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शब्दों को बदल देने की
कला जानती हूं,
अपनी अभिव्यक्ति को
अनभिव्यक्ति बनाने की
कला जानती हूं ।
पर इन आंखों का क्या करूं
जो सदैव
सही समय पर
धोखा दे जाती हैं।
रोकने पर भी
न जाने
क्या-क्या कह जाती हैं।
जहां चुप रहना चाहिए
वहां बोलने लगती हैं
और जहां बोलना चाहिए
वहां
उठती-गिरती, इधर-उधर
ताक-झांक करती
धोखा देकर ही रहती हैं।
और कुछ न सूझे तो
गंगा-यमुना बहने लगती है।
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पूजा में हाथ जुड़ते नहीं
पूजा में हाथ जुड़ते नहीं,
आराधना में सिर झुकते नहीं।
मंदिरों में जुटी भीड़ में
भक्ति भाव दिखते नहीं।
पंक्तियां तोड़-तोड़कर
दर्शन कर रहे,
वी आई पी पास बनवा कर
आगे बढ़ रहे।
पण्डित चढ़ावे की थाली देखकर
प्रसाद बांट रहे,
फिल्मी गीतों की धुनों पर
भजन बज रहे,
प्रायोजित हो गई हैं
प्रदर्शन और सजावट
बन गई है पूजा और भक्ति,
शब्दों से लड़ते हैं हम
इंसानियत को भूलकर
जी रहे।
सच्चाई की राह पर हम चलते नहीं।
इंसानियत की पूजा हम करते नहीं।
पत्थरों को जोड़-जोड़कर
कुछ पत्थरों के लिए लड़ मरते हैं।
पर किसी डूबते को
तिनका का सहारा
हम दे सकते नहीं।
शिक्षा के नाम पर पाखण्ड
बांटने से कतराते नहीं।
लेकिन शिक्षा के नाम पर
हम आगे आते नहीं।
कैसे बढ़ेगा देश आगे
जब तक
पिछले कुछ किस्से भूलकर
हम आगे आते नहीं।
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भोर का सूरज
भोर का सूरज जीवन की आस देता है
भोर का सूरज रोशनी का भास देता है
सुबह से शाम तक ढलते हैं जीवन के रंग
भोर का सूरज नये दिन का विश्वास देता है
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तितली को तितली मिली
तितली को तितली मिली,
मुस्कुराहट खिली।
कुछ गीत गुनगुनाएं,
कुछ हंसे, कुछ मुस्कुराएं,
कहीं फूल खिले,
कहीं शाम हंसाए,
रोशनी की चमक,
रंगों की दमक,
हवाओं की लहक,
फूलों की महक,
मन को रिझाए।
सुन्दर है,
सुहानी है ज़िन्दगी।
बस यूं ही खुशनुमा
बितानी है ज़िन्दगी।
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द्वार पर सांकल लगने लगी है
उत्सवों की चहल-पहल अब भीड़ लगने लगी है
अपनों की आहट अब गमगीन करने लगी है
हवाओं को घोटकर बैठते हैं सिकुड़कर हम
कोई हमें बुला न ले, द्वार पर सांकल लगने लगी है
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पीछे मुड़कर क्या देखना
जीवन के उतार-चढ़ाव को
समझाती हैं ये सीढ़ियां
दुख-सुख के पल आते-जाते हैं
ये समझा जाती हैं ये सीढ़ियां
जीवन में
कुछ गहराते अंधेरे हैं
और कुछ होती हैं रोशनियां
हिम्मत करें
तो अंधेरे को बेधकर
रोशनी का मार्ग
दिखाती हैं ये सीढ़ियां
जो बीत गया
सो बीत गया
पीछे मुड़कर क्या देखना
आगे की राह
दिखाती हैं ये सीढि़यां
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सत्ता की चाहत है बहुत बड़ी
साईकिल, हाथी, पंखा, छाता, लिए हाथ में खड़े रहे
जब से आया झाड़ूवाला सब इधर-उधर हैं दौड़ रहे
छूट न जाये,रूठ न जाये, सत्ता की चाहत है बहुत बड़ी
देखेंगे गिनती के बाद कौन-कौन कहां-कहां हैं गढ़े रहे
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न इधर मिली न उधर मिली
नहीं जा पाये हम शाला, बाहर पड़ा था गहरा पाला
राह में इधर आई गउशाला, और उधर आई मधुशाला
एक कदम इधर जाता था, एक कदम उधर जाता था
न इधर मिली, न उधर मिली, हम रह गये हाला-बेहाला
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मन टटोलता है प्रस्तर का अंतस
प्रस्तर के अंतस में
सुप्त हैं न जाने कितने जल प्रपात।
कल कल करती नदियां,
झर झर करते झरने,
लहराती बलखाती नहरें,
मन की बहारें, और कितने ही सपने।
जहां अंकुरित होते हैं
नव पुष्प,
पुष्पित पल्लवित होती हैं कामनाएं
जिंदगी महकती है, गाती है,
गुनगुनाती है, कुछ समझाती है।
इन्द्रधनुषी रंगों से
आकाश सराबोर होता है
और मन टटोलता है
प्रस्तर का अंतस।
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टूटे घरों में कोई नहीं बसता
दिल न हुआ,
कोई तरबूज का टुकड़ा हो गया ।
एक इधर गया,
एक उधर गया,
इतनी सफाई से काटा ,
कि दिल बाग-बाग हो गया।
-
जिसे देखो
आजकल
दिल हाथ में लिए घूमते हैं ,
ज़रा सम्हाल कर रखिए अपने दिल को,
कभी कभी अजनबी लोग,
दिल में यूं ही घर बसा लिया करते हैं,
और फिर जीवन भर का रोग लगा जाते हैं ।
-
वैसे दिल के टुकड़े कर लिए
आराम हो गया ।
न किसी के इंतज़ार में हैं ।
न किसी के दीदार में हैं ।
टूटे घरों में कोई नहीं बसता ।
जीवन में एक ठीक-सा विराम हो गया ।
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कांगड़ी बोली में छन्दमुक्त कविता
चल मनां अज्ज सिमले चलिए,
पहाड़ां दी रौनक निरखिए।
बसा‘च जाणा कि
छुक-छुक गड्डी करनी।
टेडे-फेटे मोड़़ा‘च न डरयां,
सिर खिड़किया ते बा‘र न कड्यां,
चल मनां अज्ज सिमले चलिए।
-
माल रोडे दे चक्कर कटणे
मुंडु-कुड़ियां सारे दिखणे।
भेडुआं साई फुदकदियां छोरियां,
चुक्की लैंदियां मणा दियां बोरियां।
बालज़ीस दा डोसा खादा
जे न खादे हिमानी दे छोले-भटूरे
तां सिमले दी सैर मनदे अधूरे।
रिज मदानां गांधी दा बुत
लकड़ियां दे बैंचां पर बैठी
खांदे मुंगफली खूब।
गोल चक्कर बणी गया हुण
गुफ़ा, आशियाना रैस्टोरैंट।
लक्कड़ बजारा जाणा जरूर
लकड़िया दी सोटी लैणी हजूर।
जाखू जांगें तां लई जाणी सोटी,
चड़दे-चड़दे गोडे भजदे,
बणदी सा‘रा कन्ने
बांदरां जो नठाणे‘, कम्मे औंदी।
स्कैंडल पाईंट पर खड़े लालाजी
बोलदे इक ने इक चला जी।
मौसम कोई बी होये जी
करना नीं कदी परोसा जी।
सुएटर-छतरी लई ने चलना
नईं ता सीत लई ने हटणा।
यादां बड़ियां मेरे बाॅल
पर बोलदे लिखणा 26 लाईनां‘च हाल।
हिन्दी अनुवाद
चल मन आज शिमला चलें,
पहाडों की रौनक देखें।
बस में जाना या
छुक-छुक गाड़ी करनी।
टेढ़े-मेढ़े मोड़ों से न डरना
सिर खिड़की से बाहर न निकालना
चल मन आज शिमला चलें।
माल रोड के चक्कर काटने
लड़के-लड़कियां सब देखने
भेड़ों की तरह फुदकती हैं लड़कियां
उठा लेती हैं मनों की बोरियां।
बालज़ीस का डोसा खाया
और यदि न खाये हिमानी के भटूरे
तो शिमले की सैर मानेंगे अधूरे।
रिज मैदान पर गांधी का बुत।
लकड़ियों के बैंचों पर बैठकर
खाई मूंगफ़ली खूब।
गोल चक्कर बन गया अब
गुफ़ा, आशियाना रैस्टोरैंट।
लक्कड़ बाज़ार जाना ज़रूर।
लकड़ी की लाठी लेना हज़ूर।
जाखू जायेंगे तो ले जाना लाठी,
चढ़ते-चढ़ते घुटने टूटते
साथ बनती है सहारा,
बंदरों को भगाने में आती काम।
स्कैंडल प्वाईंट पर खड़े लालाजी
कहते हैं एक के साथ एक चलो जी।
मौसम कोई भी हो
करना नहीं कभी भरोसा,
स्वैटर-छाता लेकर चलना,
नहीं तो शीत लेकर हटना।
यादें बहुत हैं मेरे पास
पर कहते हैं 26 पंक्तियों में लिखना है हाल।