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एक वृक्ष को बनने में कुछ वर्ष नहीं, दशाब्दियाँ लग जाती हैं। प्रत्येक मौसम झेलता है वह।
प्रकृति स्वयं ही उसे उसकी आवश्यकताएँ पूरी करने देती है यदि मानव उसमें व्यवधान न डाले। अपने मूल रूप में वृक्ष की कोमल-कांत छवि आकर्षित करती है। हरी-भरी लहलहाती डालियाँ मन आकर्षित करती है। रंग-बिरंगे फूल मन मोहते हैं। धरा से उपज कर धीरे-धीरे कोमल से कठोर होने लगता है। जैसे-जैसे उसकी कठोरता बढ़ती है उसकी उपयोगिता भी बढ़ने लगती है। छाया, आक्सीजन, फल-फूल, लकड़ी, पर्यावरण की रक्षा, सब प्राप्त होता है एक वृक्ष से। किन्तु वृक्ष जितना ही उपयोगी होता जाता है बाहर से उतना ही कठोर भी।
किन्तु क्या वह सच में ही कठोर होता है ? नहीं ! उसके भीतर एक तरलता रहती है जिसे वह अपनी कठोरता के माध्यम से हमें देता है। वही तरलता हमें उपयोगी वस्तुएँ प्रदान करती है। और ठोस पदार्थों के अतिरिक्त बहुत कुछ ऐसा देते हैं यह कठोर वृक्ष जो हमें न तो दिखाई देता है और न ही समझ है बस हमें वरदान मिलता है। यदि इस बात को हम भली-भांति समझ लें तो वृक्ष की भांति हमारा जीवन भी हो सकता है।
और यही मानव जीवन कहानी है।
हर मनुष्य के भीतर कटुता और कठोरता भी है और तरलता एवं कोमलता अर्थात भाव भी। यह हमारी समझ है कि हम किसे कितना समझ पाते हैं और कितनी प्राप्तियाँ हो पाती हैं।
मानव अपने जीवन में विविध मधुर-कटु अनुभवों से गुज़रता है। सामाजिक जीवन में उलझा कभी विनम्र तो कभी कटु हो जाता है उसका स्वभाव। जीवन के कटु-मधुर अनुभव मानव को बाहर से कठोर बना देते है। किन्तु उसके मन की तरलता कभी भी समाप्त नहीं होती, चाहे हम अनुभव कर पायें अथवा नहीं। जिस प्रकार वृक्ष की छाल उतारे बिना उसके भीतर की तरलता का अनुभव नहीं होता वैसे ही मानव के भीतर भी सभी भाव हैं, कोई भी केवल अच्छा या बुरा, कटु अथवा मधुर नहीं होता। बस परख की बात है।
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आत्मविश्वास :यह अंहकार नहीं है
आत्मविश्वास की डोर लिए चलते हैं यह अभिमान नहीं है।
स्वाभिमान हमारा सम्बल है यह दर्प का आधार नहीं है।
साहस दिखलाया आत्मनिर्भरता का, मार्ग यह सुगम नहीं,
अस्तित्व बनाकर अपना, जीते हैं, यह अंहकार नहीं है।
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भ्रष्टाचार पर चर्चा
जब हम भ्रष्टाचार की बात करते हैं और दूसरे की ओर अंगुली उठाते हैं तो चार अंगुलियाँ स्वयंमेव ही अपनी ओर उठती हैं जिन्हें हम स्वयं ही नहीं देखते। यह पुरानी कहावत है।
वास्तव में हम सब भ्रष्टाचारी हैं। बात बस इतनी है कि जिसकी जितनी औकात है उतना वह भ्रष्टाचार कर लेता है। किसी की औकात 100 रुपये की है तो किसी की 100 करोड़ की। किन्तु 100 रुपये वाला स्वयं को ईमानदार कहता है। हम मंहगाई की बात करते हैं किन्तु सुविधाभेागी हो गये हैं। बिना कष्ट उठाये धन से हर कार्य करवा लेना चाहते हैं। हमें दूसरे का भ्रष्टाचार भ्रष्टाचार लगता है और अपना आवश्यकता, विवशता।
यदि हम अपनी ओर उठने वाली चार अंगुलियों के प्रश्न और उत्तर दे सकें तो शायद हम भ्रष्टाचार के विरूद्ध अपना योगदान दे सकते हैं:
पहली अंगुली मुझसे पूछती है: क्या मैं विश्वास से कह सकती हूँ कि मैं भ्रष्टाचारी नहीं हूँ ।
दूसरी अंगुली कहती है: अगर मैं भ्रष्टाचारी नहीं हूं तो क्या भ्रष्टाचार का विरोध करती हूँ ?
तीसरी अंगुली कहती है: कि अगर मैं भ्रष्टाचारी नहीं हूं किन्तु भ्रष्टाचार का विरोध नहीं करती तो मैं उनसे भी बड़े भ्रष्टाचारी हूँ ।
और अंत में चौथी अंगुली कहती है: अगर मैं भी भ्रष्टाचारी हूं तो सामने की अंगुली को भी अपनी ओर मोड़ लेना चाहिए और मुक्का बनाकर अपने पर वार करना चाहिए। दूसरों को दोष देने और सुधारने से पहले पहला कदम अपने प्रति उठाना होगा।
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हंस-हंसकर बीते जीवन क्या घट जायेगा
यह मन अद्भुत है, छोटी-छोटी बातों पर रोता है
ज़रा-ज़रा-सी बात पर यूं ही शोकाकुल होता है
हंस-हंसकर बीते जीवन तो तेरा क्या घट जायेगा
गाल फुलाकर जीने से जीवन न बेहतर होता है
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मन के मन्दिर ध्वस्त हुए हैं
मन के मन्दिर ध्वस्त हुए हैं,नव-नव मन्दिर गढ़ते हैं
अरबों-खरबों की बारिश है,धर्म के गढ़ फिर सजते हैं
आज नहीं तो कल होगा धर्मों का कोई नाम नया होगा
आयुधों पर बैठे हम, कैसी मानवता की बातें करते हैं
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एक मधुर संदेश
प्रतिदिन प्रात में सूर्य का आगमन एक मधुर संदेश देता है
तोड़े न कभी क्रम अपना, मार्ग सुगम नहीं दिखाई देता है
कभी बदली, आंधी, कभी ग्रहण भी नहीं रोक पाते राहों को
मंज़िल कभी दूर नहीं होती, बस लगे रहो, यही संदेश देता है
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ज़िन्दगी एक क्षणिका भी न बन पाई
किसी ने कहा
ज़िन्दगी पर
एक उपन्यास लिखो।
सालों-साल का
हिसाब-बेहिसाब लिखो।
स्मृतियों को
उलटने-पलटने लगी।
समेटने लगी
सालों, महीनों, दिनों
और घंटों का,
पल-पल का गणित।
बांधने लगी पृष्ठ दर पृष्ठ।
न जाने कितने झंझावात,
कितने विप्लव,
कितने भूचाल बिखर गये।
कहीं आंसू, कहीं हर्ष,
कहीं आहों के,
सुख-दुख के सागर उफ़न गये।
न जाने
कितने दिन-महीने, साल लग गये
कथाओं का समेटने में।
और जब
अन्तिम रूप देने का समय आया
तो देखा
एक क्षणिका भी न बन पाई।
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कुछ तो मुंह भी खोल
बस !
अब बहुत हुआ।
केवल आंखों से न बोल।
कुछ तो मुंह भी खोल।
कोई बोले कजरारे नयना
कोई बोले मतवारे नयना।
कोई बोले अबला बेचारी,
किसी को दिखती सबला है।
तेरे बारे में,
तेरी बातें सब करते।
अवगुण्ठन के पीछे
कोई तेरा रूप निहारे
कोई प्रेम-प्याला पी रहे ।
किसी को
आंखों से उतरा पानी दिखता
कोई तेरी इन सुरमयी आंखों के
नशेमन में जी रहे।
कोई मर्यादा ढूंढ रहा
कोई तेरे सपने बुन रहा,
किसी-किसी को
तेरी आबरू लुटती दिखती
किसी को तू बस
सिसकती-सिसकती दिखती।
जिसका जो मन चाहे
बोले जाये।
पर तू क्या है
बस अपने मन से बोल।
बस ! अब बहुत हुआ।
केवल आंखों से न बोल।
कुछ तो मुंह भी खोल।
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संधान करें अपने भीतर के शत्रुओं का
ऐसा क्यों होता है
कि जब भी कोई गम्भीर घटना
घटती है कहीं,
देश आहत होता है,
तब हमारे भीतर
देशभक्ति की लहर
हिलोरें लेने लगती है,
याद आने लगते हैं
हमें वीर सैनिक
उनका बलिदान
देश के प्रति उनकी जीवनाहुति।
हुंकार भरने लगते हैं हम
देश के शत्रुओं के विरूद्ध,
बलिदान, आहुति, वीरता
शहीद, खून, माटी, भारत माता
जैसे शब्द हमारे भीतर खंगालने लगते हैं
पर बस कुछ ही दिन।
दूध की तरह
उबाल उठता है हमारे भीतर
फिर हम कुछ नया ढूंढने लगते हैं।
और मैं
जब भी लिखना चाहती हूं
कुछ ऐसा,
नमन करना चाहती हूं
देश के वीरों को
बवंडर उठ खड़ा होता है
मेरे चारों ओर
आवाज़ें गूंजती हैं,
पूछती हैं मुझसे
तूने क्या किया आज तक
देश हित में ।
वे देश की सीमाओं पर
अपने प्राणों की आहुति दे रहे हैं
और तुम यहां मुंह ढककर सो रहे हो।
तुम संधान करो उन शत्रुओं का
जो तुम्हारे भीतर हैं।
शत्रु और भी हैं देश के
जिन्हें पाल-पोस रहे हैं हम
अपने ही भीतर।
झूठ, अन्याय के विरूद्ध
एक छोटी-सी आवाज़ उठाने से डरते हैं हम
भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी अनैतिकता
के विरूद्ध बोलने का
हमें अभ्यास नहीं।
काश ! हम अपने भीतर बसे
इन शत्रुओं का दमन कर लें
फिर कोई बाहरी शत्रु
इस देश की ओर
आंख उठाकर नहीं देख पायेगा।
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परिवर्तन नियम है
परिवर्तन नित्य है,
परिवर्तन नियम है
किन्तु कहां समझ पाते हैं हम।
रात-दिन,
दिन-रात में बदल जाते हैं
धूप छांव बन ढलती है
सुख-दुःख आते-जाते हैं
कभी कुहासा कभी झड़ी
और कभी तूफ़ान पलट जाते हैं।
हंसते-हंसते रो देता है मन
और रोते-रोते
होंठ मुस्का देते हैं
जैसे कभी बादलों से झांकता है चांद
और कभी अमावस्या छा जाती है।
सूरज तपता है,
आग उगलता है
पर रोशनी की आस देता है।
जैसे हवाओं के झोंकों से
कली कभी फूल बन जाती है
तो कभी झटक कर
मिट्टी में मिल जाती है।
बड़ा लम्बा उलट-फ़ेर है यह।
कौन समझा है यहां।
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मौन पर दो क्षणिकाएं
मौन को शब्द दूं
शब्द को अर्थ
और अर्थ को अभिव्यक्ति
न जाने राहों में
कब, कौन
समझदार मिल जाये।
*-*-*-*
मौन को
मौन ही रखना।
किन्तु
मौन न बने
कभी डर का पर्याय।
चाहे
न तोड़ना मौन को
किन्तु
मौन की अभिव्यक्ति को
सार्थक बनाये रखना।