Share Me
आह! डाकिया!
खबरें संसार भर की।
डाक तरह-तरह की।
छोटी बात तो
पोस्टकार्ड भेजते थे,
औरों के अन्तर्देशीय पत्रों को
झांक-झांककर देखते थे।
और बन्द लिफ़ाफ़े को
चोरी से पढ़ने के लिए
थूक लगाकर
गीला कर खोलते थे।
जब चोरी की चिट्ठी आनी हो
तो द्वार पर खड़े होकर
चुपचाप डाकिए के हाथ से
पत्र ले लिया करते थे,
इससे पहले कि वह
दरार से चिट्ठी घर में फ़ेंके।
फ़टा पोस्टकार्ड
काली लकीर
किसी अनहोनी से डराते थे
और तार की बात से तो
सब कांपते थे।
सालों-साल सम्हालते थे
संजोते थे स्मृतियों को
अंगुलियों से छूकर
सरासराते थे पत्र
अपनों की लिखावट
आंखों को तरल कर जाती थी
होठों पर मुस्कान खिल आती थी
और चेहरा गुलाल हो जाया करता था
इस सबको छुपाने के लिए
किसी पुस्तक के पन्नों में
गुम हो जाया करते थे।
Share Me
Write a comment
More Articles
वन्दे मातरम् कहें
चलो
आज कुछ नया-सा करें
न करें दुआ-सलाम
न प्रणाम
बस, वन्दे मातरम् कहें।
देश-भक्ति के गीत गायें
पर सत्य का मार्ग भी अपनाएं।
शहीदों की याद में
स्मारक बनाएं
किन्तु उनसे मिली
धरोहर का मान बढ़ाएं।
न जाति पूछें, न धर्म बताएं
बस केवल
इंसानियत का पाठ पढ़ाएं।
झूठे जयकारों से कुछ नहीं होता
नारों-वादों कहावतों से कुछ नहीं होता
बदलना है अगर देश को
तो चलो यारो
आज अपने-आप को परखें
अपनी गद्दारी,
अपनी ईमानदारी को परखें
अपनी जेब टटोलें
पड़ी रेज़गारी को खोलें
और अलग करें
वे सारे सिक्के
जो खोटे हैं।
घर में कुछ दर्पण लगवा लें
प्रात: प्रतिदिन अपना चेहरा
भली-भांति परखें
फिर किसी और को दिखाने का साहस करें।
Share Me
पावस की पहली बूंद
पावस की पहली बूंद
धरा तक पहुंचते-पहुंचते ही
सूख जाती है।
तपती धरा
और तपती हवाएं
नमी सोख ले जाती हैं।
अब पावस की पहली बूंद
कहां नम करती है मन।
कहां उमड़ती हैं
मन में प्रेम-प्यार,
मनुहार की बातें।
समाचार डराते हैं,
पावस की पहली बूंद
आने से पहले ही
चेतावनियां जारी करते हैं।
सम्हल कर रहना,
सामान बांधकर रख लो,
राशन समेट लो।
कभी भी उड़ा ले जायेंगी हवाएँ।
अब पावस की बूंद,
बूंद नहीं आती,
महावृष्टि बनकर आती है।
कहीं बिजली गिरी
कहीं जल-प्लावन।
क्या जायेगा
क्या रह जायेगा
बस इसी सोच में
रह जाते हैं हम।
क्या उजड़ा, क्या बह गया
क्या बचा
बस यही देखते रह जाते हैं हम
और अगली पावस की प्रतीक्षा
करते हैं हम
इस बार देखें क्या होगा!!!
Share Me
अब घड़ी से नहीं चलती ज़िन्दगी
अक्सर लगता है,
कुछ
निठ्ठलापन आ गया है।
वे ही सारे काम
जो खेल-खेल में
हो जाया करते थे,
पल भर में,
अब, दिनों-दिन
बहकने लगे हैं।
सुबह कब आती है,
शाम कब ढल जाती है,
आभास चला गया है।
अंधेरे -उजाले
एक-से लगने लगे हैं।
घर बंधन तो नहीं लगता,
किन्तु बंधे से रहते हैं,
फिर भी वे सारे काम,
जो खेल-खेल में
हो जाया करते थे,
अब, दिनों तक
टहलने लगे हैं।
समय बहुत है,
शायद यही एहसास
समय के महत्व को
समझने से रोकता है।
घड़ी के घंटों से
नहीं बंधे हैं अब।
न विलम्ब की चिन्ता,
न लम्बित कार्यों की।
मैं नहीं तो
कोई और कर लेगा,
मुझे चिन्ता नहीं।
खेल-खेल में
क्या समय का महत्व
घटने लगा है।
कहीं एक तकलीफ़ तो है,
बस शब्द नहीं हैं।
घड़ियां बन्द पड़ी हैं,
अब घड़ी से नहीं चलती ज़िन्दगी,
पर पता नहीं
समय कैसे कटने लगा है।
Share Me
कवियों की पंगत लगी
कवियों की पंगत लगी, बैठे करें विचार
तू मेरी वाह कर, मैं तेरी, ऐसे करें प्रचार
भीड़ मैं कर लूंगा, तू अनुदान जुटा प्यारे
रचना कैसी भी हो, सब चलती है यार
Share Me
अभिनन्दन करते मातृभूमि का
वन्दन करते, अभिनन्दन करते मातृभूमि का जिस पर हमने जन्म लिया।
लोकतन्त्र देता अधिकार असीमित, क्या कर्त्तव्यों की ओर कभी ध्यान दिया।
देशभक्ति के नारों से, कुछ गीतों, कुछ व्याखानों से, जय-जय-जयकारों से ,
पूछती हूं स्वयं से, इससे हटकर देशहित में और कौन-कौन-सा कर्म किया।
Share Me
झूठे रिश्तों की आड़ में
नदियाँ सूख जाती हैं सागर उफ़नते रहते हैं
मन कुंठित होता है, हम फिर भी हंसते रहते हैं
सूखे पत्ते उड़ते हैं, गिरते हैं, ठौर नहीं मिलता
झूठे रिश्तों की आड़ में हम मन बहलाये रहते हैं।
Share Me
अब हर पत्थर के भीतर एक आग है।
मैंने तो सिर्फ कहा था "शब्द"
पता नहीं कब
वह शब्द नहीं रहे
चेतावनी हो गये।
मैंने तो सिर्फ कहा था "पत्थर"
तुम पता नहीं क्यों तुम
उसे अहिल्या समझ बैठे।
मैंने तो सिर्फ कहा था "नाम"
और तुम
अपने आप ही राम बन बैठे।
और मैंने तो सिर्फ कहा था
"अन्त"
पता नहीं कैसे
तुम उसे मौत समझ बैठे।
और यहीं से
ज़िन्दगी की नई शुरूआत हुई।
मौत, जो हुई नहीं
समझ ली गई।
पत्थर, जो अहिल्या नहीं
छू लिया गया।
और तुम राम नहीं।
और पत्थर भी अहिल्या नहीं।
जो शताब्दियों से
सड़क के किनारे पड़ा हो
किसी राम की प्रतीक्षा में
कि वह आयेगा
और उसे अपने चरणों से छूकर
प्राणदान दे जायेगा।
किन्तु पत्थर
जो अहिल्या नहीं
छू लिया गया
और तुम राम नहीं।
जब तक तुम्हें
सही स्थिति का पता लगता
मौत ज़िन्दगी हो गई
और पत्थर आग।
वैसे भी
अब तब मौमस बहुत बदल चुका है।
जब तक तुम्हें
सही स्थिति का पता लगता
मौत ज़िन्दगी हो गई
और पत्थर आग।
एक पत्थर से
दूसरे पत्थर तक
होती हुई यह आग।
अब हर पत्थर के भीतर एक आग है।
जिसे तुम देख नहीं सकते।
आज दबी है
कल चिंगारी हो जायेगी।
अहिल्या तो पता नहीं
कब की मर चुकी है
और तुम
अब भी ठहरे हो
संसार से वन्दित होने के लिए।
सुनो ! चेतावनी देती हूं !
सड़क के किनारे पड़े
किसी पत्थर को, यूं ही
छूने की कोशिश मत करना।
पता नहीं
कब सब आग हो जाये
तुम समझ भी न सको
सब आग हो जाये,एकाएक।।।।
Share Me
राख पर किसी का नाम नहीं होता
युद्ध की विभीषिका
देश, शहर
दुनिया या इंसान नहीं पूछती
बस पीढ़ियों को
बरबादी की राह दिखाती है।
हम समझते हैं
कि हमने सामने वाले को
बरबाद कर दिया
किन्तु युद्ध में
इंसान मारने से
पहले भी मरता है
और मारने के बाद भी।
बच्चों की किलकारियाँ
कब रुदन में बदल जाती हैं
अपनों को अपनों से दूर ले जाती हैं
हम समझ ही नहीं पाते।
और जब तक समझ आता है
तब तक
इंसानियत
राख के ढेर में बदल चुकी होती है
किन्तु हम पहचान नहीं पाते
कि यह राख हमारी है
या किसी और की।
Share Me
बताते हैं क्या कीजिए
सुना है ज्ञान, ध्यान, स्नान एक अनुष्ठान है, नियम, काल, भाव से कीजिए
तुलसी-नीम डालिए, स्वच्छ जल लीजिए, मंत्र पढ़िए, राम-राम कीजिए।।
शून्य तापमान, शीतकाल, शीतल जल, काम इतना कीजिए बस चुपचाप
चेहरे को चमकाईए, क्रीम लगाईए, और हे राम ! हे राम ! कीजिए ।।
Share Me
नेताजी का आसन
नेताजी ने कुर्सी त्याग दी
और भूमि पर आसन बिछाकर बैठ गये।
हमने पूछा, ऐसा क्यों किया आपने।
वैसे तो हमें पता है,
कि आपकी औकात ज़मीन की ही है,
किन्तु
कुर्सी त्यागना तो बहुत महानता की बात है,
कैसे किया आपने यह साहस।
नेताजी मुस्कुराये, बोले,
क्या तुम्हें भी बताना पड़ेगा,
कि कुर्सी की चार टांगे होती हैं
और इंसान की दो।
कोई भी, कभी भी पकड़कर
कोई-सी भी टांग खींच देता था।
अब हम भूमि पर, आसन जमाकर
पालथी मारकर बैठ गये हैं,
कोई दिखाये हमारी टांग खींचकर।
समझदारी की बात यह
कि कुर्सी के पीछे
तो लोग भागते-छीनते दिखाई देते हैं,
कभी आपने देखा है किसी को
आसन छीनते।
अब गांधी जी भी तो
भूमि पर आसन जमाकर ही बैठते थे,
कोई चला उनकी राह पर
आज तक मांगा उनका आसन किसी ने क्या।
नहीं न !
अब मैं नेताजी को क्या समझाती,
गांधी जी का आसन तो उनके साथ ही चला गया।
और नेताजी आपका आसन ,
आधुनिक भारतीय राजनीति का आसन है,
आप पालथी मारे यूं ही बैठे रह जायेंगे,
और जनता कब आपके नीचे से
आपका आसन खींचकर चलती बनेगी,
आपको पता भी नहीं चलेगा।