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देखो रोशनी से कतराने लगे हैं हम
देखो बत्तियां बुझाने में लगे हैं हम
जलती तीली देखकर भ्रमित न होना
देखो सीढ़ियां गिराने में लगे हैं हम
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ये गर्मी और ये उमस
ये गर्मी और ये उमस हर वर्ष यूं ही तपाती है
बिजली देती धोखा तर पसीने में काम करवाती है
फिर नखरे सहो सबके ये या वो क्यों नहीं बनाया
ज़रा आग के आगे खड़े तो हो,नानी याद करवाती है
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दिमाग़ की बत्ती गुल पड़ी है
मैं भाषण देता हूं
मैं राशन देता हूं
मैं झाड़ू देता हूं
मैं पैसे देता हूं
रोटी दी मैंने
मैंने गैस दिया
पहले कर्ज़ दिये
फिर सब माफ़ किया
टैक्स माफ़ किये मैंने
फिर टैक्स लगाये
मैंने दुनिया देखी
मैंने ढोल बजाये
नये नोट बनाये
अच्छे दिन मैं लाया
सारी दुनिया को बताया
ये बेईमानों का देश था,
चोर-उचक्कों का हर वेश था
मैंने सब बदल दिया
बेटी-बेटी करते-करते
लाखों-लाखों लुट गये
पर बेटी वहीं पड़ी है।
सूची बहुत लम्बी है
यहीं विराम लेते हैं
और अगले पड़ाव पर चलते हैं।
*-*-*-*-*-*-*-**-
चुनावों का अब बिगुल बजा
किसका-किसका ढोल बजा
किसको चुन लें, किसको छोड़ें
हर बार यही कहानी है
कभी ज़्यादा कभी कम पानी है
दिमाग़ की बत्ती गुल पड़ी है
आंखों पर पट्टी बंधी है
बस बातें करके सो जायेंगे
और सुबह फिर वही राग गायेंगे।
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इंसानियत को जीत
अपने भीतर झांककर इंसानियत को जीत
कर सके तो कर अपनी हैवानियत पर जीत
क्या करेगा किसी के गुण दोष देखकर
पूजा, अर्चना, आराधना का अर्थ है बस यही
कर ऐसे कर्म बनें सब इंसानियत के मीत
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ज़िन्दगी कहीं सस्ती तो नहीं
बहुत कही जाती है एक बात
कि जब
रिश्तों में गांठें पड़ती हैं,
नहीं आसान होता
उन्हें खोलना, सुलझाना।
कुछ न कुछ निशान तो
छोड़ ही जाती हैं।
लेकिन सच कहूं
मुझे अक्सर लगता है,
जीवन में
कुछ बातों में
गांठ बांधना भी
ज़रूरी होता है।
टूटी डोर को भी
हम यूं ही नहीं जाने देते
गांठे मार-मारकर
सम्हालते हैं,
जब तक सम्हल सके।
ज़िन्दगी कहीं
उससे सस्ती तो नहीं,
फिर क्यों नहीं कोशिश करते,
यहां भी कभी-कभार,
या बार-बार।
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ताउते एवं यास तूफ़ान के दृष्टिगत रचना
अपनी सीमाओं का
अतिक्रमण करते हुए
लहरें आज शहरों में प्रवेश कर गईं।
उठते बवंडर ने
सागर में कश्तियों से
अपनी नाराज़गी जताई।
हवाओं की गति ने
सब उलट-पलट दिया।
घटाएं यूं घिरीं, बरस रहीं
मानों कोई आतप दिया।
प्रकृति के सौन्दर्य से
मोहित इंसान
इस रौद्र रूप के सामने
बौना दिखाई दिया।
प्रकृति संकेत देती है,
आदेश देती है, निर्देश देती है।
अक्सर
सम्हलने का समय भी देती है।
किन्तु हम
सदा की तरह
आग लगने पर
कुंआ खोदने निकलते हैं।
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जीवन अंधेरे और रोशनियों के बीच
अंधेरे को चीरती
ये झिलमिलाती रोशनियां,
अनायास,
उड़ती हैं
आकाश की ओर।
एक चमक और आकर्षण के साथ,
कुछ नये ध्वन्यात्मक स्वर बिखेरतीं,
फिर लौट आती हैं धरा पर,
धीरे-धीरे सिमटती हैं,
एक चमक के साथ,
कभी-कभी
धमाकेदार आवाज़ के साथ,
फिर अंधेरे में घिर जाती हैं।
जीवन जब
अंधेरे और रोशनियों में उलझता है,
तब चमक भी होती है,
चिंगारियां भी,
कुछ मधुर ध्वनियां भी
और धमाके भी,
आकाश और धरा के बीच
जीवन ऐसे ही चलता है।
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नया सूर्य उदित होगा ही
आजकल रोशनियां
डराने लगी हैं,
अंधेरे गहराने लगे हैं।
विपदाओं की कड़ी
लम्बी हो रही है।
इंसान से इंसान
डरने लगा है।
ख़ौफ़ भीतर तक
पसरने लगा है।
राहें पथरीली होने लगी हैं,
पहचान मिटने लगी है।
ज़िन्दगी
बेनाम दिखने लगी है।
पर कब चला है इस तरह जीवन।
कब तक चलेगा इस तरह जीवन।
जानते हैं हम,
बादल घिरते हैं
तो बरस कर छंटते भी हैं।
बिजली चमकती है
तो रोशनी भी देती है।
अंधेरों को
परखने का समय आ गया है।
ख़ौफ़ के साये को
तोड़ने का समय आ गया है।
जीवन बस डर से नहीं चलता,
आशाओं को फिर से
सहेजने का समय आ गया है।
नया सूर्य उदित होने को है,
हाथ बढ़ाओ ज़रा,
हाथ से हाथ मिलाओ ज़रा,
सबको अपना बनाने का
समय आ गया है।
नया सूर्य उदित होगा ही,
अपने लिए तो सब जीते हैं,
औरों के दुख को
अपना बनाने का समय आ गया है।
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पावस की पहली बूंद
पावस की पहली बूंद
धरा तक पहुंचते-पहुंचते ही
सूख जाती है।
तपती धरा
और तपती हवाएं
नमी सोख ले जाती हैं।
अब पावस की पहली बूंद
कहां नम करती है मन।
कहां उमड़ती हैं
मन में प्रेम-प्यार,
मनुहार की बातें।
समाचार डराते हैं,
पावस की पहली बूंद
आने से पहले ही
चेतावनियां जारी करते हैं।
सम्हल कर रहना,
सामान बांधकर रख लो,
राशन समेट लो।
कभी भी उड़ा ले जायेंगी हवाएँ।
अब पावस की बूंद,
बूंद नहीं आती,
महावृष्टि बनकर आती है।
कहीं बिजली गिरी
कहीं जल-प्लावन।
क्या जायेगा
क्या रह जायेगा
बस इसी सोच में
रह जाते हैं हम।
क्या उजड़ा, क्या बह गया
क्या बचा
बस यही देखते रह जाते हैं हम
और अगली पावस की प्रतीक्षा
करते हैं हम
इस बार देखें क्या होगा!!!
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हम इंसान अजीब से असमंजस में रहते हैं
पुष्प कभी अकेले नहीं महकते,
बागवान साथ होता है।
पल्लव कभी यूं ही नहीं बहकते,
हवाएं साथ देती हैं।
चांद, तारों संग रात्रि-गमन करता है,
बादलों की घटाओं संग
बिजली कड़कती है,
तो बूंदें भी बरसती हैं।
धूप संग-संग छाया चलती है।
प्रकृति किसी को
अकेलेपन से जूझने नहीं देती।
लेकिन हम इंसान
अजीब से असमंजस में रहते हैं।
अपनों के बीच
एकाकीपन से जूझते हैं,
और अकेले में
सहारों की तलाश करने निकल पड़ते हैं।
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धुआँ- धुआँ ज़िन्दगी
कुछ चेतावनियों के साथ
बेहिचक बिकता है
कोई भी, कहीं भी
पी ले
सुट्टा ले
हवा ले और हवाओं में ज़हर घोले
पूर्ण स्वतन्त्र हैं हम।
शानौ-शौकत का प्रतीक बन जाता है।
कहीं गम भुलाने के लिए
तो कहीं सर-दर्द मिटाने के लिए
कभी दोस्ती के लिए
तो कभी
देखकर मन ललचाता है
कुछ आधुनिक दिखने की चाहत
खींच ले जाती है
एकान्त में, छिपकर
फिर दिखाकर
और बाद में अकड़कर।
और जब तक समझ आता है
तब तक
धुआँ- धुआँ हो चुकी होती है ज़िन्दगी।