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कहां है अब पनघट
कहां है अब कृष्ण कन्हैया
क्यो इन सबमें
अब उलझा है मन दैया
इतना ही है तू
कृष्ण कन्हैया
तो मेरे घर में
इक नल लगवा दे भैया।
युग बदल गया
तू भी अपना यह वेश बदल,
न छेड़ बैठना किसी को
गोपी समझ के
कारागार के द्वार खुले हैं दैया।
गीत-संगीत सब बदल गये
रास-बिहारी खिसक गये
ढोल की ताल अब बहक गई
रास-बिहारी चले गये
किचन में कितना काम पड़ा है मैया
इतना ही है तू
कृष्ण कन्हैया
तो अपनी अंगुली से
मेरे घर के सारे काम
करवा दे रे भैया।
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सोच हमारी लूली-लंगड़ी
विचार हमारे भटक गये
सोच हमारी लूली-लंगड़ी
टांग उठाकर भाग लिए
पीठ मोड़कर चल दिये
राह छोड़कर चल दिये
राहों को हम छोड़ चले
चिन्तन से हम भाग रहे
सोच-समझ की बात नहीं
सब मिल-जुलकर यही करें
गलबहियां डालें घूम रहे
सत्य से हम भाग रहे
बोल हमारे कुंद हुए
पीठ पर हम वार करें
बच-बचकर चलना आ गया
दुनिया कुछ भी कहती रहे
पीठ दिखाना आ गया
बच-बचकर रहना आ गया।
चरण-चिन्ह हम छोड़ रहे
पीछे-पीछे जग आयेगा
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ये चिड़िया क्या स्कूल नहीं जाती
मां मुझको बतलाना
ये चिड़िया
क्या स्कूल नहीं जाती ?
सारा दिन बैठी&बैठी,
दाना खाती, पानी पीती,
चीं-चीं करती शोर मचाती।
क्या इसकी टीचर
इसको नहीं डराती।
इसकी मम्मी कहां जाती ,
होमवर्क नहीं करवाती।
सारा दिन गाना गाती,
जब देखो तब उड़ती फिरती।
कब पढ़ती है,
कब लिखती है,
कब करती है पाठ याद
इसको क्यों नहीं कुछ भी कहती।
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दिन-रात
दिन-रात जीवन के आवागमन का भाव बताता है।
दिन-रात जीवन के दुख-सुख का हाल बताता है।
सूरज-चंदा-तारे सब इस चक्र में बौखलाए देखे,
दिन-रात जीवन के तम-प्रकाश की चाल बताता है।
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आशाओं के दीप
सुना है
आशाओं के
दीप जलते हैं।
शायद
इसी कारण
बहुत छोटी होती है
आशाओं की आयु।
और
इसी कारण
हम
रोज़-हर-रोज़
नया दीप प्रज्वलित करते हैं
आशाओं के दीप
कभी बुझने नहीं देते।
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दिल आजमाने में लगे हैं
अब गुब्बारों में दिल सजाने लगे हैं
उनकी कीमत हम लगाने लगे हैं
पांच-सात रूपये में ले जाईये मनचाहे
फुलाईये, फोड़िए
या यूं ही समय बिताने में लगे हैं
मायूसे दिल की ओर तो कोई देखता ही नहीं
सोने चांदी के भाव अब लगाने लगे हैं
दिल कहां, दिलदार कहां अब
बातें करते बहुत
पर असल ज़िन्दगी में टांके लगाने लगे हैं
कुछ तुम दीजिए, कुछ हमसे लीजिए
पर न फोड़ना इस दिल को
न काटना इसे
असलियत निकल आयेगी
न खून बहेगा, न आस आहें भरेंगी
बस रोंआ-रोंआ बिखरेगा
सरकार ने प्लास्टिक बन्द कर दिया है
बस इतनी सी बात हम बताने में लगे हैं
समझ आया हो कुछ, तो ठीक
नहीं तो हम
कहीं और दिल आजमाने में लगे हैं।
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विनम्रता कहां तक
आंधी आई घटा छाई विनम्र घास झुकी, मुस्काई
वृक्षों ने आंधी से लड़ने की आकांक्षा जतलाई
झुकी घास सदा ही तो पैरों तले रौंदी जाती रही
धराशायी वृक्षों ने अपनी जड़ों से फिर एक उंचाई पाई
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सुनो कृष्ण
सुनो कृष्ण !
मैं नहीं चाहती
किसी द्रौपदी को
तुम्हें पुकारना पड़े।
मैं नहीं चाहती
किसी युद्ध का तुम्हें
मध्यस्थ बनना पड़े।
नहीं चाहती मैं
किसी ऐसे युद्ध के
साक्षी बनो तुम
जहाँ तुम्हें
शस्त्र त्याग कर
दर्शक बनना पड़े।
नहीं चाहती मैं
तुम युद्ध भी न करो
किन्तु संचालक तुम ही बनो।
मैं नहीं चाहती
तुम ऐसे दूत बनो
जहाँ तुम
पहले से ही जानते हो
कि निर्णय नहीं होगा।
मैं नहीं चाहती
गीता का
वह उपदेश देना पड़े तुम्हें
जिसे इस जगत में
कोई नहीं समझता, सुनता,
पालन करता।
मैं नहीं चाहती
कि तुम इतना गहन ज्ञान दो
और यह दुनिया
फिर भी दूध-दहीं-ग्वाल-बाल
गैया-मैया-लाड़-लड़ैया में उलझी रहे,
राधा का सौन्दर्य
तुम्हारी वंशी, लालन-पालन
और तुम्हारी ठुमक-ठुमैया
के अतिरिक्त उन्हें कुछ स्मरण ही न रहे।
तुम्हारा चक्र, तुम्हारी शंख-ध्वनि
कुछ भी स्मरण न करें,
न करें स्मरण
युद्धों का उद्घोष
समझौतों का प्रयास
अपने-पराये की पहचान की समझ,
न समझें तुम्हारी निर्णय-क्षमता
अपराधियों को दण्डित करने की नीति।
झुकने और समझौतों की
क्या सीमा-रेखा होती है
समझ ही न सकें।
मैं नहीं चाहती
कि तुम्हारे नाम के बहाने
उत्सवों-समारोहों में
इतना खो जायें
तुम पर इतना निर्भर हो जायें
कि तनिक-से कष्ट में
तुम्हें पुकारते रहें
कर्म न करें,
प्रयास न करें,
अभ्यास न करें।
तुम्हारे नाम का जाप करते-करते
तुम्हें ही भूल जायें,
बस यही नहीं चाहती मैं
हे कृष्ण !
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जब तक चिल्लाओ न, कोई सुनता नहीं
अब शांत रहने से यहां कुछ मिलता नहीं
जब तक चिल्लाओ न, कोई सुनता नहीं
सब गूंगे-बहरे-अंधे अजनबी हो गये हैं यहां
दो की चार न सुनाओ जब तक, काम बनता नहीं
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अंधविश्वासों में जीते
कौओं की पंगत लगी
बैठे करें विचार
क्यों न हम सब मिलकर करें
इस मानव का बहिष्कार
किसी पक्ष में हमको पूजे
कभी उड़ायें पत्थर मार।
यूं कहते मुझको काला-काला,
मेरी कां-कां चुभती तुमको
मनहूस नाम दिया है मुझको
और अब मैं तुमको लगता प्यारा।
मुझको रोटी तब डाले हैं
जब तुम पर शामत आन पड़ी,
बासी रोटी, तैलीय रोटी
तुम मुझको खिलाते हो।
अपने कष्ट-निवारण के लिए
मुझे ढूंढते भागे हो।
किसी-किसी के नाम पर
हमें लगाते भोग
अंधविश्वासों में जीते
बाबाओं के चाटें तलवे
मिट्टी में होते हैं लोट-पोट।
जब ज़िन्दा होता है मानव
तब क्या करते हैं ये लोग।
न चाहिए मुझको तेरी
दान-दक्षिणा, न पूजी रोटी।
मुंडेर तेरी पर कां-कां करता
बच्चों का मन बहलाता हूं।
अपनी मेहनत की खाता हूं।
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खुशियों की कोई उम्र नहीं होती
उम्र का तकाज़ा मत देना मुझे,
कि जी चुके अपनी ज़िन्दगी,
अब भगवान-भजन के दिन हैं।
जीते तो हैं हम,
पर वास्तव में
ज़िन्दगी शुरु कब होती है,
कहां समझ पाते हैं हम।
कर्म किये जा, कर्म किये जा,
बस कर्म किये जा।
जीवन के आनन्द, खुशियों को
एक झोले में समेटते रहते हैं,
जब समय मिलेगा
भोग लेंगे।
और किसी खूंटी पर टांग कर
अक्सर भूल जाते हैं।
और जब-जब झोले को
पलटना चाहते हैं,
पता लगता है,
खुशियों की भी
एक्सपायरी डेट होती है।
या फिर,
फिर कर्मों की सूची
और उम्र का तकाज़ा मिलता है।
पर खुशियों की कोई उम्र
नहीं होती,
बस जीने का सलीका आना चाहिए।