन भी
आकर बीत गया
पर इसके बाद भी
कुछ नहीं बदला
** ** ** **
कोई बात नहीं,
नहीं बदला तो न सही।
पर चलो
एक दिन की ही
खुशियां बटोर लेते हैं
और खुशियां मनाते हैaa
कि एक साल और मिला
आप सबके साथ जीने के लिए।
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इन आंखों का क्या करूं
शब्दों को बदल देने की
कला जानती हूं,
अपनी अभिव्यक्ति को
अनभिव्यक्ति बनाने की
कला जानती हूं ।
पर इन आंखों का क्या करूं
जो सदैव
सही समय पर
धोखा दे जाती हैं।
रोकने पर भी
न जाने
क्या-क्या कह जाती हैं।
जहां चुप रहना चाहिए
वहां बोलने लगती हैं
और जहां बोलना चाहिए
वहां
उठती-गिरती, इधर-उधर
ताक-झांक करती
धोखा देकर ही रहती हैं।
और कुछ न सूझे तो
गंगा-यमुना बहने लगती है।
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ऋद्धि सिद्धि बुध्दि के नायक
वक्रतुण्ड , एकदन्त, चतुर्भुज, फिर भी रूप तुम्हारा मोहक है
शांत चित्त, स्थिर पद्मासन में बैठै प्रिय भोज तुम्हारा मोदक है
ऋद्धि सिद्धि बुध्दि के नायक, क्षुद्र मूषक को सम्मान दिया
शिव गौरी के सुत, मां के वचन हेतु अपना मस्तक बलिदान किया
शांत चित्त, स्थिर पद्मासन में बैठै जग का नित कल्याण किया
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जीवन में सुमधुर गीत रचे हैं
एक बार हमारा आतिथेय स्वीकार करके तो देखो
आनन्दित होकर ही जायेंगे, विश्वास करके तो देखो
मन-उपवन में रंग-बिरंगे भावों की बगिया महकी है
जीवन में सुमधुर गीत रचे हैं संग-संग गाकर तो देखो