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शब्दों को बदल देने की
कला जानती हूं,
अपनी अभिव्यक्ति को
अनभिव्यक्ति बनाने की
कला जानती हूं ।
पर इन आंखों का क्या करूं
जो सदैव
सही समय पर
धोखा दे जाती हैं।
रोकने पर भी
न जाने
क्या-क्या कह जाती हैं।
जहां चुप रहना चाहिए
वहां बोलने लगती हैं
और जहां बोलना चाहिए
वहां
उठती-गिरती, इधर-उधर
ताक-झांक करती
धोखा देकर ही रहती हैं।
और कुछ न सूझे तो
गंगा-यमुना बहने लगती है।
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काश! यह दुनिया कोई सपना होती
काश!
यह दुनिया कोई सपना होती,
न तेरी होती न मेरी होती।
न किस्से होते
न कोई कहानी होती।
न झगड़ा, न लफ़ड़ा।
न मेरा न तेरा,
ये दुनिया कितनी अच्छी होती।
न जात-पात,
न धर्म-कर्म, न भेद-भाव।
आकाश भी अपना,
जमीन भी अपनी होती,
बहक-बहक कर,
चहक-चहक कर,
दिन-भर मीठे गीत सुनाते।
रात-रात भर
तारों संग
टिम-टिम-टिम-टिम घूमा करते,
सबका अपना चंदा होता,
चांदनी से न कोई शिकायत होती।
सब कुछ अपना-अपना लगता।
काश!
यह दुनिया कोई सपना होती,
न तेरी होती न मेरी होती।
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कुछ सपने बोले थे कुछ डोले थे
कागज की कश्ती में
कुछ सपने थे
कुछ अपने थे
कुछ सच्चे, कुछ झूठ थे
कुछ सपने बोले थे
कुछ डोले थे
कुछ उलझ गये
कुछ बिखर गये
कुछ को मैंने पानी में छोड़ दिया
कुछ को गठरी में बांध लिया
पानी में कश्ती
इधर-उधर तिरती
हिलती
हिचकोले खाती
कहती जाती
कुछ टूटेंगे
कुछ नये बनेंगे
कुछ संवरेंगे
गठरी खुल जायेगी
बिखर-बिखर जायेगी
डरना मत
फिर नये सपने बुनना
नई नाव खेना
कुछ नया चुनना
बस तिरते रहना
बुनते रहना
बहते रहना
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और भी ग़म हैं मुहब्बत के सिवा
समझ नहीं पाते हैं
कि धरा पर
ये कैसे प्राणी रहते हैं
ज़रा-सा पास-पास बैठे देखा नहीं
कि इश्क, मुहब्ब्त, प्यार के
चर्चे होने लगते हैं।
तोता-मैना
की कहानियां बनाने लगते हैं।
अरे !
क्या तुम्हारे पास नहीं हैं
जिन्दगी के और भी मसले
जिन्हें सुलझाने के लिए
कंधे से कंधा मिलाकर चलना पड़ता है,
सोचना-समझना पड़ता है।
देखो तो,
मौसम बदल रहा है
निकाल रहे हो न तुम
गर्म कपड़े, रजाईयां-कम्बल,
हमें भी तो नया घोंसला बनाना है,
तिनका-तिनका जमाना है,
सर्दी भर के लिए भोजन जुटाना है।
बच्चों को उड़ना सिखाना है,
शिकारियों से बचना बताना है।
अब
हमारी जिन्दगी के सारे फ़लसफ़े तो
तुम्हारी समझ में आने से रहे।
गालिब ने कहा था
ज़माने में
और भी ग़म हैं मुहब्बत के सिवा
और
इश्क ने ग़ालिब निकम्मा कर दिया
बस इतना ही समझाना है !!!!
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जीवन संवर जायेगा
जब हृदय की वादियों में
ग्रीष्म ऋतु हो
या हो पतझड़,
या उलझे बैठे हों
सूखे, सूनेपन की झाड़ियों में,
तब
प्रकृति के
अपरिमित सौन्दर्य से
आंखें दो-चार करना,
फिर देखना
बसन्त की मादक हवाएँ
सावन की झड़ी
भावों की लड़ी
मन भीग-भीग जायेगा
अनायास
बेमौसम फूल खिलेंगे
बहारें छायेंगी
जीवन संवर जायेगा।
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मन की बगिया महक रही देखो मैं बहक रही
फुलवारी में फूल खिले हैं मन की बगिया भी महक रही
पेड़ों पर बूर पड़े,कलियों ने करवट ली,देखो महक रहीं
तितली ने पंख पसारे,फूलों से देखो तो गुपचुप बात हुई
अन्तर्मन में चाहत की हूक उठी, देखो तो मैं बहक रही
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मैं उपवास नहीं करती
मैं उपवास नहीं करती।
वह वाला
उपवास नहीं करती
जिसमें बन्धन हो।
मैंने देखा है
जो उपवास करते हैं
सारा दिन
ध्यान रहता है
अरे कुछ नहीं खाना
कुछ नहीं पीना।
अथवा
यह खाना और
यह पीना।
विशेष प्रकार का भोजन
स्वाद
कभी नमक रहित
कभी मिष्ठान्न सहित।
किस समय, किस रूप में,
यही चर्चा रहती है
दो दिन।
फिर
विशेष पूजा-पाठ,
सामग्री,
चाहे-अनचाहे
सबको उलझाना।
मैं बस मस्ती में जीती हूँ,
अपने कर्मों का
ध्यान करती हूँ,
अपनी ही
भूल-चूक पर
स्वयँ प्रायश्चित कर लेती हूँ
और अपने-आपको
स्वयँ क्षमा करती हूँ।
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शुद्ध जल से आचमन कर ले मेरे मन
जल की धार सी बह रही है ज़िन्दगी
नित नई आस जगा रही है ज़िन्दगी
शुद्ध जल से आचमन कर ले मेरे मन
काल के गाल में समा रही है ज़िन्दगी
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खुले हैं वातायन
इन गगनचुम्बी भवनों में भी
भाव रहते हैं ।
कुछ सागर से गहरे
कुछ आकाश को छूते
परस्पर सधे रहते हैं।
यहां भी उन्मुक्त हैं द्वार,
खुले हैं वातायन, घूमती हैं हवाएं
यहां भी गूंजती हैं किलकारियां ,
हंसता है सावन ।
बादल उमड़ते-घुमड़ते हैं ।
हां, यह हो सकता है
कुछ कम या ज़्यादा होता हो,
पर समय की मांग है यह सब ।
कितनी भी अवहेलना कर लें
किन्तु हम मन ही मन
यही चाहते हैं ।
फिर भी
पता नहीं क्यों हम
बस यूं ही डरे-डरे रहते हैं।
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बीहड़ वन आकर्षित करते हैं मुझे
कभी भीतर तक जाकर
देखे तो नहीं मैंने बीहड़ वन,
किन्तु ,
आकर्षित करते हैं मुझे।
कितना कुछ समेटकर रहते हैं
अपने भीतर।
गगन को झुकते देखा है मैंने यहां।
पल भर में धरा पर
उतर आता है।
रवि मुस्कुराता है,
छन-छनकर आती है धूप।
निखरती है, कण-कण को छूती है।
इधर-उधर भटकती है,
न जाने किसकी खोज में।
वृक्ष निःशंक सर उठाये,
रवि को राह दिखाते हैं,
धरा तक लेकर आते हैं।
धाराओं को
यहां कोई रोकता नहीं,
बेरोक-टोक बहती हैं।
एक नन्हें जीव से लेकर
विशाल व्याघ्र तक रहते हैं यहां।
मौसम बदलने से
यहां कुछ नहीं बदलता।
जैसा कल था
वैसा ही आज है,
जब तक वहां मानव का
प्रवेश नहीं होता।
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हम खाली हाथ रह जाते हैं
नदी
अपनी त्वरित गति में
मुहाने पर
अक्सर
छोड़ जाती है
कुछ निशान।
जब तक हम
समझ सकें,
फिर लौटती है
और ले जाती है
अपने साथ
उन चिन्हों को
जो धाराओं से
बिखरे थे
और हम
फिर खाली हाथ
रह जाते हैं
देखते ।