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हर रोज़ एक नई कथा पढ़ाती है जिन्दगी
हर दिन एक नई आस लाती है ज़िन्दगी
कभी हंसाती-रूलाती-जताती है ज़िन्दगी
हर दिन एक नई राह दिखाती है ज़िन्दगी
कदम दर कदम नई आस दिलाती है जिन्दगी
घनघोर घटाओं में भी धूप दिखाती है जिन्दगी
कभी बादलों में कड़कती-चमकती-सी है ज़िन्दगी
कुछ पाने के लिए निरन्तर भगाती है जिन्दगी
भोर से शाम तक देखो जगमगाती है जिन्दगी
झड़ी में भी कभी-कभी धूप दिखाती है जिन्दगी
कभी आशाओं का सागर लहराती है जिन्दगी
और कभी कभी खूब धमकाती भी है जिन्दगी
तब दांव पर पूरी लगानी पड़ती है जिन्दगी
यूं ही तो नहीं आकाश दिला देती है जिन्दगी
पर कुल मिलाकर देखें तो एक उपहार है ज़िन्दगी
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त्रिवेणी विधा में रचना
दर्पण में अपने ही चेहरे को देखकर मुस्कुरा देती हूं
फिर उसी मुस्कान को तुम्हारे चेहरे पर लगा देती हूं
पर तुम कहां समझते हो मैंने क्या कहा है तुमसे
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शांति बनाये रखने के लिए
अक्सर मुझे
बहुत-सी बातें
समझ नहीं आतीं।
विश्व शांति चाहता है
हर देश चाहता है
कि युद्ध न हों
सब अपने-आपमें
स्वतन्त्र-प्रसन्न रहें।
किन्तु
इस शांति को
बनाये रखने के लिए
भूख, ग़रीबी, शिक्षा
और रोज़गार को पीछे छोड़,
बनाने पड़ते हैं
अरबों-खरबों के
अस्त्र-शस्त्र
लाखों की संख्या में
तैयार किये जाते हैं सैनिक
सीमाएँ बांधी जाती हैं
समझौते किये जाते हैं
मीलों-मील दूर बैठे
निशाने बांध लिए जाते हैं।
जब हम
शांति के लिए
इतनी तैयारी करते हैं
तो युद्ध क्यों हो जाते हैं?
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अपनी कमज़ोरियों को बिखेरना मत
ज़रा सम्हलकर रहना,
अपनी पकड़ बनाकर रखना।
मन की सीमाओं पर
प्रहरी बिठाकर रखना।
मुट्ठियां बांधकर रखना।
भौंहें तानकर रखना।
अपनी कमज़ोरियों को
मंच पर
बिखेरकर मत रखना।
मित्र हो या शत्रु
नहीं पहचान पाते,
जब तक
ठोकर नहीं लगती।
फिर आंसू मत बहाना,
कि किसी ने धोखा दिया,
या किया विश्वासघात।
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गांधी जी ने ऐसा तो नहीं कहा था
गांधी जी को तो
गोली मार दी गई।
वे चले गये।
किन्तु उनके तीन बन्दर
यहीं रह गये
आंख, कान, मुंह बन्द किये।
आज उनकी संतति
पीढ़ी दर पीढ़ी
यूं ही आंख, कान, मुंह
बन्द किये बैठी है,
तीन हिस्सों में बंटी
गांधी जी ने
ऐसा तो नहीं कहा था।
किन्तु, यही है सत्य।
जो सुनते-देखते हैं वे बोलते नहीं,
जो बोलते-देखते हैं, वे सुनते नहीं
जो बोलते-सुनते हैं, वे देखते नहीं।
फिर कहते हैं
इस देश में कुछ बदल क्यों नहीं रहा !!!!!
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यह जिजीविषा की विवशता है
यह जिजीविषा की विवशता है
या त्याग-तपस्या, ज्ञान की सीढ़ी
जीवन से विरक्तता है
अथवा जीवित रहने के लिए
दुर्भाग्य की सीढ़ी।
ज्ञान-ध्यान, धर्म, साधना संस्कृति,
साधना का मार्ग है
अथवा ढकोसलों, अज्ञान, अंधविश्वासों को
व्यापती एक पाखंड की पीढ़ी।
या एकाकी जीवन की
विडम्बानाओं को झेलते
भिक्षा-वृत्ति के दंश से आहत
एक निरूपाय पीढ़ी।
लाखों-करोड़ों की मूर्तियां बनाने की जगह
इनके लिए एक रैन-बसेरा बनवा दें
हर मन्दिर के किसी कोने में
इनके लिए भी एक आसन लगवा दें।
कोई न कोई काम तो यह भी कर ही देंगे
वहां कोई काम इनको भी दिलवा दें,
इस आयु में एक सम्मानजनक जीवन जी लें
बस इतनी सी एक आस दिलवा दें।
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अपने मन के संतोष के लिए
न सम्मान के लिए, न अपमान के लिए
कोई कर्म न कीजिए बस बखान के लिए
अपनी-अपनी सोच है, अपनी-अपनी राय
करती हूं बस अपने मन के संतोष के लिए
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गरीबी हटाओ देश बढ़ाओ
पिछले बहत्तर साल से
देश में
योजनाओं की भरमार है
धन अपार है।
मन्दिर-मस्जिद की लड़ाई में
धन की भरमार है।
चुनावों में अरबों-खरबों लुट गये
वादों की, इरादों की ,
किस्से-कहानियों की दरकार है।
खेलों के मैदान पर
अरबों-खरबों का
खिलवाड़ है।
रोज़ पढ़ती हूं अखबार
देर-देर तक सुनती हूं समाचार।
गरीबी हटेगी, गरीबी हटेगी
सुनते-सुनते सालों निकल गये।
सुना है देश
विकासशील से विकसित देश
बनने जा रहा है।
किन्तु अब भी
गरीब और गरीबी के नाम पर
खूब बिकते हैं वादे।
वातानूकूलित भवनों में
बन्द बोतलों का पानी पीकर
काजू-मूंगफ़ली टूंगकर
गरीबी की बात करते हैं।
किसकी गरीबी,
किसके लिए योजनाएं
और किसे घर
आज तक पता नहीं लग पाया।
किसके खुले खाते
और किसे मिली सहायता
आज तक कोई बता नहीं पाया।
फिर वे
अपनी गरीबी का प्रचार करते हैं।
हम उनकी फ़कीरी से प्रभावित
बस उनकी ही बात करते हैं।
और इस चित्र को देखकर
आहें भरते हैं।
क्योंकि न वे कुछ करते हैं।
और न हम कुछ करते हैं।
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रंगों में बहकता है
यह अनुपम सौन्दर्य
आकर्षित करता है,
एक लम्बी उड़ान के लिए।
रंगों में बहकता है
किसी के प्यार के लिए।
इन्द्रधनुष-सा रूप लेता है
सौन्दर्य के आख्यान के लिए।
तरू की विशालता
संवरती है बहार के लिए।
दूर-दूर तम फैला शून्य
समझाता है एक संवाद के लिए।
परिदृश्य से झांकती रोशनी
विश्वास देती है एक आस के लिए।
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प्रकृति है जीवन सौन्दर्य
रक्त पीत वर्ण में बासंती बयार फ़लक है।
आकर्षित करता तुम्हारा रूप दृष्टि ललक है।
न जाने कब छा जायें घटाएं, बदले मौसम,
जीवन के सौन्दर्य की यह बस एक झलक है।
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कहां गये वे नेता -वेत्ता
कहां गये वे नेता -वेत्ता
चूल्हे बांटा करते थे।
किसी मंच से हमारी रोटी
अपने हित में सेंका करते थे।
बड़े-बड़े बोल बोलकर
नोटों की गिनती करते थे।
झूठी आस दिलाकर
वोटों की गिनती करते थे।
उन गैसों को ढूंढ रहे हम
किसी आधार से निकले थे,
कोई सब्सिडी, कोई पैसा
चीख-चीख कर हमको
मंचों से बतलाया करते थे।
वे गैस कहां जल रहे
जो हमारे नाम से लूटे थे।
बात करें हैं गांव-गांव की
पर शहरों में ही जाया करते थे।
आग कहीं भीतर जलती है
चूल्हे में जलता है दिल
अब हमको भरमाने को
कला, संस्कृति, परम्परा,
मां की बातें करते हैं।
सबको चाहे नया-नया,
मेरे नाम पर लीपा-पोती।
पंचतारा में भोजन करते
मुझको कहते चूल्हे में जा।