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कर्म न करना,
परिश्रम न करना,
धर्म न निभाना
बस राम-नाम जपना।
.
आंखें बन्द कर लेने से
बिल्ली नहीं भाग जाती।
राम-नाम जपने से
समस्या हल नहीं हो जाती।
.
कुछ चरित्र हमें राह दिखाते हैं।
सन्मार्ग पर चलाते हैं।
किन्तु उनका नाम लेकर
हाथ पर हाथ धरे
बैठने को नहीं कहते हैं।
.
बुद्धि दी, समझ दी,
दी हमें निर्माण-विध्वंस की शक्ति।
दुरुपयोग-सदुपयोग हमारे हाथ में था।
.
भूलें करें हम,
उलट-पुलट करें हम,
और जब हाथ से बाहर की बात हो,
तो हे राम ! हे राम!
.
ऐसा नहीं होता मेरे मालिक।
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More Articles
अनुप्रास अलंकार छन्दमुक्त रचना
अभी भी अक्तूबर में
ठहर ठहर कर
बेमौसम बारिश।
लौट लौट कर
आती सर्दी।
और ये ओले
रात फिर रजाई बाहर आई।
धुले कपड़े धूप में सुखाये।
पर खबरों ने खराब किया मन।
बेमौसम बारिश
बरबाद कर गई फ़सलें।
किसानों को कर्ज़
चुकाने में हुई चूक।
सरकार ने सदा की तरह
वो वादे किये
जो जानते थे सब
न निभायेगी सरकार
और टीवी वाले टंकार कर रहे हैं
नेताओं के निराले वादे।
और इस बीच
कितने किसानों ने
कड़वे आंसू पीकर
कर ली अपनी जीवन लीला समाप्त।
और हमने कागज़-कलम उठा ली
किसी कविता मंच पर
कविता लिखने के लिए।
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नादानियां भी आप ही तो कर रहे हैं हम
बाढ़ की विभीषिका से देखो डर रहे हैं हम
नादानियां भी आप ही तो कर रहे हैं हम
पेड़ काटे, नदी बांधी, जल-प्रवाह रोक लिए
आफ़त के लिए सरकार को कोस रहे हैं हम
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मन के आतंक के साये में
जिन्दगी
इतनी सरल सहज भी नहीं
कि जब चाहा
उठकर चहक लिए।
एक डर, एक खौफ़
के बीच घूमता है मन।
और यह डर
हर साये में है रहता है अब।
ज़्यादा सुरक्षा में भी
असुरक्षा का
एहसास सालने लगा है अब।
संदेह की दीवारें, दरारें
बहुत बढ़ गई हैं।
अपने-पराये के बीच का भेद
अब टालने लगा है मन।
किस वेश में कौन मिलेगा
पहचान भूलता जा रहा है मन।
हाथ से हाथ मिलाकर
चलने का रास्ता भूलने लगे हैं
और अपनी अपनी राह
चलने लगे हैं हम।
और जब मन में पसरता है
अपने ही भीतर का आतंकवाद
तब अकेलापन सालता है मन।
आने वाली पीढ़ी को
अपनेपन, शांति, प्रेम, भाईचारे का
पाठ नहीं पढ़ाते हम।
सिखाते हैं उसे
जीवन में कैसे रहना है डर डर कर
अविश्वास, संदेह और बंद तालों में
उसे जीना सिखाते हैं हम।
मुठ्ठियां कस ली हैं
किसी से मिलने-मिलाने के लिए
हाथ नहीं बढ़ाते हैं हम।
बस हर समय
अपने ही मन के
आतंक के साये में जीते हें हम।
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चल न मन,पतंग बन
आकाश छूने की तमन्ना है
पतंग में।
एक पतली सी डोर के सहारे
यह जानते हुए भी
कि कट सकती है,
फट सकती है,
लूट ली जा सकती है
तारों में उलझकर रह सकती है
टूटकर धरा पर मिट्टी में मिल सकती है।
किन्तु उन्मुक्त गगन
जीवन का उत्साह
खुली उड़ान,
उत्सव का आनन्द
उल्लास और उमंग।
पवन की गति,
कुछ हाथों की यति
रंगों की मति
राहें नहीं रोकते।
* * * *
चल न मन,
पतंग बन।
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हम इंसान अजीब से असमंजस में रहते हैं
पुष्प कभी अकेले नहीं महकते,
बागवान साथ होता है।
पल्लव कभी यूं ही नहीं बहकते,
हवाएं साथ देती हैं।
चांद, तारों संग रात्रि-गमन करता है,
बादलों की घटाओं संग
बिजली कड़कती है,
तो बूंदें भी बरसती हैं।
धूप संग-संग छाया चलती है।
प्रकृति किसी को
अकेलेपन से जूझने नहीं देती।
लेकिन हम इंसान
अजीब से असमंजस में रहते हैं।
अपनों के बीच
एकाकीपन से जूझते हैं,
और अकेले में
सहारों की तलाश करने निकल पड़ते हैं।
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कुछ मीठे बोल बोलकर तो देखते
कुछ मीठे बोल
बोलकर तो देखते
हम यूं ही
तुम्हारे लिए
दिल के दरवाज़े खोल देते।
क्या पाया तुमने
यूं हमारा दिल
लहू-लुहान करके।
रिक्त मिला !
कुछ सूखे रक्त कण !
न किसी का नाम
न कोई पहचान !
-
इतना भी न जान पाये हमें
कि हम कोई भी बात
दिल में नहीं रखते थे।
अब, इसमें
हमारा क्या दोष
कि
शब्दों पर तुम्हारी
पकड़ ही न थी।
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भीड़ में अकेलापन
एक मुसाफ़िर के रूप में
कहां पूरी हो पाती हैं
जीवन भर यात्राएं
कहां कर पाते हैं
कोई सफ़र अन्तहीन।
लोग कहते हैं
अकेल आये थे
और अकेले ही जाना है
किन्तु
जीवन-यात्रा का
आरम्भ हो
या हो अन्तिम यात्रा, ं
देखती हूं
जाने-अनजाने लोगों की
भीड़,
ज़िन्दगी का फ़लसफ़ा
समझाते हुए,
जीवन-दर्शन बघारते हुए।
किन्तु इनमें से
कोई भी तो समय नहीं होता
यह सब समझने के लिए।
और जब समझने का
समय होता है
तब भीड़ में भी
अकेलापन मिलता है।
दर्शन
तब भी बघारती है भीड़
बस तुम्हारे नकारते हुए
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कड़वाहटों को बो रहे हैं हम
गत-आगत के मोह में आज को खो रहे हैं हम
जो मिला या न मिला इस आस को ढो रहे हैं हम
यहां-वहां, कहां-कहां, किस-किसके पास क्या है
इसी कशमकश में कड़वाहटों को बो रहे हैं हम
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जब टिकट किसी का कटता है
सुनते हैं कोई एक भाग्य-विधाता सबके लेखे लिखता है
अलग-अलग नामों से, धर्मों से सबके दिल में बसता है
फिर न जाने क्यों झगड़े होते, जग में इतने लफड़े होते
रह जाता है सब यहीं, जब टिकट किसी का कटता है
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हाथों में हाथ हो
जब अपनों का साथ हो
हाथों में हाथ हो
तब धरा से गगन तक
मार्ग सुगम हो जाते हैं
चांद राहें रोशन करता है
ज्वार भावनाओं का
उमड़ता है
राहों में फूल बिछते हैं
दिल से दिल मिलते हैं
-
तो तुम्हें क्या ! ! ! !