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रंगों की रंगीनीयों से मन भरमाया।
अप्रतिम सौन्दर्य निरख मन हर्षाया।
घटाओं से देखो रोशनी है झांकती,
कण-कण नेह से भीगे, आनन्द छाया।
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भावनाएं पत्थर हो गईं
सड़कों पर आदमी भूख से मरता रहा।
मंदिरों में स्वर्ण, रजत, हीरा चढ़ता रहा।
भावनाएं पत्थर हो गईं, कौन समझा यहां
बेबस इंसान भगवान की मूतियां गढ़ता रहा।
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हम खुश हैं जग खुश है
इस भीड़ भरे संसार में मुश्किल से मिलती है तन्हाई सखा
आ, ज़रा दो बातें कर लें,कल क्या हो,जाने कौन सखा
ये उजली धूप,समां सुहाना,हवा बासंती,हरा भरा उपवन
हम खुश हैं, जग खुश है, जीवन में और क्या चाहिए सखा
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कभी गोल हुआ करता था पैसा
कभी गोल हुआ करता था पैसा
इसलिए कहा जाता था
टिकता नहीं किसी के पास।
पता नहीं
कब लुढ़क जाये,
और हाथ ही न आये।
फिर खन-खन भी करता था पैसा।
भरी और भारी रहती थीं
जेबें और पोटलियां।
बचपन में हम
पैसों का ढेर देखा करते थे,
और अलग-अलग पैसों की
ढेरियां बनाया करते थे।
घर से एक पैसा मिलता था
स्कूल जाते समय।
जिस दिन पांच या दस पैसे मिलते थे,
हमारे अंदाज़ शाही हुआ करते थे।
लेकिन अब कहां रह गये वे दिन,
जब पैसों से आदमी
शाह हुआ करता था।
अब तो कागज़ से सरक कर
एक कार्ड में पसर कर
रह गया है पैसा।
वह आनन्द कहां
जो रेज़गारी गिनने में आता था।
तुम क्या समझोगे बाबू!!!
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वक्त कहां किसी का
वक्त को
जब मैं वक्त नहीं दे पाई
तो वह कहां मेरा होता ।
कहा मेरे साथ चल, हंस दिया।
कहा, ठहर ज़रा,
मैं तैयार तो हो लूं
साथ तेरे चलने के लिए,
उपहास किया मेरा।
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एक चित्रात्मक कथा
वे दिन भी क्या दिन थे, जब बचपन में भरी दोपहरी की तेज़ धूप में मां-दादी, बड़े भाई-बहनों और चाचा-ताउ की नज़रें बचाकर खिड़की फांदकर घर से निकल आया करते थे। न धूप महसूस होती थी न बरसात। न सूखे का पता था और न फ़सल-पानी की चिन्ता। कभी कंचे खेलते, किसी के खेत से फल-सब्ज़ियां चुराते, किसी के पशु खोल देते, मिट्टी में लोटते, तालाब में छपाछप करते, मास्टरों की खूब नकल उतारते। कब सूरज आकाश से धरती पर आ जाता पता ही नहीं लगता था। फिर भागते घर की ओर। निश्चिंत, डांट-मार खाने को तैयार। “अरे ! कुछ पढ़-लिख लो, नहीं तो खेतों में यूं ही जानवरों से हांकते रहोगे, देखो, फ़लाने का बेटा कैसे दसवीं करके शहर जाकर बाबू बन गया।“ और न जाने क्या-क्या। रोज़ का किस्सा था जब तक पढ़ते रहे। न हम सुधरे , न चिन्ता करने वालों ने हमें समझाना छोड़ा।
फिर, युवा हो गये। हम कहां बदले। बस, बचपन में जो बचपना समझा जाता था वह अब आवारागर्दी हो गया। घर-बाहर के काम करने लगे, खेती-बाड़ी सम्हालने लगे किन्तु सबकी आंखों में चुभते ही रहे। बड़े-बुजुर्ग सर पीटते : “अरे ! क्या होगा इन छोरों का, नासपीटों का, न पढ़े-लिखे, न काम-काज किये, अब इसी खेती में जूझेगें। कुछ हमारी सुनी होती तो बड़े बाउ बनकर शहर में नाम कमा रहे होते। कौन करेगा इन नाकारा छोरों से ब्याह।“
फिर ब्याह भी हो गये हम सबके। घर-बार सब चलने लगे। हमें समझाने वाले चले गये। लेकिन हम वैसे के वैसे। पहले पिछली पीढ़ी हमारे पीछे थी, अब अगली पीढ़ी हमारे आगे आ गई।
बच्चे बड़े हो गये। पढ़-लिख गये। खेती रास न आई। बाउ बन गये। शहरी रंग-ढंग आ गये। पढ़ी-लिखी बहुएं आ गईं। और हम वैसे के वैसे।
भरी दोपहरी की तेज़ धूप हो अथवा भांय-भांय करते खेत, हमारा तो जन्म से यही आशियाना रहा।
और अब, “इन बुढ़उ को देखो, कौन समझावे। उमर हो गई है, आराम से घर में बैठो। घर का, अन्दर-बाहर का कोई काम देखो। घर में सब आराम दियो है, टी. वी. पंखा लगवा दियो है, पर दिमाग फिर गयो है, कैसे तो भरी दोपहरी में, संझा तक धूप में सड़े-पड़े रहे हैं। कल को कुछ हो-हुवा गया तो लोगन कहेंगे बच्चों ने ध्यान न रखा, बहुएं बुरी थीं।“
लेकिन हमें न तो बचपने में ऐसा कुछ सुनाई देता था, न जवानी में सुना और अब तो वैसे ही कान कम सुनने लगे हैं तो बोली जाओ , बोली जाओ , हमें न फ़रक पड़े है।
हा हा हा !!!!!
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तितली को तितली मिली
तितली को तितली मिली,
मुस्कुराहट खिली।
कुछ गीत गुनगुनाएं,
कुछ हंसे, कुछ मुस्कुराएं,
कहीं फूल खिले,
कहीं शाम हंसाए,
रोशनी की चमक,
रंगों की दमक,
हवाओं की लहक,
फूलों की महक,
मन को रिझाए।
सुन्दर है,
सुहानी है ज़िन्दगी।
बस यूं ही खुशनुमा
बितानी है ज़िन्दगी।
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अठखेलियां करते बादल
आकाश में अठखेलियां करते देखो बादल
ज्यों मां से हाथ छुड़ाकर भागे देखो बादल
डांट पड़ी तो रो दिये, मां का आंचल भीगा
शरारती-से, जाने कहां गये ज़रा देखो बादल
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ज़िन्दगी एक क्षणिका भी न बन पाई
किसी ने कहा
ज़िन्दगी पर
एक उपन्यास लिखो।
सालों-साल का
हिसाब-बेहिसाब लिखो।
स्मृतियों को
उलटने-पलटने लगी।
समेटने लगी
सालों, महीनों, दिनों
और घंटों का,
पल-पल का गणित।
बांधने लगी पृष्ठ दर पृष्ठ।
न जाने कितने झंझावात,
कितने विप्लव,
कितने भूचाल बिखर गये।
कहीं आंसू, कहीं हर्ष,
कहीं आहों के,
सुख-दुख के सागर उफ़न गये।
न जाने
कितने दिन-महीने, साल लग गये
कथाओं का समेटने में।
और जब
अन्तिम रूप देने का समय आया
तो देखा
एक क्षणिका भी न बन पाई।
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हमारे भीतर ही बसता है वह
कहां रूपाकार पहचान पाते हैं हम
कहां समझ पाते हैं
उसका नाम,
नहीं पहचानते,
कब आ जाता है सामने
बेनाम।
उपासना करते रह जाते हैं
मन्दिरों की घंटियां
घनघनाते रह जाते हैं
नवाते हैं सिर
करते हैं दण्डवत प्रणाम।
हर दिन
किसी नये रूप को आकार देते हैं
नये-नये नाम देते हैं,
पुकारते हैं
आह्वान करते हैं,
पर नहीं मिलता,
नहीं देता दिखाई।
पर हम ही
समझ नहीं पाये आज तक
कि वह
सुनता है सबकी,
बिना किसी आडम्बर के।
घूमता है हमारे आस-पास
अनेक रूपों में, चेहरों में
अपने-परायों में।
थाम रखा है हाथ
बस हम ही समझ नहीं पाते
कि कहीं
हमारे भीतर ही बसता है वह।
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जब बजता था डमरू
कहलाते शिव भोले-भाले थे
पर गरल उन्होंने पिया था
नरमुण्डों की माला पहने,
विषधर उनके आभूषण थे
भूत-प्रेत-पिशाच संगी-साथी
त्रिशूल हाथ में लिया था
त्रिनेत्र खोल जब बजता था डमरू
तीनों लोकों के दुष्टों का
संहार उन्होंने किया था
चन्द्र विराज जटा पर,
भागीरथी को जटा में रोक
विश्व को गंगामयी किया था।
भांग-धतूरा सेवन करते
भभूत लगाये रहते थे।
जग से क्या लेना-देना
सुदूर पर्वत पर रहते थे।
* * * *
अद्भुत थे तुम शिव
नहीं जानती
कितनी कथाएं सत्य हैं
और कितनी कपोल-कल्पित
किन्तु जो भी हैं बांधती हैं मुझे।
* * * * *
तुम्हारी कथाओं से
बस
तुम्हारा त्रिनेत्र, डमरू
और त्रिशूल चाहिए मुझे
शेष मैं देख लूंगी ।