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एक फूल झरा।
सबने देखा
रोज़ झरता था एक फूल
देखने के लिए ही
झरता थी फूल।
सबने देखा
और चले गये।
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दिल आजमाने में लगे हैं
अब गुब्बारों में दिल सजाने लगे हैं
उनकी कीमत हम लगाने लगे हैं
पांच-सात रूपये में ले जाईये मनचाहे
फुलाईये, फोड़िए
या यूं ही समय बिताने में लगे हैं
मायूसे दिल की ओर तो कोई देखता ही नहीं
सोने चांदी के भाव अब लगाने लगे हैं
दिल कहां, दिलदार कहां अब
बातें करते बहुत
पर असल ज़िन्दगी में टांके लगाने लगे हैं
कुछ तुम दीजिए, कुछ हमसे लीजिए
पर न फोड़ना इस दिल को
न काटना इसे
असलियत निकल आयेगी
न खून बहेगा, न आस आहें भरेंगी
बस रोंआ-रोंआ बिखरेगा
सरकार ने प्लास्टिक बन्द कर दिया है
बस इतनी सी बात हम बताने में लगे हैं
समझ आया हो कुछ, तो ठीक
नहीं तो हम
कहीं और दिल आजमाने में लगे हैं।
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2008 में नयना देवी मन्दिर में हुआ हादसा
नैना देवी में हादसा हुआ। श्रावण मेला था। समाचारों की विश्वसनीयता के अनुसार वहां लगभग बीस हज़ार लोग उपस्थित थे। पहाड़ी स्थान। उबड़-खाबड़, टेढ़े-मेढ़े संकरे रास्ते। सावन का महीना। मूसलाधार बारिष। ऐसी परिस्थितियों में एक हादसा हुआ। क्यों हुआ कोई नहीं जानता। कभी जांच समिति की रिपोर्ट आयेगी तब भी किसी को पता नहीं लगेगा।
किन्तु जैसा कि कहा गया कि शायद कोई अफवाह फैली कि पत्थर खिसक रहे हैं अथवा रेलिंग टूटी। यह भी कहा गया कि कुछ लोगों ने रेंलिंग से मन्दिर की छत पर चढ़ने का प्रयास किया तब यह हादसा हुआ।
किन्तु कारण कोई भी रहा हो, हादसा तो हो ही गया। वैसे भी ऐसी परिस्थ्तिियों मंे हादसों की सम्भावनाएं बनी ही रहती हैं। किन्तु ऐसी ही परिस्थितियों में आम आदमी की क्या भूमिका हो सकती है अथवा होनी चाहिए। जैसा कि कहा गया वहां बीस हज़ार दर्शनार्थी थे। उनके अतिरिक्त स्थानीय निवासी, पंडित-पुजारी; मार्ग में दुकानें-घर एवं भंडारों आदि में भी सैंकड़ों लोग रहे होंगे। बीस हज़ार में से लगभग एक सौ पचास लोग कुचल कर मारे गये और लगभग दो सौ लोग घायल हुए। अर्थात् उसके बाद भी वहां सुरक्षित बच गये लगभग बीस हज़ार लोग थे। किन्तु जैसा कि ऐसी परिस्थितियों में सदैव होता आया है उन हताहत लोगों की व्यवस्था के लिए पुलिस नहीं आई, सरकार ने कुछ नहीं किया, व्यवस्था नहीं थी, चिकित्सा सुविधाएं नहीं थीं, सहायता नहीं मिली, जो भी हुआ बहुत देर से हुआ, पर्याप्त नहीं हुआ, यह नहीं हुआ, वह नहीं हुआ; आदि -इत्यादि शिकायतें समाचार चैनलों, समाचार-पत्रों एवं लोगों ने की।
किन्तु प्रश्न यह है कि हादसा क्यों हुआ और हादसे के बाद की परिस्थितियों के लिए कौन उत्तरदायी है ?
निश्चित रूप से इस हादसे के लिए वहां उपस्थित बीस हज़ार लोग ही उत्तरदायी हैं। यह कोई प्राकृतिक हादसा नहीं था, उन्हीं बीस हज़ार लोगों द्वारा उत्पे्ररित हादसा था यह। लोग मंदिरों में दर्शनों के लिए भक्ति-भाव के साथ जाते हैं। सत्य, ईमानदारी, प्रेम, सेवाभाव का पाठ पढ़ते हैं। ढेर सारे मंत्र, सूक्तियां, चालीसे, श्लोक कंठस्थ होते हैं। किन्तु ऐसी ही परिस्थितियों में सब भूल जाते हैं। ऐसे अवसरों पर सब जल्दी में रहते हैं। कोई भी कतार में, व्यवस्था में बना रहना नहीं चाहता। कतार तोड़कर, पैसे देकर, गलत रास्तों से हम लोग आगे बढ़ने का प्रयास करते हैं। जहां दो हज़ार का स्थान है वहां हम बीस हज़ार या दो लाख एकत्र हो जाते हैं फिर कहते हैं हादसा हो गया। सरकार की गलती है, पुलिस नहीं थी, व्यवस्था नहीं थी। सड़कें ठीक नहीं थीं। अब सरकार को चाहिए कि नैना देवी जैसे पहाड़ी रास्तों पर राजपथ का निर्माण करवाये। किन्तु इस चर्चा से अधिक महत्वपूर्ण यह है कि जो 150 लोग मारे गये और दो सौ घायल हुए उन्हें किसने मारा और किसके कारण ये लोग घायल हुए? निश्चय ही वहां उपस्थित बीस हज़ार लोग ही इन सबकी मौत के अपराधी हैं। उपरान्त हादसे के सब लोग एक-दूसरे को रौंदकर घर की ओर जान बचाकर भाग चले। किसी ने पीछे मुड़कर नहीं देखा कि उन्होंने किसके सिर अथवा पीठ पर पैर रखकर अपनी जान बचाई है। सम्भव है अपने ही माता-पिता, भाई-बहन अथवा किसी अन्य परिचित को रौंदकर ही वे अपने घर सुरक्षित पहुंचे हों। जो गिर गये उन्हें किसी ने नहीं उठाया क्योंकि यह तो सरकार का, पुलिस का, स्वयंसेवकों का कार्य है आम आदमी का नहीं, हमारा-आपका नहीं। हम-आप जो वहां बीस हज़ार की भीड़ के रूप में उपस्थित थे किसी की जान बचाने का, घायल को उठाने का, मरे को मरघट पंहुचाने का हमारा दायित्व नहीं है। हम भीड़ बनकर किसी की जान तो ले सकते हेैं किन्तु किसी की जान नहीं बचा सकते। आग लगा सकते हैं, गाड़ियां जला सकते हैं, हत्या कर सकते हैं, बलात्कार ओैर लूट-पाट कर सकते हैं किन्तु उन व्यवस्थाओं एवं प्रबन्धनों में हाथ नहीं बंटा सकते जहां होम करते हाथ जलते हों। जहां कोई उपलब्धि नहीं हैं वहां कुछ क्यों किया जाये।
भंडारों में लाखों रुपये व्यय करके, देसी घी की रोटियां तो खिला सकते हैं, करोड़ों रुपयों की मूर्तियां-छत्र, सिंहासन दान कर सकते हैं किन्तु ऐसे भीड़ वाले स्थानों पर होने वाली आकस्मिक दुर्घटनाओं से निपटने के लिए आपदा-प्रबन्धन में अपना योगदान देने में हम कतरा जाते हैं। धर्म के नाम पर दान मांगने वाले प्रायः आपका द्वार खटखटाते होंगे, मंदिरों के निर्माण के लिए, भगवती जागरण, जगराता, भंडारा, राम-लीला के लिए रसीदें काट कर पैसा मांगने में युवा से लेकर वृद्धों तक को कभी कोई संकोच नहीं होता, किन्तु किसी अस्पताल के निर्माण के लिए, शिक्षा-संस्थानों हेतु, भीड़-भीड़ वाले स्थानों पर आपातकालीन सेवाओं की व्यवस्था हेतु एक आम आदमी का तो क्या किसी बड़ी से बड़ी धार्मिक संस्था को भी कभी अपना महत्त योगदान प्रदान करते कभी नहीं देखा गया। किसी भी मन्दिर की सीढ़ियां चढ़ते जाईये और उस सीढ़ी पर किसी की स्मृति में बनवाने वाले का तथा जिसके नाम पर सीढ़ी बनवाई गई है, का नाम पढ़ते जाईये। ऐसे ही कितने नाम आपको द्वारों, पंखों, मार्गों आदि पर उकेरित भी मिल जायेंगे। किन्तु मैंने आज तक किसी अस्पताल अथवा विद्यालय में इस तरह के दानी का नाम नहीं देखा।
हम भीड़ बनकर तमाशा बना कते हैं, तमाशा देख सकते हैं, तमाशे में किसी को झुलसता देखकर आंखें मूंद लेते हैं क्योंकि यह तो सरकार का काम है।
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अवसर है अकेलापन अपनी तलाश का
एक सपने में जीती हूं,
अंधेरे में रोशनी ढूंढती हूं।
बहारों की आस में,
कुछ पुष्प लिए हाथ में,
दिन-रात को भूलती हूं।
काल-चक्र घूमता है,
मुझसे कुछ पूछता है,
मैं कहां समझ पाती हूं।
कुछ पाने की आस में
बढ़ती जाती हूं।
गगन-धरा पुकारते हैं,
कहते हैं
चलते जाना, चलते जाना
जीवन-गति कभी ठहर न पाये,
चंदा-सूरज से सीख लेना
तारों-सा टिमटिमाना,
अवसर है अकेलापन
अपनी तलाश का ,
अपने को पहचानने का,
अपने-आप में
अपने लिए जीने का।
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भीड़-तन्त्र
आज दो किस्से हुए।
एक भीड़-तन्त्र स्वतन्त्र हुआ।
मीनारों पर चढ़ा आदमी
आज मस्त हुआ।
28 वर्ष में घुटनों पर चलता बच्चा
युवा हो जाता है,
अपने निर्णय आप लेने वाला।
लेकिन उस भीड़-तन्त्र को
कैसे समझें हम
जो 28 वर्ष पहले दोषी करार दी गई थी।
और आज पता लगा
कितनी निर्दोष थी वह।
हम हतप्रभ से
अभी समझने की कोशिश कर ही रहे थे,
कि ज्ञात हुआ
किसी खेत में
एक मीनार और तोड़ दी
किसी भीड़-तन्त्र ने।
जो एक लाश बनकर लौटी
और आधी रात को जला दी गई।
किसी और भीड़-तन्त्र से बचने के लिए।
28 वर्ष और प्रतीक्षा करनी पड़ेगी।
यह जानने के लिए
कि अपराधी कौन था,
भीड़-तन्त्र तो आते-जाते रहते हैं,
परिणाम कहां दे पाते हैं।
दूध की तरह उफ़नते हैं ,
और बह जाते हैं।
लेकिन कभी-कभी
रौंद भी दिये जाते हैं।
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ज़िन्दगी के गीत
ज़िन्दगी के कदमों की तरह
बड़ा कठिन होता है
सितार के तारों को साधना।
बड़ा कठिन होता है
इनका पेंच बांधना।
यूँ तो मोतियों के सहारे
बांधी जाती हैं तारें
किन्तु ज़रा-सा
ढिलाई या कसाव
नहीं सह पातीं
जैसे प्यार में ज़िन्दगी।
मंद्र, मध्य, तार सप्तक की तरह
अलग-अलग भावों में
बहती है ज़िन्दगी।
तबले की थाप के बिना
नहीं सजते सितार के सुर
वैसे ही अपनों के साथ
उलझती है जिन्दगी
कभी भागती, कभी रुकती
कभी तानें छेड़ती,
राग गाती,
झाले-सी दनादन बजती,
लड़ती-झगड़ती
मन को आनन्द देती है ज़िन्दगी।
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बनती रहती हैं गांठें बूंद-बूंद
कहां है अपना वश !
कब के रूके
कहां बह निकलेगें
पता नहीं।
चोट कहीं खाई थी,
जख्म कहीं था,
और किसी और के आगे
बिखर गये।
सबने अपना अपना
अर्थ निकाल लिया।
अब
क्या समझाएं
किस-किसको
क्या-क्या बताएं।
तह-दर-तह
बूंद-बूंद
बनती रहती हैं गांठें
काल की गति में
कुछ उलझी, कुछ सुलझी
और कुछ रिसती
बस यूं ही कह बैठी,
जानती हूं वैसे
तुम्हारी समझ से बाहर है
यह भावुकता !!!
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हरपल बदले अर्थ यहाँ
शब्दों के अब अर्थ कहाँ, सब कुछ लगता व्यर्थ यहाँ
कहते कुछ हैं, करते कुछ है, हरपल बदले अर्थ यहाँ
भाव खो गये, नेह नहीं, अपनेपन की बात नहीं अब
किसको मानें, किसे मनायें, इतनी अब सामर्थ्य कहाँ
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छोड़ दो अब मुफ्त की बात
क्या तुम्हारी शिक्षा
क्या आयु
कितनी आय
कौन-सी नौकरी
कौन-सा आरक्षण
और इस सबका क्या आधार ?
अनुत्तरित हैं सब प्रश्न।
यह कौन सी आग है
जो अपने-आप को ही जला रही है।
कैसे भूल सकते हैं हम
तिनका-तिनका जोड़कर
बनता है एक घरौंदा।
शताब्दियों से लूटे जाते रहे हम
आततायियों से।
जाने कहां से आते थे
और देश लूटकर चले जाते थे,
अपनों से ही युद्धों में
झोंक दिये जाते थे हम।
कैसे निकले उस सबसे बाहर
फिर शताब्दियां लग गईं,
कैसे भूल सकते हैं हम।
और आज !
अपना ही परिश्रम,
अपनी ही सम्पत्ति
अपना ही घर फूंक रहे हैं हम।
अपने ही भीतर
आततायियों को पाल रहे हैं हम।
किसके झांसे में आ गये हैं हम।
न शिक्षा चाहिए
न विकास, न उद्यम।
खैरात में मिले, नाम बाप के मिले
एक नौकरी सरकारी
धन मिले, घर मिले,
अपना घर फूंककर मिले,
मरे की मिले
या जिंदा दफ़न कर दें तो मिले
लाश पर मिले, श्मशान में मिले
कफ़न बेचकर मिले
बस मुफ्त की मिले
बस जो भी मिले, मुफ्त ही मिले
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दौड़ बनकर रह गई है जिन्दगी
शून्य से शतक तक की दौड़ बनकर रह गई है जिन्दगी
इससे आगे और क्या इस सोच में बह रही है जिन्दगी
और–और मिलने की चाह में डर डर कर जीते हैं हम
एक से निन्यानवे तक भी आनन्द ले, कह रही है जिन्दगी
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करते रहते हैं बातें
बढ़ती आबादी को रोक नहीं पाते
योजनाओं पर अरबों खर्च कर जाते
शिक्षा और जानकारियों की है कमी
बैठे-बैठे बस करते रहते हैं हम बातें