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उपवन में कुछ पत्ते संग टहनी, कुछ फूल झरे थे।
मैं चुन लाई, देखो कितने सुन्दर हैं ये, गिरे पड़े थे।
न डाली पर जायेंगे न गुलदान में अब ये सजेंगे।
एक सुन्दर सी कृति बनाई मैंने, सब देख रहे थे।
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उम्र का एक पल और पूरी ज़िन्दगी
पता ही नहीं लगा
उम्र कैसे बीत गई
अरे ! पैंसठ की हो गई मैं।
अच्छा !!
कैसे बीत गये ये पैंसठ वर्ष,
मानों कल की ही घटना हो।
स्मृतियों की छोटी-सी गठरी है
जानती हूं
यदि खोलूंगी, खंगालूंगी
इस तरह बिखरेगी
कि समझने-समेटने में
अगले पैंसठ वर्ष लग जायेंगे।
और यह भी नहीं जानती
हाथ आयेगी रिक्तता
या कोई रस।
और कभी-कभी
ऐसा क्यों होता है
कि उम्र का एक पल
पूरी ज़िन्दगी पर
भारी हो जाता है
और हम
दिन, महीने, साल,
गिनते रह जाते हैं
लगता है मानों
शताब्दियां बीत गईं
और हम
अपने-आपको वहीं खड़ा पाते हैं।
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मौसम की आहट
कुहासे की चादर ओढ़े आज सूरज देर तक सोया रहा
ढूंढती फिर रही उसे न जाने अब तक कहां खोया रहा
दे रोशनी, जीवन की आस दे, दिन का भास दे, उजास दे
आवाज़ दी मैंने उसे, उठ ज़रा अब, रात भर सोया रहा
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काश ! हम कोई शिला होते
पत्थरों में प्यार तराशते हैं
और जिह्वा को कटार बनाये घूमते हैं।
छैनी जब रूप-आकार तराशती है
तब एक संसार आकार लेता है।
तूलिका जब रंग बिखेरती है
तब इन्द्रधनुष बिखरते हैं।
किन्तु जब हम
अन्तर्मन के भावों को
रूप-आकार, रंगों का संसार
देने लगते हैं,
सम्बन्धों को तराशने लगते हैं
तब न जाने कैसे
छैनी-हथौड़े
तीखी कटार बन जाते हैं,
रंग उड़ जाते हैं
सूख जाते हैं।
काश ! हम भी
वास्तव में ही कोई शिला होते
कोई तराशता हमें,
रूप-रंग-आकार देता
स्नेह उंडेलता
कोई तो कृति ढलती,
कोई तो आकृति सजती।
कौन जाने
फिर रंग भी रंगों में आ जाते
और छैनी-हथौड़ी भी
सम्हल जाते।
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साथी तेरा प्यार
साथी तेरा प्यार
जैसे खट्टा-मीठा
मिर्ची का अचार।
कभी पतझड़
तो कभी बहार,
कभी कण्टक चुभते
कभी फूल खिलें।
कभी कड़क-कड़क
बिजली कड़के
कभी बिन बादल बरसात।
कभी नदियां उफ़ने
कभी तलछट बनते
कभी लहर-लहर
कभी भंवर-भंवर।
कभी राग बने
सुर-साज सजे
जीवन की हर तान बजे।
लुक-छिप, लुक-छिप
खेल चला
जीवन का यूं ही
मेल चला।
साथी तेरा प्यार
जैसे खट्टा-मीठा अचार।
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मुस्कानों की भाषा लिखूं
छलक-छलक-छलकती बूंदें,
मन में रस भरती बूंदें
लहर-लहर लहराता आंचल
मन हरषे जब घन बरसे
मुस्कानों की भाषा लिखूं
हवाओं संग उड़ान भरूं मैं
राग बजे और साज बजे
मन ही मन संगीत सजे
धारा संग बहती जाती
अपने में ही उड़ती जाती
कोई न रोके कोई न टोके
जीवन-भर ये हास सजे।
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दीप तले अंधेरे की बात करते हैं
सूरज तो सबका है,
सबके अंधेरे दूर करता है।
किन्तु उसकी रोशनी से
अपना मन कहां भरमाता है ।
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अपनी रोशनी के लिए,
अपने गुरूर से
अपना दीप प्रज्वलित करते है।
और अंधेरा मिटाने की बात करते हैं।
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फिर भी अक्सर
न जाने क्यों
दीप तले अंधेरे की बात करते हैं।
-
तो हिम्मत करें,
हाथ पर रखें लौ को
तब जग से
तम मिटाने की बात करते हैं।
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अरे अपने भीतर जांच
शब्दों की क्या बात करें, ये मन बड़ा वाचाल है
इधर-उधर भटकता रहता, न अपना पूछे हाल है
तांक-झांक की आदत बुरी, अरे अपने भीतर जांच
है सबका हाल यही, तभी तो सब यहां बेहाल हैं
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प्रलोभनों के पीछे भागता मन
सर्वाधिकार की चाह में बहुत कुछ खो बैठते हैं
और-और की चाह में हर सीमा तोड़ बैठते हैं
प्रलोभनों के पीछे भागता मन, वश कहां रहा
अच्छे-बुरे की पहचान भूल, अपकर्म कर बैठते हैं
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इंसानों की बस्ती
इंसानों की बस्ती में चाल चलने से पहले मात की बात होती है
इंसानों की बस्ती में मुहब्बत से पहले घृणा-भाव की जांच होती है
कोई नहीं पहचानता किसी को, कोई नहीं जानता किसी को यहाँ
इंसानों की बस्ती में अपनेपन से ज़्यादा घात लगाने की बात होती है।