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ए जी,
मुझको भी
एक साईकिल दिलवा दो न।
कार-वार का क्या करना है,
यू. पी. से दिल्ली तक
ही तो फ़र्राटे भरना है।
बस उसमें
आरक्षण का ए.सी. लगवा देना।
लुभावने वादों की
दो-चार सीटें बनवा देना।
कुछ लैपटाप लटका देना।
कुछ हवा-भवा भरवा देना।
एक-ठौं पत्रकार बिठा देना।
कुछ पूरी-भाजी बनवा देना।
हां,
एक कुर्सी ज़रूर रखवा देना,
उस पर रस्सी बंधवा देना।
और
लौटे में देर हो जाये
तो फुनवा घुमा लेना।
ए जी,
एक ठौ साईकिल दिलवा दो न।
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चिराग जलायें बैठे हैं
घनघोर अंधेरे में
जुगनुओं को जूझते देखा।
गहरे सागर में
दीपक को राह ढूंढते
तिरते देखा।
गहन अंधेरी रातों में
चांद-तारे भी
भटकते देखे मैंने,
रातों की आहट से
सूरज को भी डूबते देखा।
और हमारी
हिम्मत देखो
चिराग जलायें बैठे हैं
चलो, राह दिखाएं तुमको।
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साथ समय के चलना होगा
तुमको क्यों ईर्ष्या होती है मैंने भी आई-फोन लिया है।
साथ समय के चलना होगा इतना मैंने समझ लिया है।
चिट्ठियां-विट्ठियां पीछे छूटीं, इतना ज्ञान मिला है मुझको,
ई-मेल, फेसबुक, ट्विटर सब कुछ मैंने खोल लिया है।
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एक संस्मरण आम का अचार
आम का अचार डालना भी
एक पर्व हुआ करता था परिवार में।
आम पर बूर पड़ने से पहले ही
घर भर में चर्चा शुरू हो जाती थी।
इतनी चर्चा, इतनी बात
कि होली दीपावली पर्व भी फीके पड़ जायें।
परिवार में एक शगुन हुआ करता था
आम का अचार।
इस बार कितने किलो डालना है अचार
कितनी तरह का।
कुतरा भी डलेगा, और गुठली वाला भी
कतौंरा किससे लायेंगे
फिर थोड़ी-सी सी चटनी भी बनायेंगे।
तेल अलग से लाना होगा
मसाले मंगवाने हैं, धूप लगवानी है
पिछली बार मर्तबान टूट गया था
नया मंगवाना है।
तनाव में रहती थी मां
गर्मी खत्म होने से पहले
और बरसात शुरू होने से पहले
डालना है अचार।
और हम प्रतीक्षा करते थे
कब आयेंगे घर में अचार के आम।
और जब आम आ जाते थे घर में
सुच्चेपन का कर्फ्यू लग जाता था।
और हम आंख बचाकर
दो एक आम चुरा ही लिया करते थे
और चाहते थे कि दो एक आम
तो पके हुए निकल आयें
और हमारे हवाले कर दिये जायें।
लाल मिर्च और नमक लगाकर
धूप में बैठकर दांतों से गुठलियां रगड़ते
और मां चिल्लाती
“ओ मरी जाणयो दंद टुटी जाणे तुहाड़े”।
और जब नया अचार डल जाता था
तो पूरा घर एक आनन्द की सांस लेता था
और दिनों तक महकता था घर
और जब नया अचार डल जाता था
तब दिनों दिनों तक महकता था घर
उस खुशनुमा एहसास और खुशबू से
और जब नया अचार डल जाता था
मानों कोई किला फ़तह कर लिया जाता था।
और उस रात बड़ी गहरी नींद सोती थी मां।
अब चिन्ता शुरू हो जाती थी
खराब न हो जाये
रोज़ धूप लगवानी है
सीलन से बचाना है
तेल डलवाना है।
फिर पता नहीं किस जादुई कोने से
पिछले साल के अचार का एक मर्तबान
बाहर निकल आता था।
मां खूब हंसती तब
छिपा कर रख छोड़ा था
आने जाने वालों के लिए
तुम तो एक गुठली नहीं छोड़ते।
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ब्लॉक
कब सालों-साल बीत गये
पता ही नहीं लगा
जीवन बदल गया
दुनिया बदल गई
और मैं
वहीं की वहीं खड़ी
तुम्हारी यादों में।
प्रतिदिन
एक पत्र लिखती
और नष्ट कर देती।
अक्सर सोचा करती थी
जब मिलोगे
तो यह कहूँगी
वह कहूँगी।
किन्तु समय के साथ
पत्र यादों में रहने लगे
स्मृतियाँ धुँधलाने लगी
और चेहरा मिटने लगा।
पर उस दिन फ़ेसबुक पर
अनायास तुम्हारा चेहरा
दमक उठा
और मैं
एकाएक
लौट गई सालों पीछे
तुम्हारे साथ।
खोला तुम्हारा खाता
और चलाने लगी अंगुलियाँ
भावों का बांध
बिखरने लगा
अंगुलियाँ कंपकंपान लगीं
क्या कर रही हूँ मैं।
इतने सालों बाद
क्या लिखूँ अब
ब्लॉक का बटन दबा दिया।
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आंसू और हंसी के बीच
यूं तो राहें समतल लगती हैं, अवरोध नहीं दिखते।
चलते-चलते कंकड़ चुभते हैं, घाव कहीं रिसते।
कभी तो बारिश की बूंदें भी चुभ जाया करती हैं,
आंसू और हंसी के बीच ही इन्द्रधनुष देखे खिलते।
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कभी कांटों को सहेजकर देखना
फूलों का सौन्दर्य तो बस क्षणिक होता है
रस रंग गंध सबका क्षरण होता है
कभी कांटों को सहेजकर देखना
जीवन भर का अक्षुण्ण साथ होता है
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बसन्त
आज बसन्त मुझे
कुछ उदास लगा
रंग बदलने लगे हैं।
बदलते रंगों की भी
एक सुगन्ध होती है
बदलते भावों के साथ
अन्तर्मन को
महका-महका जाती है।
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जब तक जीवन है मस्ती से जिये जाते हैं
कितना अद्भुत है यह गंगा में पाप धोने, डुबकी लगाने जाते हैं।
कितना अद्भुत है यह मृत्योपरान्त वहीं राख बनकर बह जाते हैं।
कितने सत्कर्म किये, कितने दुष्कर्म, कहां कर पाता गणना कोई।
पाप-पुण्य की चिन्ता छोड़, जब तक जीवन है, मस्ती से जिये जाते हैं।
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बूंद-बूंद से घट भरता था
जिन ढूंढा तिन पाईया
गहरे पानी पैठ,
बात पुरानी हो गई।
आंख में अब
पानी कहां रहा।
मन की सीप फूट गई।
दिल-सागर-नदिया
उथले-उथले हो गये।
तलछट में क्या ढूंढ रहे।
बूंद-बूंद से घट भरता था।
जब सीपी पर गिरती थी,
तब माणिक-मोती ढलता था।
अब ये कैसा मन है
या तो सब वीराना
सूखा-सूखा-सा रहता है,
और जब मन में
कुछ फंसता है,
तो अतिवृष्टि
सब साथ बहा ले जाती है,
कुछ भी तो नहीं बचता है।
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कल्पना में कमाल देखिए
मन में एक भाव-उमंग, तिरंगे की आन देखिए
रंगों से सजता संसार, कल्पना में कमाल देखिए
घर-घर लहराये तिरंगा, शान-आन और बान से
न सही पताका, पर पताका का यहाँ भाव देखिए