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झुलसते हैं पांव, सीजता है मन, तपता है सूरज, पर प्यास तो बुझानी है
न कोई प्रतियोगिता, न जीवटता, विवशता है हमारी, बस इतनी कहानी है
इसी आवागमन में बीत जाता है सारा जीवन, न कोई यहां समाधान सुझाये
और भी पहलू हैं जिन्दगी के, न जानें हम, बस इतनी सी बात बतानी है
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कहते हैं हाथ की है मैल रूपया
जब से आया बजट है भैया, अपनी हो गई ता-ता थैया
जब से सुना बजट है वैरागी होने को मन करता है भैया
मेरा पैसा मुझसे छीनें, ये कैसी सरकार है भैया
देखो-देखो टैक्स बरसते, छाता कहां से लाउं मैया
कहते हैं हाथ की है मैल रूपया, थोड़ी मुझको देना भैया
छल है, मोह-माया है, चाह नहीं, कहने की ही बातें भैया
टैक्स भरो, टैक्स भरो, सुनते-सुनते नींद हमारी टूट गई
मुट्ठी से रिसता है धन, गुल्लक मेरी टूट गई
जब से सुना बजट है भैया, मोह-माया सब छूट गई
सिक्के सारे खन-खन गिरते किसने लूटे पता नहीं
मेरी पूंजी किसने लूटी, कैसे लूटी मुझको यह तो पता नहीं
किसकी जेबें भर गईं, किसकी कट गईं, कोई न जानें भैया
इससे बेहतर योग चला लें, चल मुफ्त की रोटी खाएं भैया
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ज़मीन से उठते पांव थे
आकाश को छूते अरमान थे
ज़मीन से उठते पांव थे
आंखों पर अहं का परदा था
उल्टे पड़े सब दांव थे
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पूजा में हाथ जुड़ते नहीं
पूजा में हाथ जुड़ते नहीं,
आराधना में सिर झुकते नहीं।
मंदिरों में जुटी भीड़ में
भक्ति भाव दिखते नहीं।
पंक्तियां तोड़-तोड़कर
दर्शन कर रहे,
वी आई पी पास बनवा कर
आगे बढ़ रहे।
पण्डित चढ़ावे की थाली देखकर
प्रसाद बांट रहे,
फिल्मी गीतों की धुनों पर
भजन बज रहे,
प्रायोजित हो गई हैं
प्रदर्शन और सजावट
बन गई है पूजा और भक्ति,
शब्दों से लड़ते हैं हम
इंसानियत को भूलकर
जी रहे।
सच्चाई की राह पर हम चलते नहीं।
इंसानियत की पूजा हम करते नहीं।
पत्थरों को जोड़-जोड़कर
कुछ पत्थरों के लिए लड़ मरते हैं।
पर किसी डूबते को
तिनका का सहारा
हम दे सकते नहीं।
शिक्षा के नाम पर पाखण्ड
बांटने से कतराते नहीं।
लेकिन शिक्षा के नाम पर
हम आगे आते नहीं।
कैसे बढ़ेगा देश आगे
जब तक
पिछले कुछ किस्से भूलकर
हम आगे आते नहीं।
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मेरा आधुनिक विकासशील भारत
यह मेरा आधुनिक विकासशील भारत है
जो सड़क पर रोटियां बना रहा है।
यह मेरे देश की
पचास प्रतिशत आबादी है
जो सड़क पर अपनी संतान को
जन्म देती है
उनका लालन-पालन करती है
और इस प्राचीन
सभ्य, सुसंस्कृत देश के लिए
नागरिक तैयार करती है।
यह मेरे देश की वह भावी पीढ़ी है
जिसके लिए
डिजिटल इंडिया की
संकल्पना की जा रही है।
यह मेरे देश के वे नागरिक हैं
जिनकी शिक्षा, स्वास्थ्य और विकास
के विज्ञापनों पर
अरबों-खरबों रूपये लगाये जा रहे हैं,
बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ
अभियान चला रहे हैं।
इन सब की सुरक्षा
और विकास के लिए
धरा से गगन तक के
मार्ग बनाये जा रहे हैं।
क्या यह भारत
चांद और उपग्रहों से नहीं दिखाई देता ?
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जीवन अंधेरे और रोशनियों के बीच
अंधेरे को चीरती
ये झिलमिलाती रोशनियां,
अनायास,
उड़ती हैं
आकाश की ओर।
एक चमक और आकर्षण के साथ,
कुछ नये ध्वन्यात्मक स्वर बिखेरतीं,
फिर लौट आती हैं धरा पर,
धीरे-धीरे सिमटती हैं,
एक चमक के साथ,
कभी-कभी
धमाकेदार आवाज़ के साथ,
फिर अंधेरे में घिर जाती हैं।
जीवन जब
अंधेरे और रोशनियों में उलझता है,
तब चमक भी होती है,
चिंगारियां भी,
कुछ मधुर ध्वनियां भी
और धमाके भी,
आकाश और धरा के बीच
जीवन ऐसे ही चलता है।
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गुनगुनाता है चांद
शाम से ही
गुनगुना रहा है चांद।
रोज ही की बात है
शाम से ही
गुनगुनाता है चांद।
सितारों की उलझनों में
वृक्षों की आड़ में
नभ की गहराती नीलिमा में
पत्तों के झरोखों से,
अटपटी रात में
कभी इधर से,
कभी उधर से
झांकता है चांद।
छुप-छुपकर देखता है
सुनता है,
समझता है सब चांद।
कुछ वादे, कुछ इरादे
जीवन भर
साथ निभाने की बातें
प्रेम, प्यार के किस्से,
कुछ सच्चे, कुछ झूठे
कुछ मरने-जीने की बातें
सब जानता है
इसीलिए तो
रोज ही की बात है
शाम से ही
गुनगुनाता है चांद
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छोटी रोशनियां सदैव आकाश बड़ा देती हैं
छोटी-सी है अर्चना,
छोटा-सा है भाव।
छोटी-सी है रोशनी।
अर्पित हैं कुछ फूल।
नेह-घृत का दीप समर्पित,
अपनी छाया को निहारे।
तिरते-तिरते जल में
भावों का गहरा सागर।
हाथ जोड़े, आंख मूंदे,
क्या खोया, क्या पाया,
कौन जाने।
छोटी रोशनियां
सदैव आकाश बड़ा देती हैं,
हवाओं से जूझकर
आभास बड़ा देती हैं।
सहज-सहज
जीवन का भास बड़ा देती हैं।
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मेरी असमर्थ अभिव्यक्ति
जब भी
कुछ कहने का
प्रयास करती हूं कविता में,
तभी पाती हूं
कि उसे ही
एक अनजानी सी भाषा में,
अनजाने अव्यक्त शब्दों में,
जिनसे मैं जुड़ नहीं पाती
पूरी कोशिश के बावजूद भी,
किसी और ने
पहले ही कह रखी है वह बात।
.
या फिर
अनुभव मैं यह करती हूं,
कि जो मैं कहना चाहती हूं,
वह किसी और ने
मेरी ही भावनाएं चुराकर,
मानों मुझसे ही पूछकर,
मेरे ही विचार
मेरी ही इच्छानुसार,
लेकिन मुझसे पहले ही
अभिव्यक्त कर दिये हैं,
सही शब्दों में
सही लोगों के सामने
और सही रूप में।
शब्दों की तलाश में
भटकती थी मैं
जिनकी अभिव्यक्ति के लिए।
सारे शब्द
निर्थरक हो जाते थे
जिसे कहने के लिए मेरे सामने
वही बातें
कविता में व्यक्त कर दी हैं
किसी ने मानों
मेरी ही इच्छानुसार।
या फिर
तुम्हारा, उसका, इसका
सबका लिखा
गलत लगता है।
झूठ और छल।
मानों सब मिलकर
मेरे विरूद्ध
एक षड्यन्त्र के भागीदार हों।
मैं,
विरोध में कलम उठाती हूं
लिखना चाहती हूं
तुम्हारे, उसके, इसके लिखे के विरोध में।
बार बार लिखती हूं
पर फिर भी
अनलिखी रह जाती हूं
अनुभव बस एक अधूरेपन का।
आक्रोश, गुस्सा, झुंझलाहट,
विरोध, विद्रोह,
कुछ नहीं ठहरता।
इससे पहले कि लिखना पूरा करूं
चाय बनानी है, रोटी पकानी है
कपड़े धोने हैं
बीच में बच्चा रोने लगेगा
इसी बीच
स्याही चुक जाती है।
रोज़ नया आक्रोश जन्म लेता है
और चाय के साथ उफ़नकर
ठण्डा हो जाता है।
कभी लिख भी लेती हूं
तो बड़ा नाम नहीं है मेरे पास।
सम्पर्क साधन भी नहीं।
किसी गुट में भी नहीं।
फिर, किसी प्राध्यापक की
चरण रज भी नहीं ली मैंने।
किसी के बच्चे को टाफ़ियां भी नहीं खिलाईं
और न ही किसी की पत्नी को
भाभीजी बनाकर उसे तोहफ़े दिये।
मेरे पिता के पास भी
इतनी सामर्थ्य न थी
कि वे उनका कोई काम कर देते।
फिर वे मेरी रचनाओं में रूचि कैसे लेते।
और
इस सबके बाद भी लगता है
मैं ही गलत हूं कहीं
खामोश हो जीती हूं तब
अनकही, यह सोचकर
कि चलो
मेरे विचारों की अभिव्यक्ति हुई तो सही
मेरे द्वारा नहीं
तो किसी और के माध्यम से ही सही
पूर्णतया अस्पष्ट तो रही नहीं
प्रकट तो हुई
स्वयं नहीं कर पाई
तो किसी और की कृपा से
लोगों तक बात पहुंची तो सही
शायद यही कारण है
कि लोगों की लिखी कविताओं का
इतना बड़ा संग्रह मेरे पास है
जो कहीं मेरा अपना है।
पर सचमुच
आश्चर्य तो होता ही है
कि मेरे विचार
मेरी ही इच्छानुसार
मैं नहीं कोई और
कैसे अभिव्यक्त कर लेते हैं
इतने समर्थ होकर
.
जो मैं चाहती हूं
वही तुम भी चाहते हो
ऐसा कैसे।
तो क्या
इस दुनिया में
मेरे अतिरिक्त भी इंसान बसते हैं
या फिर
इस दुनिया में रहकर भी
मेरे भीतर इंसानियत बची है !
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विरोध से दुनिया नहीं चलती
ज़रा ज़रा सी बात पर अक्सर क्रोध करने लगी हूं मैं
किसी ने ज़रा सी बात कह दी तर्क करने लगी हूं मैं
विरोध से दुनिया नहीं चलती, सब समझाते हैं मुझे
समझाने वालों से भी इधर बहुत लड़ने लगी हूं मैं
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एक मानवता को बसाने में
ये धुएँ का गुबार
और चमकती रोशनियाँ
पीढ़ियों को लील जाती हैं
अपना-पराया नहीं पहचानतीं
बस विध्वंस को जानती हैं।
किसी गोलमेज़ पर
चर्चा अधूरी रह जाती है
और परिणामस्वरूप
धमाके होने लगते हैं
बम फटने लगते हैं
लोग सड़कों-राहों पर
मरने लगते हैं।
क्यों, कैसे, किसलिए
कुछ नहीं होता।
शताब्दियाँ लग जाती हैं
एक मानवता को बसाने में
और पल लगता है
उसको उजाड़ कर चले जाने में।
फिर मलबों के ढेर में
खोजते हैं
इंसान और इंसानियत,
कुछ रुपये फेंकते हैं
उनके मुँह पर
ज़हरीले आंसुओं से सींचते हैं
उनके घावों को
बदले की आग में झोंकते हैं
उनकी मानसिकता को
और फिर एक
गोलमेज़ सजाने लगते हैं।