Share Me
सूझबूझ से चले न दुनिया
हेरा-फ़ेरी कर ले मुनिया
इसका लेके उसको दे दे
ऐसे ही तो चलती दुनिया
Share Me
Write a comment
More Articles
प्रेम की नवीन परिभाषा और कृष्ण
कभी सोचा नहीं मैंने
इस तरह तुम्हारे लिए।
ऐसा तो नहीं कि प्रेम-भाव,
श्रृंगार भाव नहीं मेरे मन में।
किन्तु तुम्हारी प्रेम-कथाओं का
युगों-युगों से
इतना पिष्ट-पेषण हुआ
कि भाव ही निष्ठुर हो गये।
स्त्रियां ही नहीं
पुरुष भी राधे-राधे बनकर
तुम्हारे प्रेम में वियोगी हो गये।
निःसंदेह, सौन्दर्य के रूप हो तुम।
तुम्हारी श्याम आभा,
मोर पंख के साथ
मन मोह ले जाती है।
राधा के साथ
तुम्हारा प्रेम, नेह,
यमुना के नील जल में
गोपियों के संग रास-लीला,
आह ! मन बहक-बहक जाता है।
लेकिन, इस युग में
ढूंढती हूं तुम्हारा वह रूप,
अपने-परायों को
जीना सिखलाता था।
प्रेम की एक नवीन परिभाषा पढ़ाता था।
सत्य-असत्य को परिभाषित करता था,
अपराधी को दण्डित करता था,
करता था न्याय, बेधड़क।
चक्र घूमता था उसका,
उसकी एक अंगुली से परिभाषित
होता था यह जगत।
हर युग में रूप बदलकर
प्रेम की नवीन परिभाषा सिखाते थे तुम।
इस काल में कब आओगे,
आंखें बिछाये बैठे हैं हम।
Share Me
बैठे ठाले
चित्राधारित रचना हास्य
*********-**********
मैं जिस डाल पर बैठा हूं, उसे ही काट रहा हूं, आपको कोई आपत्ति, कोई कष्ट आपको? नहीं न, तो काटने दीजिए, गिरूंगा तो मैं गिरूंगा, हड्डियां टूटेंगी तो मेरी टूटेंगी, आपको क्या? क्यों अपनी टांग अड़ाते हैं आप किसी और के मामले में। बता दूं कि दूसरों के मामलों में टांग अड़ाने पर भी टांग टूट जाती है।
हा हा! आजकल आरी से पेड़ कौन काटता है भला। आजकल तो मशीने हैं, पलभर में पूरा वृक्ष धराशायी। मैं जानता हूं कि आप क्या कहेंगे। आप कहेंगे कि यह तो मूर्खता प्रदर्शित करने का प्रतीक है कि जिस डाली पर बैठे उसी को काटना। मुहावरा है। किन्तु मूर्खता प्रदर्शित करने की आवश्यकता ही क्या ? प्रदर्शित करना है तो बुद्धिमानी कीजिए, चतुराई कीजिए, दक्षता कीजिए। किसी की भी मूर्खता तो उसके मुंह खोलते ही पता लग जाती है।
और हर समय गम्भीर बात करना ज़रूरी होता है क्या? जानता हूं मैं कि वृक्ष पर्यावरण की सुरक्षा के लिए ज़रूरी हैं। हमने विकास की आंधी में बहुत कुछ खो दिया है। आधुनिकता के पीछे भाग कर हम अपनी बहुत हानि कर रहे हैं। पर सूखा वृक्ष है तो काटेंगे ही, लकड़ी काम आयेगी और नये वृक्ष लगायेंगे किन्तु आपने तो पता नहीं कितनी कहानियां बना डालीं कि जिस डाल पर बैठा है, उसे ही काट रहा है।
मैं तो आप सबकी कल्पनाशक्ति देख रहा था कि मेरे इस चित्र को देखकर आप क्या सोचते हैं। आप ही इस चित्र को ध्यान से देखकर बताईये ज़रा, मैं इस वृक्ष पर चढ़ा कैसे? न डाली, न सहारा, न सीढ़ी। और लक्कड़हारे की तो मेरी यूनिफ़ार्म भी नहीं है। तो फिर ! प्रतीकात्मक है, मूर्खता प्रदर्शित करने का।
Share Me
ज़िन्दगी के साथ एक और तकरार
अक्सर मन करता है
ज़िन्दगी
तुझसे शिकायत करुं।
न जाने कहां-कहां से
सवाल उठा लाती है
और मेरे जीने में
अवरोध बनाने लगती है।
जब शिकायत करती हूं
तो कहती है
बस
सवाल एक छोटा-सा था।
लेकिन,
तुम्हारा एक छोटा-सा सवाल
मेरे पूरे जीवन को
झिंझोड़कर रख देता है।
उत्तर तो बहुत होते हैं
मेरे पास,
लेकिन देने से कतराती हूं,
क्योंकि
तर्क-वितर्क
कभी ख़त्म नहीं होते,
और मैं
आराम से जीना चाहती हूं।
बस इतना समझ ले
ज़िन्दगी
तुझसे
हारी नहीं हूं मैं
इतनी भी बेचारी नहीं हूं मैं।
Share Me
ज़िन्दगी मिली है आनन्द लीजिए
ज़िन्दगी मिली है आनन्द लीजिए, मौत की क्यों बात कीजिए
मन में कोई भटकन हो तो आईये हमसे दो बात कीजिए
आंख खोलकर देखिए पग-पग पर खुशियां बिखरी पड़ी हैं
आपके हिस्से की बहुत हैं यहां, बस ज़रा सम्हाल कीजिए
Share Me
ककहरा जान लेने से ज़िन्दगियां नहीं बदल जातीं
इस चित्र को देखकर सोचा था,
आज मैं भी
कोई अच्छी-सी रचना रचूंगी।
मां-बेटी की बात करूंगी।
लड़कियों की शिक्षा,
प्रगति को लेकर बड़ी-बड़ी
बात करूंगी।
पर क्या करूं अपनी इस सोच का,
अपनी इस नज़र का,
मुझे न तो मां दिखाई दी इस चित्र में,
किसी बेटी के लिए आधुनिकता-शिक्षा के
सपने बुनती हुई ,
और न बेटी एवरेस्ट पर चढ़ती हुई।
मुझे दिखाई दे रही है,
एक तख्ती परे सरकती हुई,
कुछ गुम हुए, धुंधलाते अक्षरों के साथ,
और एक छोटी-सी बालिका।
यहां कहां बेटी पढ़ाने की बात है।
कहां कुछ सिखाने की बात है।
नहीं है कोई सपना।
नहीं है कोई आस।
जीवन की दोहरी चालों में उलझे,
तख्ती, चाक और लिखावट
तो बस दिखावे की बात है।
एक ओर तो पढ़ ले,पढ़ ले,
का राग गा रहे हैं,
दूसरी ओर
इस छोटी सी बालिका को
सजा-धजाकर बिठा रहे हैं।
कोई मां नहीं बुनती
ऐसे हवाई सपने
अपनी बेटियों के लिए।
जानती है गहरे से,
ककहरा जान लेने से
ज़िन्दगियां नहीं बदल जातीं,
भाव और परम्पराएं नहीं उलट जातीं।
.
आज ही देख रही है ,
उसमें अपना प्रतिरूप।
.
सच कड़वा होता है
किन्तु यही सच है।
Share Me
ठहरा-सा लगता है जीवन
नदिया की धाराओं में टकराव नहीं है
हवाओं के रुख वह में झनकार नहीं है
ठहरा-ठहरा-सा लगता है अब जीवन
जब मन में ही अब कोई भाव नहीं हैं
Share Me
मन टटोलता है प्रस्तर का अंतस
प्रस्तर के अंतस में
सुप्त हैं न जाने कितने जल प्रपात।
कल कल करती नदियां,
झर झर करते झरने,
लहराती बलखाती नहरें,
मन की बहारें, और कितने ही सपने।
जहां अंकुरित होते हैं
नव पुष्प,
पुष्पित पल्लवित होती हैं कामनाएं
जिंदगी महकती है, गाती है,
गुनगुनाती है, कुछ समझाती है।
इन्द्रधनुषी रंगों से
आकाश सराबोर होता है
और मन टटोलता है
प्रस्तर का अंतस।
Share Me
आंखों देखी दुनिया
कथा है
कि मिट्टी खाने पर
यशोदा ने कृष्ण को
मुँह खोलकर
दिखाने के लिए कहा था
और यशोदा ने
कृष्ण के मुँह में
ब्रह्माण्ड के दर्शन किये थे।
कुछ ऐसा ही ब्रह्माण्ड
हमारी आंखों के भीतर भी है
जिसे हम देख नहीं पाते,
किसी और को क्या दिखाना
हम स्वयं ही
समझ भी नहीं पाते।
बड़ी प्रचलित कहावत है
आंखों देखी दुनिया।
किन्तु आश्चर्य कि
हम दुनिया को
कभी भी खुली आंखों से
देख नहीं पाते।
जब भी दुनिया को समझना होता है
हम आंखें बन्द कर लेते हैं
और शिकायत करते हैं
हमारी समझ से बाहर है यह दुनिया।
Share Me
छोटी छोटी खुशियों से खुश रहती है ज़िन्दगी
बस हम समझ ही नहीं पाते
कितनी ही छोटी छोटी खुशियां
हर समय
हमारे आस पास
मंडराती रहती हैं
हमारा द्वार खटखटाती हैं
हंसाती हैं रूलाती हैं
जीवन में रस बस जाती हैं
पर हम उन्हें बांध नहीं पाते।
आैर इधर
एक आदत सी हो गई है
एक नाराज़गी पसरी रहती है
हमारे चारों ओर
छोटी छोटी बातों पर खिन्न होता है मन
रूठते हैं, बिसूरते हैं, बहकते हैं।
उसकी कमीज़ मेरी कमीज़ से उजली क्यों
उसकी रिंग टोन मेरी रिंग टोन से नई क्यों।
गर्मी में गर्मी क्यों और शीत ऋतु में ठंडक क्यों
पानी क्यों बरसा
मिट्टी क्यों महकी, रेत क्यों सूखी
बिल्ली क्यों भागी, कौआ क्यों बोला
ये मंहगाई
गोभी क्यों मंहगी, आलू क्यों सस्ता
खुशियों को पहचानते नहीं
नाराज़गी के कारण ढूंढते हैं।
चिड़चिड़ाते हैं, बड़बड़ाते हैं
अन्त में मुंह ढककर सो जाते हैं ।
और अगली सुबह
फिर वही राग अलापते हैं।
Share Me
अपना साहस परखता हूँ मैं
आसमान में तिरता हूँ मैं।
धरा को निहारता हूँ मैं।
अपना साहस परखता हूँ मैं।
मंज़िल पाने के लिए
खतरों से खेलता हूँ मैं।
यूँ भी जीवन का क्या भरोसा
लेकिन अपने भरोसे
आगे बढ़ता ही बढ़ता हूँ मैं।
हवाएँ घेरती हैं मुझे,
ज़माने की हवाओं को
परखता हूँ मैं।
साथी नहीं, हमसफ़र नहीं
अकेले ही
अपनी राहों को
तलाशता हूँ मैं।