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इस रचना में पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग किया गया है, पर्यायवाची शब्दों में भी अर्थ भेद होता है, इसी अर्थ भेद के कारण मुहावरे बनते हैं, ऐसा मैं समझती हूं, इसी दृष्टि से इस रचना का सृजन हुआ है
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सुनते हैं
अक्ल घास चरने गई है
मति मारी गई है
और समझ भ्रष्ट हो गई है
विवेक-अविवेक का अन्तर
भूल गये हैं
और मनीषा, प्रज्ञा, मेधा
हमारे ऋषि-मुनियों की
धरोहर हुआ करती थीं
जिन्हें हम सम्हाल नहीं पाये
अपनी धरोहर को।
बुद्धि-विवेक कहीं राह में छूट गये
और हम
यूं ही
कंधों पर सिर लिए घूमते हैं।
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कुछ पाने के लिए सर टकराने पड़ते हैं
जीवन में
आगे बढ़ने के लिए
खतरे तो उठाने पड़ते हैं।
लीक से हटकर
चलते-चलते
अक्सर झटके भी
खाने पड़ते हैं।
हिमालय की चोटी छूने में
खतरा भी है,
जोखिम भी,
और शायद संकट भी।
जीवन में कुछ पाने के लिए
तीनों से सर
टकराने पड़ते हैं।
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अस्त होते सूर्य को नमन करें
हार के बाद भी जीत मिलती है
चलो आज हम अस्त होते सूर्य को नमन करें
घूमकर आयेगा, तब रोशनी देगा ही, मनन करें
हार के बाद भी जीत मिलती है यह जान लें,
न डर, बस लक्ष्य साध कर, मन से यत्न करें
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हम मस्त हैं अपने ही बुने मकड़जाल में
जीवन में जरूरी है
किसी परिधि में सिमटना,
सीमाओं में बंधना।
और ये सीमाएं
हम स्वयं तय करें,
तय करें अपनी दूरियां,
अपनी दीवारें चुनें,
बनायें किले या ढहायें।
तुम कुछ भी सोचते रहो
कि फंस रहें हैं हम
अपने ही जाल में,
लेकिन सदा ऐसा नहीं होता।
जब हम
सबकी उपेक्षा कर
अपना सुरक्षा कवच
स्वयं बुनते हैं,
तो तकलीफ होती है,
कहानियां बुनी जाती हैं,
कथाएं सुनी जाती हैं।
कुछ भी कहो,
हम मस्त हैं
अपने ही बुने मकड़जाल में।
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एक उपहार है ज़िन्दगी
हर रोज़ एक नई कथा पढ़ाती है जिन्दगी
हर दिन एक नई आस लाती है ज़िन्दगी
कभी हंसाती-रूलाती-जताती है ज़िन्दगी
हर दिन एक नई राह दिखाती है ज़िन्दगी
कदम दर कदम नई आस दिलाती है जिन्दगी
घनघोर घटाओं में भी धूप दिखाती है जिन्दगी
कभी बादलों में कड़कती-चमकती-सी है ज़िन्दगी
कुछ पाने के लिए निरन्तर भगाती है जिन्दगी
भोर से शाम तक देखो जगमगाती है जिन्दगी
झड़ी में भी कभी-कभी धूप दिखाती है जिन्दगी
कभी आशाओं का सागर लहराती है जिन्दगी
और कभी कभी खूब धमकाती भी है जिन्दगी
तब दांव पर पूरी लगानी पड़ती है जिन्दगी
यूं ही तो नहीं आकाश दिला देती है जिन्दगी
पर कुल मिलाकर देखें तो एक उपहार है ज़िन्दगी
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नहीं चाहते हम हमारी अमरता से कोई घटना घटे
कहीं नोट पर चित्र छपेगा, कहीं सड़क, पुल पर नाम होगा
कोई कहेगा अवकाश कीजिए, कहीं पुस्तकों में एक पाठ होगा
नहीं चाहते हम हमारी अमरता से कोई घटना घटे, दुर्घटना घटे
कहीं झण्डे उठेंगे,डण्डें भिड़ेगें, कहीं बन्द का आह्वान होगा
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मैंने चिड़िया से पूछा
मैंने चिड़िया से पूछा
क्यों यूं ही दिन भर
चहक-चहक जाती हो
कुट-कुट, किट-किट करती
दिन-भर शोर मचाती हो ।
पलटकर बोली
तुमको क्या ?
मैंने कभी पूछा तुमसे
दिन भर
तुम क्या करती रहती हो।
कभी इधर-उधर
कभी उधर-इधर
कभी ये दे-दे
कभी वो ले ले
कभी इसकी, कभी उसकी
ये सब क्यों करती रहती हो।
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कभी मैं बोली सूरज से
कहां तुम्हारी धूप
क्यों चंदा नहीं आये आज
कभी मांगा चंदा से किसी
रोशनी का हिसाब
कहां गये टिम-टिम करते तारे
कभी पूछा मैंने पेड़ों से
पत्ते क्यों झर रहे
फूल क्यों न खिले।
कभी बोली फूलों से मैं
कहां गये वो फूल रंगीले
क्यों नहीं खिल रहे आज।
क्यों सूखी हरियाली
बादल क्यों बरसे
बिजली क्यों कड़की
कभी पूछा मैंने तुमसे
मेरा घर क्यों उजड़ा
न डाल रही, न रहा घरौंदा
कभी की शिकायत मैंने
कहाँ सोयेंगे मेरे बच्चे
कहाँ से लाऊँगी मैं दाना-पानी।
मैं खुश हूँ
तुम भी खुश रहना सीखो
मेरे जैसे बनना सीखो
इधर-उधर टाँग अड़ाना बन्द करो
अपने मतलब से मतलब रख आनन्द करो।
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मेरे बाबाजी ऐसे क्यों न थे
मेरा यह आलेख उस समय का है जब मीडिया में तरह-तरह के बाबा छाये हुए थे, उनके पास खरीदा हुआ समय था, अपने चैनल थे, बहुत बड़ा प्रचार माध्यम था, जिनमें से आज कुछ कारागार में, कुछ की दुकानदारी बन्द हो चुकी है। किन्तु अपने समय में इन्होने जिन उंचाईयों को छुआ वे समझने वाली थीं। उस पर ही मेरी यह व्यंग्य रचना।
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आजकल जब टी.वी. पर बाबाओं को देखती हूँ तो मन में एक हूक उठती है, मेरे बाबाजी ऐसे क्यों न थे? यह एक समय की बात है जब मेरे भी एक बाबाजी हुआ करते थे। वैसे मेरे एक नहीं पाँच- पाँच बाबा हुआ करते थे किन्तु मेरे एक भी बाबा ऐसे क्यों न थे यही मेरी पीड़ा है। मेरे बाबा अर्थात् मेरे पिता के पिता जिन्हें आजकल बड़े पा, दादू, दद्दा, बड़े डैड, सीनियर डैड वगैरह कहा जाता है उन्हें ही हमारे ज़माने में बाबाजी कहा जाता था। और फिर मेरे तो एक नहीं पाँच- पाँच बाबा थे। एक मेरे सगे बाबाजी और चार उनके भाई। और वे पाँचों एक ही घर में रहा करते थे। किन्तु मेरा दुख यह कि मेरे एक भी बाबाजी ऐसे क्यों न थे?
अब आप जानना चाहेंगे कि मेरे बाबाजी ‘ऐसे’ क्यों न थे अर्थात् ‘कैसे’ क्यों न थे? अब इसमें बताने की क्या बात है। आज जब मैं टी. वी. पर, समाचार-पत्रों में इन बाबाओं को देखती-सुनती हूँ तो मेरे मन में एक कसक पैदा होती है कि मेरे बाबाजी ऐसे क्यों न थे। मेरे बाबाजी - बड़े हुए, शादी कर ली, ईमानदारी का व्यवसाय किया, परिवार को ईमानदारी, सच्चाई, त्याग, सच्चरित्रता, आत्मनिर्भरता का पाठ पढ़ाया और यही सब कुछ विरासत में अपने परिवार को देकर चल बसे। अब आप ही बताईए कितना पीड़ादायक है ऐसे बाबा के परिवार का सदस्य होना।
एक मेरे बाबा थे और एक ये आजकल के बाबा हैं। हां, धोती-कुर्ता वे भी पहनते थे ये भी पहनते हैं। सच्चाई, ईमानदारी, त्याग, दान का महत्व वे भी समझाते थे और ये भी समझाते हैं। वे भी गांव में पैदा हुए थे और ये भी। किन्तु मेरे बाबाजी मिट्टी को ही सोना कहकर पुकारते रहे और ये मिट्टी में सोना गाढ़ते रहे। मेरे बाबाजी के कुर्ते के नीचे एक बंडी हुआ करती थी और इनके कुर्ते के नीचे बुलेट पू्रफ जैकेट। मेरे बाबाजी ने सारे उपदेश अपने पर थोप रखे थे और इन बाबाओें के उपदेश दूसरों को देने के लिए हैं।
काश! मेरे बाबाओं ने इन आधुनिक बाबाओं से कुछ सीखा होता तो आज हमारा जीवन कितना सुखी-सम्पन्न, आध्यात्मिक होता। एक मेरे बाबा थे छोटा-सा परिवार बसाया, उसके लिए कमाया और चल दिए। और एक ये बाबा हैं सारी दुनिया के लिए कमाते हैं। विवाह नहीं करते क्योंकि पूरा विश्व इनका परिवार है । इसी कारण इतना कमाते हैं कि पूरे विश्व का पालन-पोषण कर सकें; करें या न करें यह अलग बात है। हर गाँव, हर शहर, हर राज्य और और यहां तक कि विदेशों में भी इनके आवास हैं जिन्हें सम्मान से आश्रम कहा जाता है। अब ये आश्रम मेरे बाबाजी के पैतृक घर की तरह मिट्टी-गारे के तो होते नहीं, बायोमीट्रिक होते हैं। अब यह बायोमीट्रिक क्या होता है यह तो मुझे भी पता नहीं किन्तु कुछ तो ज़्यादा ही होता होगा तभी तो चर्चा का विषय बना हुआ है। द्वीपों पर भी इनका साम्राज्य है।
ये परिवार नहीं समर्थक और अनुयायी पैदा करते हैं। और मेरे पाँचों बाबाओं को देखो, एक ही घर में एक साथ रहते थे। अरे कोई उन्हें सद्बुद्धि देता। अपने-अपने आश्रम बनाते, क्षमा कीजिएगा अपने-अपने घर बनाते, अपनी-अपनी सम्पत्ति, अपनी-अपनी सत्ता, अपना-अपना धर्म और अपने-अपने अनुयायी। तब आज शायद मैं भी गर्व से अपने बाबाओं को स्मरण करती।
मेरे बाबाजी पैंतीस रुपये महीना कमाते थे और ये पैंतीस करोड़ के कमरे में रहते हैं। किसी के पास पचास हज़ार करोड़ की सम्पत्ति है तो किसी के पास ग्यारह हज़ार करोड़ की। जब भी एक नया कमरा खोला जाता है तो वहां कुछ किलो सोना-चांदी निकल आता है । इधर तो साड़ियाँ , विदेशी प्रसाधन का सामान और इस तरह का पता नहीं क्या-क्या सामान मिल रहा है। और दूसरी ओर मेरे बाबाजी तो तोले-माशे की बात करते ही चल बसे और यहां सोना-चांदी किलो में तोला जा रहा है। हमारी सारी आयु बीत गई उन किस्सों को सुनते-सुनते कि तुम्हारे बाबाजी ये हुआ करते थे वे हुआ करते थे। हमारे पास ये था हमारे पास वो था। उनके पास बैल थे, अपना टांगा-गाड़ी थी। घर के आगे आंगन था। अपनी ज़मीन-खेत थे। लेकिन ये बाबा करोड़ों के विमानों, वातानुकूलित गाड़ियों में यात्रा करते हैं। पूरी दुनिया में जहाँ चाहें वहां सरकारी या गैर-सरकारी ज़मीन पर अपना पैर रखकर वैधानिक तौर पर उसे अपना बना लेते की ताकत रखते हैं। हमारे बाबा नून-तेल-लकड़ी में ही उलझे रहे किन्तु इन बाबाओं के अनुयायी इनकी नून-तेल-लड़की क्षमा कीजिए लड़की फिर ज़बान फ़िसल गई मेरा अभिप्राय है लकड़ी का प्रबन्ध करते हैं क्योंकि इन्हें तो अपने आश्रमों, व्यवसायिक प्रतिष्ठानों, उद्योगों, क्रय-विक्रय, लाभ-हानि, नव-निर्माण, सम्पत्तियों-परिसम्पत्तियों का भी हिसाब रखना होता है। फिर देश-विदेश की यात्राएं, अनुयायियों, समर्थकों को निरन्तर दान देने के लिए प्रेरित करते रहना, राजनीतिक सम्पर्क बनाए रखना, शिविर लगा-लगाकर उपदेश दे-देकर लोगों को सार्वजनिक तौर पर लूटना जैसे कितने ही महत्वपूर्ण कार्य हैं इनके पास।
लेकिन मेरे बाबाजी ऐसे क्यों न थे?
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आने वाला कल
अपने आज से परेशान हैं हम।
क्या उपलब्धियां हैं
हमारे पास अपने आज की,
जिन पर
गर्वोन्नत हो सकें हम।
और कहें
बदलेगा आने वाला कल।
.
कैसे बदलेगा
आने वाला कल,
.
डरे-डरे-से जीते हैं।
सच बोलने से कतराते हैं।
अन्याय का
विरोध करने से डरते हैं।
भ्रमजाल में जीते हैं -
आने वाला कल अच्छा होगा !
सही-गलत की
पहचान खो बैठे हैं हम,
बनी-बनाई लीक पर
चलने लगे हैं हम।
राहों को परखते नहीं।
बरसात में घर से निकलते नहीं।
बादलों को दोष देते हैं।
सूरज पर आरोप लगाते हैं,
चांद को घटते-बढ़ते देख
नाराज़ होते हैं।
और इस तरह
वास्तविकता से भागने का रास्ता
ढूंढ लेते हैं।
-
तो
कैसे बदलेगा आने वाला कल ?
क्योंकि
आज ही की तो
प्रतिच्छाया होता है
आने वाला कल।
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कितनी मनोहारी है जि़न्दगी
प्रतिदित प्रात नये रंग-रूप में खिलती है जि़न्दगी
हरी-भरी वाटिका-सी देखो रोज़ महकती है जि़न्दगी
कभी फूल खिेले, कभी फूल झरे, रंगों से धरा सजी
ज़रा आंख खोलकर देख, कितनी मनोहारी है जि़न्दगी
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सूख गये सब ताल तलैया
न प्रीत, न मीत के लिए, न मिलन, न विरह के लिए
घट लाई थी पनघट पर जल भर घर ले जाने के लिए
न घटा आई, न जल बरसा, सूख गये सब ताल–तलैया
संभल मानव, कुछ तो अच्छा कर जा अगली पीढ़ी के लिए