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इंसानों में रहते हैं तो इंसानों से काम करेंगें
आग जलाई तुमने हम सेंककर शीत हरेंगे
बाहर झड़ी लगी है, यहीं बितायेंगे दिन-रात
यहीं बैठकर रोटी-पानी खाकर पेट भरेंगे।
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कहां समझ पाते हैं हम
आंखें बोलती हैं
कहां पढ़ पाते हैं हम
कुछ किस्से खोलती हैं
कहां समझ पाते हैं हम
किसी की मानवता जागी
किसी की ममता उठ बैठी
पल भर के लिए
मन हुआ द्रवित
भूख से बिलखते बच्चे
बेसहारा अनाथ
चल आज इनको रोटी डालें
दो कपड़े पुराने साथ।
फिर भूल गये हम
इनका कोई सपना होगा
या इनका कोई अपना होगा,
कहां रहे, क्या कह रहे
क्यों ऐसे हाल में है
हमारी एक पीढ़ी
कूड़े-कचरे में बचपन बिखरा है
किस पर डालें दोष
किस पर जड़ दें आरोप
इस चर्चा में दिन बीत गया !!
सांझ हुई
अपनी आंखों के सपने जागे
मित्रों की महफ़िल जमी
कुछ गीत बजे, कुछ जाम भरे
सौ-सौ पकवान सजे
जूठन से पंडाल भरा
अनायास मन भर आया
दया-भाव मन पर छाया
उन आंखों का सपना भागा आया
जूठन के ढेर बनाये
उन आंखों में सपने जगाये
भर-भर उनको खूब खिलाये
एक सुन्दर-सा चित्र बनाया
फे़सबुक पर खूब सजाया
चर्चा का माहौल बनाया
अगले चुनाव में खड़े हो रहे हम
आप सबको अभी से करते हैं नमन
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किस बात का हम मान करें
कहते हैं
मिट्टी की यह देह
मिट्टी में मिल जायेगी।
मिट्टी चुन-चुन
थाप-थापकर
घट का निर्माण करें।
रंग-रूप में,
चमक-दमक में,
अपनी यूं ही शान करें।
ज़रा-सी धमक,
बिखर कर
फिर मिट्टी के नाम करें।
मिट्टी से बनते हैं,
फिर मिट्टी में मिल जाते हैं।
किस बात का हम मान करें।
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हंसते-हंसते जी लेना
हंसते-हंसते जी लेना
खुशियों के घूंट पी लेना
क्या होता है जग में
हमको क्या लेना-देना
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कड़वा-कड़वा देते रहना
नीम करेले का रस पी ले
हंस-बोलकर जीवन जी ले
कड़वा-कड़वा देते रहना
खट्टे की खुद चटनी पी ले
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कच्चे धागों से हैं जीवन के रिश्ते
हर दिन रक्षा बन्धन का-सा हो जीवन में
हर पल सुरक्षा का एहसास हो जीवन में
कच्चे धागों से बंधे हैं जीवन के सब रिश्ते
इन धागों में विश्वास का एहसास हो जीवन में
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सम्मान से जीना है रूपसी
आंखों की भाषा समझे न, निष्ठुर है यह जग रूपसी
आवरण हटा कर बोल, मन की बात खोल रूपसी
तेरी इस साज-सज्जा से यूं ही भ्रमित हैं सब देख तो
न डर, हो निडर, गर” सम्मान से जीना है रूपसी
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रेखाएं अनुभव की अनुभूत सत्य की
रेखाएं
कलम की, तूलिका की,
रचती हैं कुछ भाव, कोई चित्र।
किन्तु
रेखाएं अनुभव की, अनुभूत सत्य की,
दिखती तो दरारों-सी हैं
लेकिन झांकती है
इनके भीतर से एक रोशनी
देती एक गहन जीवन-संदेश।
जिसे पाने के लिए, समझने के लिए
समर्पित करना पड़ता है
एक पूरा जीवन
या एक पूरा युग।
ऐसे हाथ जब आशीष में उठते हैं
तब भी
और जब अभिवादन में जुड़ते हैं
तब भी
नतमस्तक होता है मन।
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मौन की भाषा समझी न
शब्दों की भाषा समझी न, नयनों की भाषा क्या समझोगे
रूदन समझते हो आंसू को, मुस्कानों की भाषा क्या समझोगे
मौन की भाषा समझी न, क्या समझोगे मनुहार की भाषा
गुलदानों में रखते हो सूखे फूल, प्यार की भाषा क्या समझोगे
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तीर और तुक्का
एक बार आसमां पर तीर जरूर तानिए
लौटकर आयेगा, प्रभाव, उसका जानिए
तीर के साथ तुक्के का ध्यान भी रखें
नहीं तो तरकस खाली होगा, यह मानिए
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जीना चाहती हूँ
पीछे मुड़कर
देखना तो नहीं चाहती
जीना चाहती हूँ
बस अपने वर्तमान में।
संजोना चाहती हूँ
अपनी चाहतें
अपने-आपमें।
किन्तु कहाँ छूटती है
परछाईयाँ, यादें और बातें।
उलझ जाती हूँ
स्मृतियों के जंजाल में।
बढ़ते कदम
रुकने लगते हैं
आँखें नम होने लगती हैं
यादों का घेरा
चक्रव्यूह बनने लगता है।
पर जानती हूँ
कुछ नया पाने के लिए
कुछ पुराना छोड़ना पड़ता है,
अपनी ही पुरानी तस्वीर को
दिल से उतारना पड़ता है,
लिखे पन्नों को फ़ाड़ना पड़़ता है,
उपलब्धियों के लिए ही नहीं
नाकामियों के लिए भी
तैयार रहना पड़ता है।