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रात गई, प्रात आई, लालिमा झिलमिल,
आते होंगे संगी-साथी, उड़ेंगे हिलमिल,
डाली पर फूल खिलेंगे, आस जीवन की,
तान छेड़ेंगे, राग नये गायेंगे, घुलमिल।
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मेरी पुस्तकों की कीमत
दीपावली, होली पर
खुलती है अब
पुस्तकों की आलमारी।
झाड़-पोंछ,
उलट-पलटकर
फिर सजा देती हूँ
पुस्तकों को
डैकोरेशन पीस की तरह ।
बस, इतने से ही
बहुत प्रसन्न हो लेती हूँ
कि मेरी
पुस्तकों की कीमत
कई सौ गुणा बढ़ गई है
दस की सौ हो गई है।
सोचती हूँ
ऐमाज़ान पर डाल दूँ।
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जिन्दगी की डगर
जिन्दगी की डगर यूं ही घुमावदार होती हैं
कभी सुख, कभी दुख की जमा-गुणा होती है
हर राह लेकर ही जाती है धरा से गगन तक
बस कदम-दर-कदम बढ़ाये रखने की ज़रूरत होती है
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‘गर किसी पर न हो मरना तो जीने का मजा क्या
कुछ यूं बात हुई
उनसे आंखें चार हुईं
दिल, दिल से छू गया
कहां-कहां से बात हुई
कुछ हम न समझे
कुछ वे न समझे
कुछ हम समझे
और कुछ वे समझे
कभी नींद उड़ी
कभी दिन में तारे चमके
कभी सपनों ही सपनों में बात हुई
बहके-बहके भाव चले
आंखों ही आंखों में कुछ बात हुई
उम्र हमारी साठ हुई
मिलने लगे कुछ उलाहने
सुनने में आया
ये क्या कर बैठे
हम तो उन पर मर बैठे
ये भी क्या बात हुई
जी हां,
हमने उनको समझाया
‘गर किसी पर
न हो मरना
तो
जीने का मजा क्या
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योग दिवस पर एक रचना
उदित होते सूर्य की रश्मियां
मन को आह्लादित करती हैं।
विविध रंग
मन को आह्लादमयी सांत्वना
प्रदान करते हैं।
शांत चित्त, एकान्त चिन्तन
सांसारिक विषमताओं से
मुक्त करता है।
सांसारिकता से जूझते-जूझते
जब मन उचाट होता है,
तब पल भर का ध्यान
मन-मस्तिष्क को
संतुलित करता है।
आधुनिकता की तीव्र गति
प्राय: निढाल कर जाती है।
किन्तु एक दीर्घ उच्छवास
सारी थकान लूट ले जाता है।
जब मन एकाग्र होता है
तब अधिकांश चिन्ताएं
कहीं गह्वर में चली जाती हैं
और स्वस्थ मन-मस्तिष्क
सारे हल ढूंढ लाता है।
इन व्यस्तताओं में
कुछ पल तो निकाल
बस अपने लिये।
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जिजीविषा के लिए
रंगों की रंगीनियों में बसी है जि़न्दगी।
डगर कठिन है,
पर जिजीविषा के लिए
प्रतिदिन, यूं ही
सफ़र पर निकलती है जिन्दगी।
आज के निकले कब लौटेंगे,
यूं ही एकाकीपन का एहसास
देती रहती है जिन्दगी।
मृगमरीचिका है जल,
सूने घट पूछते हैं
कब बदलेगी जिन्दगी।
सुना है शहरों में, बड़े-बडे़ भवनों में
ताल-तलैया हैं,
घर-घर है जल की नदियां।
देखा नहीं कभी, कैसे मान ले मन ,
दादी-नानी की परी-कथाओं-सी
लगती हैं ये बातें।
यहां तो,
रेत के दानों-सी बिखरी-बिखरी
रहती है जिन्दगी।
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जब चाहिए वरदान तब शीश नवाएं
जब-जब चाहिए वरदान तब तब करते पूजा का विधान
दुर्गा, चण्डी, गौरी सबके आगे शीश नवाएं करते सम्मान
पर्व बीते, भूले अब सब, उठ गई चौकी, चल अब चौके में
तुलसी जी कह गये,नारी ताड़न की अधिकारी यह ले मान।।
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कौन जाने सूरज उदित हुआ या अस्त
उस दिन जैसे ही सूरज डूबा,
अंधेरा होते ही
सामने के सारे पहाड़ समतल हो गये।
वैसे भी हर अंधेरा
समतल हुआ करता है,
और प्रकाश सतरंगा।
अंधेरा सुविधा हुआ करता है,
औेर प्रकाश सच्चाई।
-
तुम चाहो तो अपने लिए
कोई भी रंग चुन लो।
हर रंग एक आकाश हुआ करता है,
एक अवकाश हुआ करता है।
मैं तो
बस इतना जानती हूं
कि सफ़ेद रंग
सात रंगों का मिश्रण।
यह एकता, शांति
और समझौते का प्रतीक,
-आधार सात रंग।
अतः बस इतना ध्यान रखना
कि सफे़द रंग तक पहुंचने के लिए
तुम्हें सभी रंगों से गुज़रना होगा।
-
पता नहीं सबने कैसे मान लिया
कि सूरज उगा करता है।
मैंने तो जब भी देखा
सूरज को डूबते ही देखा।
हर ओर पश्चिम ही पश्चिम है,
और हर कदम
अंधेरे की ओर बढ़ता कदम।
-
मैं अक्सर चाहती हूं
कि कभी दिन रहते सूरज डूब जाये,
और दुनिया के लिए
खतरा उठ खड़ा हो।
-
सच कहना
क्या कभी तुमने सूरज उगता देखा है?
-
अगर तुमने कभी
सूरज को
उपर की ओर
आकाश की ओर बढ़ता देख लिया,
आग, तपिश और रोशनी थी उसमें
बस !
इतने से ही तुमने मान लिया
कि सूरजा उग आया।
-
हर चढ़ता सूरज
मंजिल नहीं हुआ करता।
पता नहीं कब दिन ढल जाये।
और कभी-कभी तो सूरज चढ़ता ही नहीं,
और दिन ढल जाता है।
मैंने तो जब भी देखा
सूरज को ढलते ही देखा।
-
डूबते सूरज की पहचान,
अंधेरे से रोशनी की ओर,
अतल से उपर की ओर।
इसीलिए
मैंने तो जब भी देखा,
सूरज को डूबते ही देखा।
-
हर डूबता दिन,
उगते तारे,
एक नये आने वाले दिन का,
एक नयी जिंदगी का,
संदेश दे जाते हैं।
जाने वाले क्षण
आने वाले क्षणों के पोषक,
बता जाते हैं कि शाम केवल डूबती नहीं,
हर डूबने के पीछे
नया उदय ज़रूरी है।
हर शाम के पीछे
एक सुबह है,
और चांद के पीछे सूरज -
सूरज को तो डूबना ही है,
पर एक उदय का सपना लेकर ।
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पीछे से झांकती है दुनिया
कुछ तो घटा होगा
जो यह पत्थर उठे होंगे।
कुछ तो टूटा होगा
जो यह घुटने फूटे होंगे।
कुछ तो मन में गुबार होगा
जो यूं हाथ उठे होंगे।
फिर, कश्मीर हो या कन्याकुमारी
कोई फ़र्क नहीं पड़ता।
वह कौन-सी बात है
जो शब्दों में नहीं ढाली जा सकी,
कलम ने हाथ खींच लिया
और हाथ में पत्थर थमा दिया।
अरे ! अबला-सबला-विमला-कमला
की बात मत करो,
मत करो बात लाज, ममता, नेह की।
एक आवरण में छिपे हैं भाव
कौन समझेगा ?
न यूं ही आरोप-प्रत्यारोप में उलझो।
कहीं, कुछ तो बिखरा होगा।
कुछ तो हुआ होगा ऐसा
कि चुप्पी साधे सब देख रहे हैं
न रोक रहे हैं, न टोक रहे हैं,
कि पीछे से झांकती है दुनिया
न रोकती है, न मदद करती है
न राह दिखाती है
तमाशबीन हैं सब।
कुछ शब्दों के, कुछ नयनों के।
क्यों ? क्यों ?
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फूल खिलखिलाए
बारिश के बाद धूप निखरी
आंसुओं के बाद मुस्कान बिखरी
बदलते मौसम के एहसास हैं ये
फूल खिलखिलाए, महक बिखरी
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चलो, आज बेभाव अपनापन बांटते हैं
किसी की प्यास बुझा सकें तो क्या बात है।
किसी को बस यूं ही अपना बना सकें तो क्या बात है।
जब रह रह कर मन उदास होता है,
तब बिना वजह खिलखिला सकें तो क्या बात है।
चलो आज उड़ती चिड़िया के पंख गिने,
जो काम कोई न कर सकता हो,
वही आज कर लें तो क्या बात है।
चलो, आज बेभाव अपनापन बांटते हैं,
किसी अपने को सच में अपना बना सकें तो क्या बात है।