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अपने भीतर झांककर इंसानियत को जीत
कर सके तो कर अपनी हैवानियत पर जीत
पूजा, अर्चना, आराधना का अर्थ है बस यही
कर ऐसे कर्म बनें सब इंसानियत के मीत
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प्रलोभनों के पीछे भागता मन
सर्वाधिकार की चाह में बहुत कुछ खो बैठते हैं
और-और की चाह में हर सीमा तोड़ बैठते हैं
प्रलोभनों के पीछे भागता मन, वश कहां रहा
अच्छे-बुरे की पहचान भूल, अपकर्म कर बैठते हैं
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भाईयों को भारी पड़ती थी मां।
भाईयों को भारी पड़ती थी मां।
पता नहीं क्यों
भाईयों से डरती थी मां।
मरने पर कौन देगा कंधा
बस यही सोचा करती थी मां।
जीते-जी रोटी दी
या कभी पिलाया पानी
बात होती तो टाल जाती थी मां।
जो कुछ है घर में
चाहे टूटा-फूटा या उखड़ा-बिखरा
सब भाइयों का है,
कहती थी मां।
बेटा-बेटा कहती फ़िरती थी
पर आस बस
बेटियों से ही करती थी मां।
राखी-टीके बोझ लगते थे
लगते थे नौटंकी
क्या रखा है इसमें
कहते थे भाई ।
क्या देगी, क्या लाई
बस यही पूछा करते थे भाई।
पर दुनिया कहती थी
बेचारे होते हैं वे भाई
जिनके सिर पर होता है
अविवाहित बहनों का बोझा
इसी कारण शादी करने
से डरती थी मैं।
मां-बाप की सेवा करना
लड़कियों का भी दायित्व होता है
यह बात समझाते थे भाई
लेकिन घर पर कोई अधिकार नहीं
ये भी बतलाते थे भाईA
एक दूर देश में चला गया
एक रहकर भी तो कहां रहा।
सोचा करती थी मैं अक्सर
क्या ऐसे ही होते हैं भाई।
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राजनीति अब बदल गई
राजनीति अब बदल गई, मानों दंगल हो रहे
देश-प्रेम की बात कहां, सब अपने सपने बो रहे
इसको काटो, उसको बांटों, बस सत्ता हथियानी है
धमा- चौकड़ी मची है मानों हथेली सरसों बो रहे
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अन्तर्मन का पंछी
अन्तर्मन का पंछी
कब क्या बोले,
क्या जानें।
कुछ टुक-टुक
कुछ कुट-कुट
कुछ उलझे, कुछ सुलझे
किससे क्या कह डाले
कब क्या सुन ले
आैर किससे क्या कह डाले
क्या जानें।
यूं तो पोथी-पोथी पढ़ता
आैर बात नासमझों-सी करता।
कब किसका चुग्गा
चुग डाले
आैर कब
माणिक –मोती ठुकराकर चल दे
क्या जाने।
भावों की लेखी
लिख डाले
किस भाषा में
किन शब्दों में
न हम जानें।
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सम्मान उन्हें देना है
आपको नहीं लगता
इधर हम कुछ ज़्यादा ही
आंसू बहाने लगे हैं,
उनकी कर्त्तव्यनिष्ठा पर
प्रश्नचिन्ह लगाने लगे हैं।
उनके समर्पण, देशप्रेम को
भुनाने में लगे हैं,
उन्होंने चुना है यह पथ,
इसलिए नहीं
कि आप उनके लिए
जार-जार रोंयें
उनके कृत्यों को
महिमामण्डित करें
और अपने कर्त्तव्यों से
हाथ धोयें,
कुछ शब्दों को घोल-घोलकर
तब तक निचोड़ते रहें
जब तक वे घाव बनकर
रिसने न लगें।
वे अपना कर्त्तव्य निभा रहे हैं
और हमें समझा रहे हैं।
देश के दुश्मन
केवल सीमा पर ही नहीं होते,
देश के भीतर,
हमारे भीतर भी बसे हैं।
हम उनसे लड़ें,
कुछ अपने-आप से भी करें
न करें दया, न छिछली भावुकता परोसें
अपने भीतर छिपे शत्रुओं को पहचानें
देश-हित में क्या करना चाहिए
बस इतना जानें।
बस यही सम्मान उन्हें देना है,
यही अभिमान उन्हें देना है।
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आप चलेंगे साथ मेरे
हम जानते हैं न
कि रक्त लाल होता है
गाढ़ा लाल।
पर पता नहीं क्यों
इधर लोग
बहुत बात करने लगे हैं
कि फ़लां का खून तो
सफ़ेद हो गया।
और यह भी कि
किसी का खून तो
अब बस ठण्डा ही हो गया है
कुछ भी हो जाये
उबाल ही नहीं आता।
मुझे और किसी के
खून से क्या लेना-देना
अपने ही खून की
जाँच करवाने जा रही हूँ
अभी लाल ही है
या सफ़ेद हो गया
ठण्डा है
या आता है
इसमें भी कभी उबाल।
आप चलेंगे साथ मेरे
जाँच के लिए ?
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धूप-छांव में उलझता मन
कोहरे की चादर
कुछ मौसम पर ,
कुछ मन पर।
शीत में अलसाया-सा मन।
धूप-छांव में उलझता,
नासमझों की तरह।
बहती शीतल बयार।
न जाने कौन-से भाव ,
दबे-ढके कंपकंपाने लगे।
कहना कुछ था ,
कह कुछ दिया,
सर्दी के कारण
कुछ शब्द अटक से गये थे,
कहीं भीतर।
मूंगफ़ली के छिलके-सी
दोहरी परतें।
दोनों नहीं
एक तो उतारनी ही होगी।
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सागर का मन
पूर्णिमा के चांद को देख
चंचल हो उठता है
सागर का मन,
उत्ताल तरंगें
उमड़ती हैं
उसके मन में,
वैसे ही सीमा-विहीन है
सागर का मन।
ऐसे में
और बिखर-बिखर जाता है,
कौन समझा है यहां।
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बस आपको गरीबी हटाने की बात नहीं करनी चाहिए।
कितना मुश्किल है
गरीबी पर कुछ लिखना।
डर लगता है
कोई अमीर पढ़ न ले,
और रूष्ट हो जाये मुझसे।
मेरे देश के कितने अमीर
आज भी भीतर से
गरीबी से उलझे-दबे बैठै हैं।
गरीबी की रोटियां निचोड़ रहे हैं।
सोने-चांदी के वर्कों में लिपटा आदमी
अपनी गरीबी की कहानी
बताता है हमें,
रटाता है हमें,
बार-बार सुनाता है हमें,
तब कहीं जाकर
गरीबी की महिमा समझ आती है।
तब कहीं जान पाते हैं,
कौन सड़क पर सोया था,
किसने रातें बिताईं थीं
फुटपाथ पर,
किसने क्या बेचा था
और माफ़ करना,
आज भी बेच रहा है।
और कौन रहा था भूखा
दिनों-दिनों तक।
अभी जब यह आदमी
अपनी गरीबी से ही नहीं
निकल पाया
तो देश की गरीबी को क्या जानेगा।
बस आपको
गरीबी हटाने की बात करनी आनी चाहिए।
गरीबी हटाने की बात नहीं करनी चाहिए।
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फागुन आया
बादलों के बीच से
चाँद झांकने लगा
हवाएँ मुखरित हुईं
रवि-किरणों के
आलोक में
प्रकृति गुनगुनाई
मन में
जैसे तान छिड़ी,
लो फागुन आया।