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प्रकृति के नियमों को
हम बदल नहीं सकते।
जीवन का आवागमन
तो जारी है।
मुझको जाना है,
नव-अंकुरण को आना है।
आस नहीं छोड़ी मैंने।
विश्वास नहीं छोड़ा मैंने।
धरा का आसरा लेकर,
आकाश ताकता हूं।
अपनी जड़ों को
फिर से आजमाता हूं।
अंकुरण तो होना ही है,
बनना और मिटना
नियम प्रकृति का,
मुझको भी जाना है।
न उदास हो,
नव-अंकुरण फूटेंगे,
यह क्रम जारी रहेगा,
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अंदाज़ उनका
उलझा कर गया अंदाज़ उनका
बहका कर गया अंदाज़ उनका
अंधेरे में रोशनियाँ हैं चमक रही
पराया कर गया अंदाज़ उनका
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बहुत आनन्द आता है मुझे
बहुत आनन्द आता है मुझे
जब लोग कहते हैं
सब ऊपर वाले की मर्ज़ी।
बहुत आनन्द आता है मुझे
जब लोग कहते हैं
कर्म कर, फल की चिन्ता मत कर।
बहुत आनन्द आता है मुझे
जब लोग कहते हैं
यह तो मेरे परिश्रम का फल है।
बहुत आनन्द आता है मुझे
जब लोग कर्मों का हिसाब करते हैं
और कहते हैं कि मुझे
कर्मानुसार मान नहीं मिला।
कहते हैं यह सृष्टि ईश्वर ने बनाई।
कर्मों का लेखा-जोखा
अच्छा-बुरा सब लिखकर भेजा है।
.
आपको नहीं लगता
हम अपनी ही बात में बात
बात में बात कर-करके
और अपनी ही बात
काट-काटकर
अकारण ही
परेशान होते रहते हैं।
-
लेकिन मुझे
बहुत आनन्द आता है।
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फहराता है तिरंगा
प्रकृति के प्रांगण में लहराता है तिरंगा
धरा से गगन तक फहराता है तिरंगा
हरीतिमा भी गौरवान्वित है यहां देखो
भारत का मानचित्र सजाता है तिरंगा
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मन तो घायल होये
मन की बात करें फिर भी भटकन होये
आस-पास जो घटे मन तो घायल होये
चिन्तन तो करना होगा क्यों हो रहा ये सब
आंखें बन्द करने से बिल्ली न गायब होये
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कहते हैं कोई फ़ागुन आया
फ़ागुन आया, फ़ागुन आया, सुनते हैं, इधर कोई फ़ागुन आया
रंग-गुलाल, उमंग-रसरंग, ठिठोली-होली, सुनते हैं फ़ागुन लाया
उपवन खिले, मन-मनमीत मिले, ढोल बजे, कहीं साज सजे
आकुल-व्याकुल मन को करता, कहते हैं, कोई फ़ागुन आया।
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नहीं समझ पाते स्याह सफ़ेद में अन्तर
गिरगिट की तरह
यहां रंग बदलते हैं लोग।
बस,
बात इतनी सी
कि रंग
कोई और चढ़ा होता है
दिखाई और देता है।
समय पर
हम कहां समझ पाते हैं
स्याह-सफ़ेद में अन्तर।
कब कौन
किस रंग से पुता है
हम देख ही नहीं पाते।
कब कौन
किस रंग में आ जाये
हम जान ही नहीं पाते।
अक्सर काले चश्मे चढ़ाकर
सफ़ेदी ढूंढने निकलते हैं।
रंगों से पुती है दुनिया,
कब किसका रंग उतरे,
और किस रंग का परदा चढ़ जाये
हम कहां जान पाते हैं।
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कुर्सियां
भूल हो गई मुझसे
मैं पूछ बैठी
कुर्सी की
चार टांगें क्यों होती हैं?
हम आराम से
दो पैरों पर चलकर
जीवन बिता लेते हैं
तो कुर्सी की
चार टांगें क्यों होती हैं?
कुर्सियां झूलती हैं।
कुर्सियां झूमती हैं।
कुर्सियां नाचती हैं।
कुर्सियां घूमती हैं।
चेहरे बदलती हैं,
आकार-प्रकार बांटती हैं,
पहियों पर दौड़ती हैं।
अनोखी होती हैं कुर्सियां।
किन्तु
चार टांगें क्यों होती हैं?
जिनसे पूछा
वे रुष्ट हुए
बोले,
तुम्हें अपनी दो
सलामत चाहिए कि नहीं !
दो और नहीं मिलेंगीं
और कुर्सी की तो
कभी भी नहीं मिलेंगी।
मैं डर गई
और मैंने कहा
कि मैं दो पर ही ठीक हूँ
मुझे चौपाया नहीं बनना।
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लाल बहादुर शास्त्री की स्मृति में
राजनीति में,
अक्सर
लोग बात करते हैं,
किसी के
पदचिन्हों पर चलने की।
किसी के विचारों का
अनुसरण करने की।
किसी को
अपनी प्रेरणा बनाने की।
एक सादगी, सीधापन,
सरलता और ईमानदारी!
क्यों रास नहीं आई हमें।
क्यों पूरे वर्ष
याद नहीं आती हमें
उस व्यक्तित्व की,
नाम भूल गये,
काम भूल गये,
उनका हम बलिदान भूल गये।
क्या इतना बदल गये हम!
शायद 2 अक्तूबर को
गांधी जी की
जयन्ती न होती
तो हमें
लाल बहादुर शास्त्री
याद ही न आते।
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पर प्यास तो बुझानी है
झुलसते हैं पांव, सीजता है मन, तपता है सूरज, पर प्यास तो बुझानी है
न कोई प्रतियोगिता, न जीवटता, विवशता है हमारी, बस इतनी कहानी है
इसी आवागमन में बीत जाता है सारा जीवन, न कोई यहां समाधान सुझाये
और भी पहलू हैं जिन्दगी के, न जानें हम, बस इतनी सी बात बतानी है
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सावन की बातें मनभावन की बातें
वो सावन की बातें, वो मनभावन की बातें, छूट गईं।
वो सावन की यादें, वो प्रेम-प्यार की बातें, भूल गईं।
मन डरता है, बरसेगा या होगा महाप्रलय कौन जाने,
वो रिमझिम की यादें, वो मिलने की बातें, छूट गईं ।