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आदमी आदमी से पूछता है
कहां मिलेगा आदमी
आदमी आदमी से पूछता है
कहीं मिलेगा आदमी
आदमी आदमी से डरता है
कहीं मिल न जाये आदमी
आदमी आदमी से पूछता है
क्यों डर कर रहता है आदमी
आदमी आदमी से कहता है
हालात बिगाड़ गया है आदमी
आदमी आदमी को बताता है
कर्त्तव्यों से भागता है आदमी
आदमी आदमी को बताता है
अधिकार की बात करता है आदमी
आदमी आदमी को सताता है
यह बात जानता है हर आदमी
आदमी आदमी को बताता है
हरपल जीकर मरता है आदमी
आदमी आदमी को बताता है
सबसे बेकार जीव है तू आदमी
आदमी आदमी से पूछता है
ऐसा क्यों हो गया है आदमी
आदमी आदमी को समझाता है
आदमी से बचकर रहना हे आदमी
और आदमी, तू ही आदमी है
कैसे भूल गया, तू हे आदमी !
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क्यों करें किसी से गिले
कांटों के संग फूल खिले
अनजाने कुछ मीत मिले
सारी बातें आनी जानी हैं
क्यों करें किसी से गिले
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कंधों पर सिर लिए घूमते हैं
इस रचना में पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग किया गया है, पर्यायवाची शब्दों में भी अर्थ भेद होता है, इसी अर्थ भेद के कारण मुहावरे बनते हैं, ऐसा मैं समझती हूं, इसी दृष्टि से इस रचना का सृजन हुआ है
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सुनते हैं
अक्ल घास चरने गई है
मति मारी गई है
और समझ भ्रष्ट हो गई है
विवेक-अविवेक का अन्तर
भूल गये हैं
और मनीषा, प्रज्ञा, मेधा
हमारे ऋषि-मुनियों की
धरोहर हुआ करती थीं
जिन्हें हम सम्हाल नहीं पाये
अपनी धरोहर को।
बुद्धि-विवेक कहीं राह में छूट गये
और हम
यूं ही
कंधों पर सिर लिए घूमते हैं।
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एक अपनापन यूं ही
सुबह-शाम मिलते रहिए
दुआ-सलाम करते रहिए
बुलाते रहिए अपने घर
काफ़ी-चाय पिलाते रहिए
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मन के पिंजरे खोल रे मनवा
मन विहग!
मन के पिंजरे खोल रे मनवा,
मन के बंधन तोड़ रे मनवा।
कुछ तो टूटेगा,
कुछ तो बिखरेगा,
कुछ तो बदलेगा।
गगन विशाल,
उड़ान बड़ी है,
पंख मिले छोटे,
कुछ कतरे गये।
कुछ टूटे,
कुछ बिखर गये।
चाहत न छोड़,
मन को न मोड़,
उड़ान भर,
आज नहीं तो कल,
कल नहीं तो कभी,
या फिर अभी
चाहतों को जोड़,
मन को न मोड़।
उड़ान भर।
न डर, बस
मन के पिंजरे खोल रे मनवा,
मन के बंधन तोड़ रे मनवा।
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इक आग बनती है
तीली से तीली जलती है
यूँ ही इक आग बनती है।
छोटी-छोटी चिंगारियों से
दिल जलता है
कभी बुझता है
कभी भड़कता है।
राख के ढेर नहीं बनते
इतनी-सी आग से
किन्तु जले दिल में
कितने पत्थर
और पहाड़ बनते हैं
कुछ सरकते हैं
कुछ खड़े रहते हैं।
और हम, यूँ ही, बात-बेबात
मुस्कुराते रहते हैं।
दरकते पहाड़ों के बीच से
भरभराती मिट्टी
बहुत कुछ ले डूबती है
किन्तु कौन समझता है
हमारी इस बेमतलब मुस्कान को।
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हिन्दी कहां गई कि इसको अपना मनवाना है
हिन्दी कहां गई कि इसको अपना मनवाना है
हिन्दी मेरा मान है,
मेरा भारत महान है।
घूमता जहान है।
किसकी भाषा,
कौन सी भाषा,
किसको कितना ज्ञान है।
जबसे जागे
तब से सुनते,
हिन्दी को अपनाना है।
समझ नहीं पाई आज तक
कहां से इसको लाना है।
जब है ही अपनी
तो फिर से क्यों अपनाना है।
कहां गई थी चली
कि इसको
फिर से अपना मनवाना है।
’’’’’’’’’.’’’’’’
कुछ बातें
समय के साथ
समझ से बाहर हो जाती हैं,
उनमें हिन्दी भी एक है।
काश! कविताएं लिखने से,
एक दिन मना लेने से,
महत्व बताने से,
किसी का कोई भला हो पाता।
मिल जाती किसी को सत्ता,
खोया हुआ सिंहासन,
जिसकी नींव
पिछले 72 वर्षों से
कुरेद रहे हैं।
अपनी ही
भाषाओं और बोलियों के बीच
सत्ता युद्ध करवा रहे हैं।
कबूतर के आंख बंद करने मात्र से
बिल्ली नहीं भाग जाती।
काश!
यह बात हमारी समझ में आ जाती,
चलने दो यारो
जैसा चल रहा है।
हां, हर वर्ष
दो-चार कविताएं लिखने का मौका
ज़रूर हथिया ले लेना
और कोई पुरस्कार मिले
इसका भी जुगाड़ बना लेना।
फिर कहना
हिन्दी मेरा मान है,
मेरा भारत महान है।
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आज़ादी की क्या कीमत
कहां समझे हम आज़ादी की क्या कीमत होती है।
कहां समझे हम बलिदानों की क्या कीमत होती है।
मिली हमें बन्द आंखों में आज़ादी, झोली में पाई हमने
कहां समझे हम राष्ट््भक्ति की क्या कीमत होती है।
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एक मुस्कान हो जाये
देर से
तुम्हें निहारते निहारते
मेरे जीवन में भी
रंग करवट लेने लगे है।।
इस में
अपनों से
मन की बात कह ली हो
तो चलो
एक उड़ान हो जाये
एक मुस्कान हो जाये
बस यूं
गुमसुम गुमसुम न बैठो।
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फूल तो फूल हैं
फूल तो फूल हैं
कहीं भी खिलते हैं।
कभी नयनों में द्युतिमान होते हैं
कभी गालों पर महकते हैं
कभी उपवन को सुरभित करते हैं,
तो कभी मन को
आनन्दित करते हैं,
मन के मधुर भावों को
साकार कर देते हैं
शब्द को भाव देते हैं
और भाव को अर्थ।
प्रेम-भाव का समर्पण हैं,
कभी किसी की याद में
गुलदानों में लगे-लगे
मुरझा जाते हैं।
यही फूल स्वागत भी करते हैं
और अन्तिम यात्रा भी।
और कभी किसी की
स्मृतियों में जीते हैं
ठहरते हैं उन पर आंसू
ओस की बूंदों से।
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झूठे रिश्तों की आड़ में
नदियाँ सूख जाती हैं सागर उफ़नते रहते हैं
मन कुंठित होता है, हम फिर भी हंसते रहते हैं
सूखे पत्ते उड़ते हैं, गिरते हैं, ठौर नहीं मिलता
झूठे रिश्तों की आड़ में हम मन बहलाये रहते हैं।