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चिड़िया को पंख फैलाए नभ में उड़ते देखा
मुक्त गगन में आशाओं का उगता सूरज देखा
सूरज डूबेगा तो चंदा को भेजेगा राह दिखाने
तारों को दोनों के मध्य हमने विहंसते देखा
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तुम मेरी छाया हो
तुम मेरी छाया हो, प्रतिच्छाया हो
पर तुम्हें
अपने कदमों के निशान नहीं दे रहा हूं।
हर छपक-छपाक के साथ
मिट जाते हैं पिछले निशान
और नये बनते हैं
जो आप ही सिमट जाते हैं
जल की गहराईयों में।
इस छपाछप-छपाछप से देखो तो
बूंदें कैसे मोतियों-सी खिलती हैं।
फिर गगन, हवाओं और सागर के बीच
कहीं छूट जाती हैं,
सतरंगी आभा बिखेरकर
अन्तर्मन को छू जाती हैं।
यह जीवन का आनन्द है।
पर याद रखना
गगन की नीलाभा में
पवन के वेग में
और जल की लहरों पर
कभी कोई छाप नहीं छूटती।
इसके लिए कठोर तपती धरा पर
छोड़ने पड़ते हैं
अपने कदमों के निशान
जो सदियों-सदियों तक
ध्वनित होते हैं
गगन की उंचाईयों में
पवन के वेग में
और जल की लहरों में।
पर यह भी याद रखना
छपक-छपाक, छपाछप-छपाछप
जीवन का उतना ही हिस्सा है
जितना गगन, पवन और जल में
नाम अंकित कर सकना।
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तिनके का सहारा
कभी किसी ने कह दिया
एक तिनके का सहारा भी बहुत होता है,
किस्मत साथ दे
तो सीखा हुआ
ककहरा भी बहुत होता है।
लेकिन पुराने मुहावरे
ज़िन्दगी में साथ नहीं देते सदा।
यूं तो बड़े-बड़े पहाड़ों को
यूं ही लांघ जाता है आदमी,
लेकिन कभी-कभी एक तिनके की चोट से
घायल मन
हर आस-विश्वास खोता है।
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पर मुझे चिड़िया से तो पूछना होगा
नन्हीं चिड़िया रोज़ उड़ान भरती है
क्षितिज पर छितराए रंगों से आकर्षित होकर।
पर इससे पहले
कि चिड़िया उन रंगों को छू ले
रंग छिन्न-भिन्न हो जाते हैं ।
फिर रंग भी छलावा-भर हैं
शायद, तभी तो रोज़ बदलते हैं अपना अर्थ।
उस दिन
सूरज आग का लाल गोला था।
फिर अचानक किसी के गोरे माथे पर
दमकती लाल बिन्दी सा हो गया।
शाम घिरते-घिरते बिखरते सिमटते रंग
बिन्दी लाल, खून लाल
रंग व्यंग्य से मुस्कुराते
हत्या के बाद सुराग न मिल पाने पर
छूटे अपराधी के समान।
आज वही लाल–पीले रंग
चूल्हे की आग हो गये हैं
जिसमें रोज़ रोटी पकती है
दूध उफ़नता है, चाय गिरती है,
गुस्सा भड़कता है
फिर कभी–कभी, औरत जलती है।
आकाश नीला है, देह के रंग से।
फिर सब शांत। आग चुप।
सफ़ेद चादर । लाश पर । आकाश पर ।
कभी कोई छोटी चिड़िया
अपनी चहचहाहट से
क्षितिज के रंगों को स्वर देने लगती है
खिलखिलाते हैं रंग।
बच्चे किलोल करते हैं,
संवरता है आकाश
बिखरती है गालों पर लालिमा
जिन्दगी की मुस्कुराहट।
तभी, कहीं विस्फ़ोट होता है
रंग चुप हो जाते हैं,
बच्चा भयभीत।
और क्षितिज कालिमा की ओर अग्रसर।
अन्धेरे का लाभ उठाकर
क्षितिज – सब दफ़ना देता है
सुबह फ़िर सामान्य।
पीला रंग कभी तो बसन्त लगता है,
मादकता भरा
और कभी बीमार चेहरा, भूख
भटका हुआ सूरज,
मुर्झाई उदासी, ठहरा ठण्डापन।
सुनहरा रंग, सुनहरा संसार बसाता है
फिर अनायास
क्षितिज के माथे पर
टूटने– बिखरने लगते हैं सितारे
सब देखते है, सब जानते हैं,
पर कोई कुछ नहीं बोलता।
सब चुप ! क्षितिज बहुत बड़ा है !
सब समेट लेगा।
हमें क्या पड़ी है।
इतना सब होने पर भी
चिड़िया रोज़ उड़ान भरती है।
पर मैं, अब
शेष रंगों की पहचान से
डर गई हूं
और पीछे हट गई हूं।
समझ नहीं पा रही हूं
कि चिड़िया की तरह
रोज़ उड़ान भरती रहूं
या फ़िर इन्हीं रंगों से
क्षितिज का इतिहास लिख डालूं
पर मुझे
चिड़िया से तो पूछना होगा।
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तुम तो चांद से ही जलने लगीं
तुम्हें चांद क्या कह दिया मैंने, तुम तो चांद से ही जलने लगीं
सीढ़ियां तानकर गगन से चांद को उतारने की बात करने लगीं
अरे, चांद का तो हर रात आवागमन रहता है टिकता नहीं कभी
हमारे जीवन में बस पूर्णिमा है,इस बात को क्यों न समझने लगीं
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शब्दों के घाव
दिल के
कुछ ज़ख्मों का दर्द
मानों दर्द नहीं होता,
स्मृतियों का
खजाना होता है,
उनकी टीस
आनन्द देती है
कुछ यादें
कुछ वफ़ाएँ
कुछ बेवफ़ाएँ
शब्दों के घाव
रिसते रहते हैं
चुभते हैं
पर भरने का
मन नहीं करता
आँखें बन्द कर
कुरेदने में मज़ा आता है
और जब आँख का पानी
रिसता है
उन जख़्मों पर,
तब टीस
और गहरी होती है
और आनन्द और ज़्यादा।
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विश्वास के लायक कहीं कोई मिला नहीं था
जीवन में क्यों कोई हमारे हमराज़ नहीं था
यूं तो चैन था, हमें कोई एतराज़ नहीं था
मन चाहता है कि कोई मिले, पर क्या करें
विश्वास के लायक कहीं कोई मिला नहीं था
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झाड़ पर चढ़ा करता है आदमी
सुना है झाड़ पर चढ़ा करता है आदमी
देखूं ज़रा कहां-कहां पड़ा है आदमी
घास, चारा, दाना-पानी सब खा गया
देखूं अब किस जुगाड़ में लगा है आदमी
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कण-कण नेह से भीगे
रंगों की रंगीनीयों से मन भरमाया।
अप्रतिम सौन्दर्य निरख मन हर्षाया।
घटाओं से देखो रोशनी है झांकती,
कण-कण नेह से भीगे, आनन्द छाया।
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मन तो घायल होये
मन की बात करें फिर भी भटकन होये
आस-पास जो घटे मन तो घायल होये
चिन्तन तो करना होगा क्यों हो रहा ये सब
आंखें बन्द करने से बिल्ली न गायब होये
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अरे अपने भीतर जांच
शब्दों की क्या बात करें, ये मन बड़ा वाचाल है
इधर-उधर भटकता रहता, न अपना पूछे हाल है
तांक-झांक की आदत बुरी, अरे अपने भीतर जांच
है सबका हाल यही, तभी तो सब यहां बेहाल हैं