ककहरा जान लेने से ज़िन्दगियां नहीं बदल जातीं
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इस चित्र को देखकर सोचा था,
आज मैं भी
कोई अच्छी-सी रचना रचूंगी।
मां-बेटी की बात करूंगी।
लड़कियों की शिक्षा,
प्रगति को लेकर बड़ी-बड़ी
बात करूंगी।
पर क्या करूं अपनी इस सोच का,
अपनी इस नज़र का,
मुझे न तो मां दिखाई दी इस चित्र में,
किसी बेटी के लिए आधुनिकता-शिक्षा के
सपने बुनती हुई ,
और न बेटी एवरेस्ट पर चढ़ती हुई।
मुझे दिखाई दे रही है,
एक तख्ती परे सरकती हुई,
कुछ गुम हुए, धुंधलाते अक्षरों के साथ,
और एक छोटी-सी बालिका।
यहां कहां बेटी पढ़ाने की बात है।
कहां कुछ सिखाने की बात है।
नहीं है कोई सपना।
नहीं है कोई आस।
जीवन की दोहरी चालों में उलझे,
तख्ती, चाक और लिखावट
तो बस दिखावे की बात है।
एक ओर तो पढ़ ले,पढ़ ले,
का राग गा रहे हैं,
दूसरी ओर
इस छोटी सी बालिका को
सजा-धजाकर बिठा रहे हैं।
कोई मां नहीं बुनती
ऐसे हवाई सपने
अपनी बेटियों के लिए।
जानती है गहरे से,
ककहरा जान लेने से
ज़िन्दगियां नहीं बदल जातीं,
भाव और परम्पराएं नहीं उलट जातीं।
.
आज ही देख रही है ,
उसमें अपना प्रतिरूप।
.
सच कड़वा होता है
किन्तु यही सच है।
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कुछ चेतावनियों के साथ
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कोई भी, कहीं भी
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देखकर मन ललचाता है
कुछ आधुनिक दिखने की चाहत
खींच ले जाती है
एकान्त में, छिपकर
फिर दिखाकर
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नाम लिखा है तुम्हारा
रोज़ एक फूल छुपाती थी किताबों में
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फिर एक दिन किताब पुरानी हो गई
पन्ने खुलने लगे, फूल झरने लगे
सूखे फूलों को समेटा, पत्ती पत्ती को सहेजा
कोई देख न ले
इसलिए बंद मुठ्ठी में सहेजा
पर मुठ्ठी की दरारों से, चाहत झरने लगी
फूल फिर रूप लेने लगे,
रंग फिर बहकने लगे
नाम तुम्हारा लिखने लगे
दिल में बाग खिलने लगे
उपहार भेजती हूं तुम्हें
तुम्हारा ही दिल
नाम लिखा है तुम्हारा
फूलों में, कलियों में
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सलमे सितारों में
तारों में , हारों में ।।।।।।
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ज़मीन से उठते पांव थे
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ज़मीन से उठते पांव थे
आंखों पर अहं का परदा था
उल्टे पड़े सब दांव थे
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निजी एवं सरकारी विद्यालयों में शिक्षा का स्तर
मेरे विचार में यदि केवल एक नियम बना दिया जाये कि सभी सरकारी विद्यालयों के अध्यापकों के बच्चे उनके अपने ही विद्यालय में शिक्षा ग्रहण करेंगे तो इन विद्यालयों के अध्यापक स्वयं ही शिक्षा के स्तर को सुधारने का प्रयास करेंगे।
निजी विद्यालयों एवं सरकारी विद्यालयों में शिक्षा के स्तर में अन्तर के मुख्य कारण मेरे विचारानुसार ये हैं:
निजी विद्यालयों में स्थानान्तरण नहीं होते, अवकाश भी कम होते हैं तथा जवाबदेही सीधे सीधे एवं तात्कालिक होती है।
निजी विद्यालयों में प्रवेश ही चुन चुन कर अच्छे विद्यार्थियों को दिया जाता है चाहे वह प्रथम कक्षा ही क्यों न हो।
कमज़ोर विद्यार्थियों को बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है।
- भारी भरकम वेतन पर अध्यापकों की नियुक्ति, मिड डे मील,यूनीफार्म आदि बेसिक सुविधाओं से शिक्षा का स्तर नहीं उठाया जा सकता। बदलती सामाजिक व्यवस्था के अनुरूप शिक्षा के बदलते मानदण्डों , शिक्षा की नवीन पद्धति, समयानुकूल पाठ्यक्रमों में परिवर्तन की ओर जब तक ध्यान नहीं दिया जायेगा सरकारी विद्यालयों की शिक्षा पिछड़ी ही रहेगी।
, यदि हम यह मानते हैं कि निजी विद्यालयों में शिक्षा का स्तर बहुत अच्छा है तो यह हमारी भूल है। वर्तमान में निजी विद्यालयों में भी शिक्षा नाममात्र रह गई है। क्योंकि यहां उच्च वर्ग के बच्चे पढ़ते हैं तो वे ट्यूशन पर ही निर्भर होते हैं। निजी विद्यालयों में तो नाम, प्रचार, अंग्रेज़ी एवं अन्य गतिविधियों की ओर ही ज़्यादा ध्यान दिया जाने लगा है।
सबसे बड़ी बात यह कि हम निजी विद्यालयों की शिक्षा पद्धति एवं शिक्षा नीति को बहुत अच्छा समझने लग गये हैं । किन्तु वास्तव में यहाँ प्रदर्शन अधिक है। इसमें कोई संदेह नहीं कि निजी विद्यालयों की तुलना में सरकारी विद्यालय पिछड़े हुए दिखाई देते हैं किन्तु इसका कारण केवल सरकारी अव्यवस्था, अध्यापकों पर शिक्षा के स्तर को बनाये रखने के लिए किसी भी प्रकार के दबाव का न होना एवं निम्न मध्यवर्गीय परिवारों के बच्चों का ही इन विद्यालयों में प्रवेश लेना, जिनकी पढ़ाई में अधिक रुचि ही नहीं होती।
मेरे विचार में कमी व्यवस्था में है। सरकार विद्यालय दूर दराज के क्षेत्रों में भी हैं जहां कोई भी जाना नहीं चाहता।
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अपने केश संवरवा लेना
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माखन खाना,
ग्वाल-बाल संग
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यशोदा मैया
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उसको सताना ठीक था।
कुरुक्षेत्र की यादें
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पर राधे !
अब मुझको यह भी करना होगा!!
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तेरी उलझी लटें
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चक्र चलाना, शंख बजाना,
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न जाने कहाँ-कहाँ मुझको है जाना।
मेरे जाने के बाद
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जिनका उलटा बजता ढोल
मुझे सताये है।
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कैसे-कैसे इनको है निपटाना।
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अब मुझको अपने असली रूप में है आना
तुम्हें एक लिंक देता हूँ
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अपने केश संवरवा लेना।
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न छूट रहे लगाव थे
कुछ कहे-अनकहे भाव थे।
कुछ पंख लगे चाव थे।
कुछ शब्दों के साथ थे।
कुछ मिट गये लगाव थे।
कुछ को शब्द मिले थे।
कुछ सूख गये रिसाव थे।
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कुछ बिखरे-बिखरे ख्वाब थे।
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नहीं संवारती पृष्ठ।
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कहीं स्याही बिखरी।
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न छूट रहे लगाव थे।
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मौसम के रूप समझ न आयें
कोहरा है या बादलों का घेरा, हम बनते पागल।
कब रिमझिम, कब खिलती धूप, हम बनते पागल।
मौसम हरदम नये-नये रंग दिखाता, हमें भरमाता,
मौसम के रूप समझ न आयें, हम बनते पागल।