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यह असमंजस की स्थिति है
कि जब भी मैं
सिर उठाकर
धरती से
आकाश को
निहारती थी
तब चांद-तारे सब
छोटे-छोटे से दिखाई देते थे
कि जब चाहे मुट्ठी में भर लूं।
दमकते सूर्य को
नज़बट्टू बनाकर
द्वार पर टांग लूं।
लेकिन यहां धरती पर
आशाओं-आकांक्षाओं का जाल
निराकार होते हुए भी
इतना बड़ा है
कि न मुट्ठी में आता है
न हृदय में समाता है।
चाहतें बड़ी-बड़ी
विशालकाय
आकाश में भी न समायें।
मन, छोटा-सा
ज़रा-ज़रा-सी बात पर
बड़ा-सा ललचाए।
खुली मुट्ठी बन्द नहीं होती
और बन्द हो जाये
तो खुलती नहीं,
दरकता है सब।
छूटता है सब।
टूटता है सब।
आकाश और धरती के बीच का रास्ता
बहुत लम्बा है
और अनजाना भी
और शायद अकेला भी।
खुली-बन्द होती मुट्ठियों के बीच
बस
रह जाता है आवागमन।
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आवागमन में बीत जाता है सारा जीवन
झुलसते हैं पांव, सीजता है मन, तपता है सूरज, पर प्यास तो बुझानी है
न कोई प्रतियोगिता, न जीवटता, विवशता है हमारी, बस इतनी कहानी है
इसी आवागमन में बीत जाता है सारा जीवन, न कोई यहां समाधान सुझाये
और भी पहलू हैं जिन्दगी के, न जानें हम, बस इतनी सी बात बतानी है
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विश्व चाय दिवस
सुबह से भूली-भटकी अभी मंच पर आगमन हुआ तो ज्ञात हुआ कि आज तो अन्तर्राष्ट्रीय चाय दिवस अथवा विश्व चाय दिवस है।
ऐसा कैसे सम्भव है। चाय का और केवल एक दिवस! नहीं, नहीं, यह तो चाय का और चाय के नशेड़ियों का घोर अपमान है।
शिमला में हम परिवार में आठ सदस्य थे, दिन-भर में 80-90 चाय तो बनती ही होगी और वह भी लार्ज पटियाला साईज़, पीतल के बड़े गिलास। मेरी दादी मेरी माँ से कहती थी पानी की टंकी में ही चीनी-पत्ती डाल दे, अपने-आप सब दिन-भर पीते रहेंगे।
दिन भर में पाँच-छः चाय तो अब भी पी ही लेती हूँ। कुछ वर्ष पहले तक दस-बारह हो ही जाती थी। उससे पहले 12-15। गज़ब की पाचन-क्षमता रही है मेरी। प्रातः घर से 7.30 निकल जाती थी किन्तु आम बात थी कि चार से पांच चाय पी लेती थी। काम करते-करते एक कप खाली हुआ, दूसरा तैयार। एक नाश्ते के साथ और दूसरा नाश्ते के बाद। फिर कार्यालय पहुँचकर टेबल पर सबसे पहले चाय। चाय देने वाले को भी पता था कि मैडम को कितनी चाय चाहिए होती है। वैसे भी छोटे-छोटे गिलास में आती चाय वैसे ही मूड खराब कर देती है इस कारण मुझे हर जगह अपना ही कप या गिलास रखना पड़ता था। जब मेरा स्थानान्तरण हुआ तो मज़ाक किया जाता था कि कंटीन तो अब बन्द हो जायेगी, कविता तो जा रही है।
मेरे लिए चाय का अर्थ है शुद्ध चाय। अर्थात पानी, ठीक-सा दूध, चीनी और पत्ती। कुछ लोग चाय के नाम पर काढ़ा पीना पसन्द करते हैं। हाय! अदरक नहीं डाला, छोटी इलायची के बिना तो स्वाद ही नहीं आता, दालचीनी वाली चाय बड़ी स्वाद होती है। दूध वाली गाढ़ी चाय होनी चाहिए। अरे तो दूध ही पी लीजिए, चाय के बहाने दूध क्यों पी रहे हैं, सीधे-सीधे कहिए कि दूध पीना है। कुछ लोग चाय का मसाला बनाकर रखते हैं। अरे ! ऐसी ही चाय पीनी है तो गर्म मसाला ही पी लीजिए, चाय को क्यों बदनाम कर रहे हैं।
लोग कहते हैं चाय से गैस हो जाती है, नींद नहीं आती है अथवा नींद आ जाती है। पता नहीं कैसे हैं यह लोग।
आह! किसी समय, कितनी बार, कहीं भी, बस चाय, चाय और चाय।
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जीवन में यह उलट-पलट होती है
बहुत छोटी हूं मैं
कुछ समझने के लिए।
पर
इतनी छोटी भी तो नहीं
कि कुछ भी समझ न आये।
मेरे आस-पास लोग कहते हैं
हर औरत मां होती है
बहन होती है,पत्नी होती है
बेटी और सखा होती है।
फिर मुझे देखकर कहते हैं
देखो,कष्टों में भी मुस्कुरा लेती है
ममतामयी, देवी है देवी।
मुझे नहीं पता
औरत क्या, मां क्या,
बेटी क्या, बहन क्या, देवी क्या
और ममता क्या होती है।
मुझे नहीं पता
मेरी गोद यह में कौन है
बेटा है, भाई है
पति है, या कोई और।
बहुत सी बातें
नहीं समझ पाती हूं
और जो समझ जाती हूं
वह भी कहां समझ पाती हूं।
लोग कहते हैं, देखो
भाई की देख-भाल करती है।
बड़ा होकर यही तो है
इसकी रक्षा करेगा
राखी बंधवायेगा, हाथ पीले करेगा,
अपने घर भेजेगा।
कोई समझायेगा मुझे
जीवन में यह उलट-पलट कैसे होती है।
बहुत सी बातें
नहीं समझ पाती हूं
और जो समझ जाती हूं
वह भी कहां समझ पाती हूं।
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कोल्हू के बैल सरकारी मेहमान हो गये हैं
कोल्हू के बैलों की
आजकल
नियुक्ति बदल गई है,
कुछ कार्यविधि भी।
गांवों से शहरों में
विस्थापित होकर
सरकारी मेहमान हो गये हैं।
अब वे पिसते नहीं
पीसते हैं तेल।
वे किस-किसका तेल निकालते हैं
पता नहीं।
यह भी पता नहीं लग पा रहा
कि कौन-सा तेल निकालते हैं।
वैसे तो पिछले 18 दिन से
चर्चा में है कोई तेल,
वही निकाल रहे हैं
या कोई और।
एक समिति का गठन
कर लिया गया है जांच के लिए।
पर कोई भी तेल निकालें
अन्ततः
निकलना तो हमारा ही है।
किन्तु ध्यान रहे
पीपा लेकर मत आ जाना
भरने के लिए।
इस तेल से रोटी न बना डालना,
क्योंकि, अभी सरकारी जांच जारी है,
कोई विदेशी सामान न लगा हो कोल्हू में।
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मन गया बहक बहक
चिड़िया की कुहुक-कुहुक, फूलों की महक-महक
तुम बोले मधुर मधुर, मन गया बहक बहक
सरगम की तान उठी, साज़ बजे, राग बने,
सतरंगी आभा छाई, ताल बजे ठुमक ठुमक
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आंखें फ़ेर लीं
अपनों से अपनेपन की चाह में
जीवन-भर लगे रहे हम राह में
जब जिसने चाहा आंखें फ़ेर लीं
कहीं कोई नहीं था हमारी परवाह में
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जीवन की नश्वरता का सार
अंगुलियों से छूने की कोशिश में भागती हैं ये ओस की बूंदें
पत्तियों पर झिलमिलाती, झूला झूलती हैं ये ओस की बूंदें
जीवन की नश्वरता का सार समझा जाती हैं ये ओस की बूंदें
मौसम बदलते ही कहीं लुप्त होने लगती हैं ये ओस की बूंदे
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बांसुरी अब भावशून्य हो गई
कृष्ण तेरी बांसुरी अब
भावशून्य हो गई।
राधा तेरे नृत्य की गति भी
कहीं खो गई।
छोड़ अब ये रास लीला,
प्रेम मनुहार की बातें।
चक्र उठा,
कंस, दु:शासन,दुर्योधनों की
भीड़ भारी हो गई।
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सोने की हैं ये कुर्सियां
सरकार अपनी आ गई है चल अब तोड़ाे जी ये कुर्सियां
काम-धाम छोड़-छाड़कर अब सोने की हैं जी ये कुर्सियां
पांच साल का टिकट कटा है हमरे इस आसन का
कई पीढ़ियों का बजट बनाकर देंगी देखो जी ये कुर्सियां
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हमारा छोटा-सा प्रयास
ये न समझना
कि पीठ दिखाकर जा रहे हैं हम
तुमसे डरकर भाग रहे हैं हम
चेहरे छुपाकर जा रहे हैं हम।
क्या करोगे चेहरे देखकर,
बस हमारा भाव देखो
हमारा छोटा-सा प्रयास देखो
साथ-साथ बढ़ते कदमों का
अंदाज़ देखो।
तुम कुछ भी अर्थ निकालते रहो
कितने भी अवरोध बनाते रहो
ठान लिया है
जीवन-पथ पर यूँ ही
आगे बढ़ना है
दुःख-सुख में
साथ निभाना है।
बस
एक प्रतीक-मात्र है
तुम्हें समझाने का।