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रोशनियों को चुराकर चला हूँ,
सिर पर उठाकर चला हूँ।
जब जहां अवसर मिलेगा
रोश्नियां बिखेरने का
वादा करके चला हूँ।
अंधेरों की आदत बनने लगी है,
उनसे दो-दो हाथ करने चला हूँ।
जानता हूं, है कठिन मार्ग
पर अकेल ही अकेले चला हूँ।
दूर-दूर तक
न राहें हैं, न आसमां, न जमीं,
सब तलाशने चला हूं।
ठोकरों की तो आदत हो गई है,
राहों को समतल बनाने चला हूँ।
कोई तो मिलेगा राहों में,
जो संग-संग चलेगा,
साथ उम्मीद की, हौंसलों की भी
एक किरण लेकर चला हूँ।
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ठिठुरी ठिठुरी धूप है कुहासे से है लड़ रही
ठिठुरी ठिठुरी धूप है, कुहासे से है लड़ रही
भाव भी हैं सो रहे, कलम हाथ से खिसक रही
दिन-रात का भाव एकमेक हो रहा यहां देखो
कौन करे अब काम, इस बात पर चर्चा हो रही
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निरभिलाष कर्म का संदेश दिया था
माखन की हांडी ले बैठे रहना हर युग में, ऐसा मैंने कब बोला था
बस राधे राधे रटते रहना हर युग में, ऐसा मैंने कब बोला था
निरभिलाष कर्म का संदेश दिया था गीता में उसको कैसे भूले तुम
पत्थर गढ़ गढ़ मठ मन्दिर में बैठे रहना, ऐसा मैंने कब बोला था
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ज़िन्दगी की पथरीली राहों में
सुना था
पत्थरों में फूल खिलते हैं,
किन्तु यह लिखते समय
यह क्यों नहीं याद रहता
कि फूलों से ही
फल मिलते हैं।
ज़िन्दगी की
पथरीली राहों में,
कांटों से उलझकर,
मिट्टी से सुलझकर,
बस फूल खिलते रहें,
फल ज़रूर मिलेंगें।
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रंग-बिरंगी आभा लेकर
काली-काली घनघोर घटाएं, बिजुरी चमके, मन बहके
झर-झर-झर बूंदें झरतीं, चीं-चीं-चीं-चीं चिड़िया चहके
पीछे से कहीं आया इन्द्रधनुष रंग-बिरंगी आभा लेकर
मदमस्त पवन, धरा निखरी, उपवन देखो महके-महके
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तेरा ख़याल
उदास कर जाता है तेरा ख़याल
यादों में ले जाता है तेरा ख़याल
यूँ लगता है मानों युग बीत गये
मिलन की आस है तेरा ख़याल
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झूठे मुखौटे मत चढ़ा
झूठे मुखौटे मत चढ़ा।
असली चेहरा दुनिया को दिखा।
मन के आक्रोश पर आवरण मत रख।
जो मन में है
उसे निडर भाव से प्रकट कर।
यहां डर से काम नहीं चलता।
वैसे भी हंसी चेहरे,
और चेहरे पर हंसी,
लोग ज़्यादा नहीं सह पाते।
इससे पहले
कि कोई उतारे तुम्हारा मुखौटा,
अपनी वास्तविकता में जीओ,
अपनी अच्छाईयों-बुराईयों को
समभाव से समझकर
जीवन का रस पीओे।
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समझे बैठे हैं यहां सब अपने को अफ़लातून
जि़न्दगी बिना जोड़-जोड़ के कहां चली है
करता सब उपर वाला हमारी कहां चली है
समझे बैठे हैं यहां सब अपने को अफ़लातून
इसी मैं-मैं के चक्कर में सबकी अड़ी पड़ी है
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त्रिवेणी विधा में रचना २
चेहरे अब अपने ही चेहरे पहचानते नहीं
मोहरे अब चालें चलना जानते ही नहीं
रीति बदल गई है यहां प्रहार करने की
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एक साईकिल दिलवा दो न
ए जी,
मुझको भी
एक साईकिल दिलवा दो न।
कार-वार का क्या करना है,
यू. पी. से दिल्ली तक
ही तो फ़र्राटे भरना है।
बस उसमें
आरक्षण का ए.सी. लगवा देना।
लुभावने वादों की
दो-चार सीटें बनवा देना।
कुछ लैपटाप लटका देना।
कुछ हवा-भवा भरवा देना।
एक-ठौं पत्रकार बिठा देना।
कुछ पूरी-भाजी बनवा देना।
हां,
एक कुर्सी ज़रूर रखवा देना,
उस पर रस्सी बंधवा देना।
और
लौटे में देर हो जाये
तो फुनवा घुमा लेना।
ए जी,
एक ठौ साईकिल दिलवा दो न।
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अपनी राहों पर अपने हक से चला मैं
रोशनी से
बात करने चला मैं।
सुबह-सवेरे
अपने से चला मैं।
उगते सूरज को
नमन करने चला मैं।
न बदला सूरज
न बदली उसकी आब,
तो अपनी राहों पर
यूं ही बढ़ता चला मैं।
उम्र यूं ही बीती जाती
सोचते-सोचते
आगे बढ़ता चला मैं।
धूल-धूसरित राहें
न रोकें मुझे
हाथ में लाठी लिए
मनमस्त चला मैं।
साथ नहीं मांगता
हाथ नहीं मांगता
अपने दम पर
आज भी चला मैं।
वृक्ष भी बढ़ रहे,
शाखाएं झुक रहीं
छांव बांटतीं
मेरा साथ दे रहीं।
तभी तो
अपनी राहों पर
अपने हक से चला मैं।