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आत्माओं का गुणगान करके इंसान को न धिक्कारो यारो
इंसानियत की नीयत और गुणों में पूरा विश्वास करो यारो
यह जीवन है, अच्छा-बुरा, ,खरा-खोटा तो चला रहेगा
अपनों को अपना लो, फिर जीवन सुगम है, समझो यारो।
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होगा कैसे मनोरंजन
कौन कहे ताक-झांक की आदत बुरी, होगा कैसे मनोरंजन
किस घर में क्या पकता, नहीं पता तो कैसे मानेगा मन
अपने बर्तन-भांडों की खट-पट चाहे सुनाये पूरी कथा
औरों की सीवन उधेड़ कर ही तो मिलता है चैन-अमन
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नहीं बनना मुझे नारायणी
लालसा है मेरी
एक ऐसे जीवन की
एक ऐसा जीवन जीने की
जहाँ मैं रहूँ
सदा एक आम इंसान।
नहीं चाहिए
कोई पदवी कोई सम्मान
कोई वन्दन कोई अभिनन्दन।
रिश्तों में बाँध-बाँधकर मुझे
सूली पर चढ़ाते रहते हो।
रिश्ते निभाते-निभाते
जीवन बीत जाता है
पर कहाँ कुछ समझ आता है,
जोड़-तोड़-मोड़ में
सब कुछ उलझा-उलझा-सा
रह जाता है।
शताब्दियों से
एकत्र की गई
सम्मानों की, बलिदान की
एहसान की चुनरियाँ
उढ़ा देते हो मुझे।
इतनी आकांक्षाएँ
इतनी आशाएँ
जता देते हो मुझे।
पूरी नहीं कर पाती मैं
कहीं तो हारती मैं
कहीं तो मन मारती मैं।
अपने मन से कभी
कुछ सोच ही नहीं पाती मैं।
दुर्गा, काली, सीता, राधा, चण्डी,
नारायणी, देवी,
चंदा, चांदनी, रूपमती
झांसी की रानी, पद्मावती
और न जाने क्या-क्या
सब बना डालते हो मुझे।
किन्तु कभी एक नारी की तरह
भी जीने दो मुझे।
नहीं जीतना यह संसार मुझे।
दो रोटी खाकर,
धूप सेंकती,
अपने मन से सोती-जागती
एक आम नारी रहने दो मुझे।
नहीं हूँ मैं नारायणी।
नहीं बनना मुझे नारायणी ।
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ये सूर्य रश्मियां
वृक्षों की आड़ से
झांकती हैं कुछ रश्मियां
समझ-बूझकर चलें
तो जीवन का अर्थ
समझाती हैं ये रश्मियां
मन को राहत देती हैं
ये खामोशियां
जीवन के एकान्त को
मुखर करती हैं ये खामोशियां
जीवन के उतार-चढ़ाव को
समझाती हैं ये सीढ़ियां
दुख-सुख के पल आते-जाते हैं
ये समझा जाती हैं ये सीढ़ियां
पाषाणों में
पढ़ने को मिलती हैं
जीवन की अनकही कठोर दुश्वारियां
समझ सकें तो समझ लें
हम ये कहानियां
अपनेपन से बात करती
मन को आश्वस्त करती हैं
ये तन्हाईयां
अपने लिए सोचने का
समय देती हैं ये तन्हाईयां
और जीवन में
आनन्द दे जाती हैं
छू कर जातीं
मौसम की ये पुरवाईयां
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आकाश में अठखेलियां करते देखो बादल
आकाश में अठखेलियां करते देखो बादल
ज्यों मां से हाथ छुड़ाकर भागे देखो बादल
डांट पड़ी तो रो दिये,मां का आंचल भीगा
शरारती-से,जाने कहां गये ज़रा देखो बादल
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ज़्यादा मत उड़
कौन सी वास्तविकता है
और कौन सा छल,
अक्सर असमंजस में रह जाती हूं।
रोज़ हर रोज़
समाचारों में गूंजती हैं आवाजे़ं
देखो हमने
नारी को
कहां से कहां पहुंचा दिया।
किसी ने चूल्हा बांटा ,
किसी ने गैस,
किसी की सब्सिडी छीनी
तो किसी की आस।
नौकरियां बांट रहे।
घर संवार रहे।
मौज करवा रहे।
स्टेटस दिलवा रहे।
कभी चांद पर खड़ी दिखी।
कभी मंच पर अड़ी दिखी।
आधुनिकता की सीढ़ी पर
आगे और आगे बढ़ी।
अपना यह चित्र देख अघाती नहीं।
अंधविश्वासों ,
कुरीतियों का विरोध कर
मदमाती रही।
प्रंशसा के अंबार लगने लगे।
तुम्हारे नाम के कसीदे
बनने लगे।
साथ ही सब कहने लगे
ऐसी औरतें घर-बार की रहती नहीं
पर तुम अड़ी रही
ज़रा भी डिगी नहीं।
-
ज़्यादा मत उड़ ।
कहीं भी हो आओ
लौटकर यहीं,
यही चूल्हा-चौका करना है।
परम्पराओं के नाम पर
घूंघट की ओट में जीना है।
और ऐसे ही मरना है।।।
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बनी-बनाई धारणाएं लिए घूमते हैं
ऐसा क्यों है
कि कुछ बातों के लिए हम
बनी-बनाई धारणाएं लिए घूमते हैं।
बेचारा,
न जाने कैसी बोतल थी हाथ में
और क्या था गिलास में।
बस गिरा देखा
या कहूं
फि़सला देखा
हमने मान लिया कि दारू है।
सोचा नहीं एक बार
कि शायद सामने खड़े
दादाजी की दवा-दारू ही हो।
लीजिए
फिर दारू शब्द आ गया।
और यह भी तो हो सकता है
कि बेटा बेचारा
पिताजी की
बोतल छीनकर भागा हो
अब तो बस कर इस बुढ़ापे में बुढ़उ
क्यों अपनी जान लेने पर तुला है।
बेचारा गिर गया
और बापजी बोले
देखा, आया मजा़ ।
तू उठता रह
मैं नई लेने चला।
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आई आंधी टूटे पल्लव पल भर में सब अनजाने
जीवन बीत गया बुनने में रिश्तों के ताने बाने।
दिल बहला था सबके सब हैं अपने जाने पहचाने।
पलट गए कब सारे पन्ने और मिट गए सारे लेख
आई आंधी, टूटे पल्लव,पल भर में सब अनजाने !!
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मेरी समझ कुछ नहीं आता
मां,
मास्टर जी कहते हैं
धरती गोल घूमती।
चंदा-तारे सब घूमते
सूरज कैसे आता-जाता
बहुत कुछ बतलाते।
मेरी समझ नहीं कुछ आता
फिर हम क्यों नहीं गिरते।
पेड़-पौधे खड़े-खड़े
हम पर क्यों नहीं गिरते।
चंदा लटका आसमान में
कभी दिखता
कभी खो जाता।
कैसे कहां चला जाता है
पता नहीं क्या-क्या समझाते।
इतने सारे तारे
घूम-घूमकर
मेरे बस्ते में क्यों नहीं आ जाते।
कभी सूरज दिखता
कभी चंदा
कभी दोनों कहीं खो जाते।
मेरी समझ कुछ नहीं आता
मास्टर जी
न जाने क्या-क्या बतलाते।
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ठहरी-ठहरी-सी है ज़िन्दगी
सपनों से हम डरने लगे हैं।
दिल में भ्रम पलने लगे हैं ।
ठहरी-ठहरी-सी है ज़िन्दगी
अपने ही अब खलने लगे हैं।
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सरस-सरस लगती है ज़िन्दगी
जल सी भीगी-भीगी है ज़िन्दगी
कहीं सरल, कहीं धीमे-धीमे
आगे बढ़ती है ज़िन्दगी।
तरल-तरल भाव सी
बहकती है ज़िन्दगी
राहों में धार-सी बहती है ज़िन्दगी
चलें हिल-मिल
कितनी सुहावनी लगती है ज़िन्दगी
किसी और से क्या लेना
जब आप हैं हमारे साथ ज़िन्दगी
आज भीग ले अन्तर्मन,
कदम-दर-कदम
मिलाकर चलना सिखाती है ज़िन्दगी
राहें सूनी हैं तो क्या,
तुम साथ हो
तब सरस-सरस लगती है ज़िन्दगी।
आगे बढ़ते रहें
तो आप ही खुलने लगती हैं मंजिलें ज़िन्दगी