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देशभक्ति बस राजगद्दी पर बैठे लोगों की बपौती नहीं है
तिरंगा बेचती हूं,आत्मनिर्भर हूं,कोई फिरौती नहीं है
भिक्षा नहीं,दान नहीं,दया नहीं,आत्मग्लानि भी नहीं
पीड़ा नहीं कि शिक्षित नहीं हैं,मुस्कानों में कटौती नहीं है
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साहस है मेरा
साहस है मेरा, इच्छा है मेरी, पर क्यों लोग हस्तक्षेप करने चले आते हैं
जीवन है मेरा, राहें हैं मेरी, पर क्यों लोग “कंधा” देने चले आते हैं
अपने हैं, सपने हैं, कुछ जुड़ते हैं बनते हैं, कुछ मिटते हैं, तुमको क्या
जीती हूं अपनी शर्तों पर, पर पता नहीं क्यों लोग आग लगाने चले आते हैं
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चल आगे बढ़ जि़न्दगी
भूल-चूक को भूलकर, चल आगे बढ़ जि़न्दगी
अच्छा-बुरा सब छोड़कर, चल आगे बढ़ जि़न्दगी
हालातों से कभी-कभी समझौता करना पड़ता है
बदले का भाव छोड़कर, चल आगे बढ़ जि़न्दगी
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अभिनन्दन करते मातृभूमि का
वन्दन करते, अभिनन्दन करते मातृभूमि का जिस पर हमने जन्म लिया।
लोकतन्त्र देता अधिकार असीमित, क्या कर्त्तव्यों की ओर कभी ध्यान दिया।
देशभक्ति के नारों से, कुछ गीतों, कुछ व्याखानों से, जय-जय-जयकारों से ,
पूछती हूं स्वयं से, इससे हटकर देशहित में और कौन-कौन-सा कर्म किया।
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निडर भाव रख
राही अपनी राहों पर चलते जाते
मंज़िल की आस लिए बढ़ते जाते
बाधाएँ तो आती हैं, आनी ही हैं
निडर भाव रख मन की करते जाते।
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ज़िन्दगी के गीत
ज़िन्दगी के कदमों की तरह
बड़ा कठिन होता है
सितार के तारों को साधना।
बड़ा कठिन होता है
इनका पेंच बांधना।
यूँ तो मोतियों के सहारे
बांधी जाती हैं तारें
किन्तु ज़रा-सा
ढिलाई या कसाव
नहीं सह पातीं
जैसे प्यार में ज़िन्दगी।
मंद्र, मध्य, तार सप्तक की तरह
अलग-अलग भावों में
बहती है ज़िन्दगी।
तबले की थाप के बिना
नहीं सजते सितार के सुर
वैसे ही अपनों के साथ
उलझती है जिन्दगी
कभी भागती, कभी रुकती
कभी तानें छेड़ती,
राग गाती,
झाले-सी दनादन बजती,
लड़ती-झगड़ती
मन को आनन्द देती है ज़िन्दगी।
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ज़िन्दगी ज़िन्दगी हो उठी
प्रकृति में
बिखरे सौन्दर्य को
अपनी आँखों में
समेटकर
मैंने आँखें बन्द कर लीं।
हवाओं की
रमणीयता को
चेहरे से छूकर
बस गहरी साँस भर ली।
आकर्षक बसन्त के
सुहाने मौसम की
बासन्ती चादर
मन पर ओढ़ ली।
सुरम्य घाटियों सी गहराई
मन के भावों से जोड़ ली।
और यूँ ज़िन्दगी
सच में ज़िन्दगी हो उठी।
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आनन्द के कुछ पल
संगीत के स्वरों में कुछ रंग ढलते हैं
मनमीत के संग जीवन के पल संवरते हैं
ढोल की थाप पर तो नाचती है दुनिया
हम आनन्द के कुछ पल सृजित करते हैं।
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कोशिश तो करते हैं
लिखने की
कोशिश तो करते हैं
पर क्या करें हे राम!
छुट्टी के दिन करने होते हैं
घर के बचे-खुचे कुछ काम।
धूप बुलाती आंगन में
ले ले, ले ले विटामिन डी
एक बजे तक सेंकते हैं
धूप जी-भरकर जी।
फिर करके भारी-भारी भोजन
लेते हैं लम्बी नींद जी।
संध्या समय
मंथन पढ़ते-पढ़ते ही
रह जाते हैं हम
जब तक सोंचे
कमेंट करें
आठ बज जाते हैं जी।
फिर भी
लिखने की
कोशिश तो करते हैं
पर क्या करें हे राम!
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जीवन में पतंग-सा भाव ला
जीवन में पतंग-सा भाव ला।
आकाश छूने की कोशिश कर।
पांव धरा पर रख।
सूरज को बांध
पतंग की डोरी में।
उंची उड़ान भर।
रंगों-रंगीनियों से खेल।
मन छोटा न कर।
कटने-टूटने से न डर।
एक दिन
टूटना तो सभी को है।
बस हिम्मत रख।
आकाश छू ले एक बार।
फिर टूटने का,
लौटकर धरा पर
उतरने का दुख नहीं सालता।
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एक पंथ दो काज
आजकल ज़िन्दगी
न जाने क्यों
मुहावरों के आस-पास
घूमने लगी है
न तो एक पंथ मिलता है
न ही दो काज हो पाते हैं।
विचारों में भटकाव है
जीवन में टकराव है
राहें चौराहे बन रही हैं
काज कितने हैं
कहाँ सूची बना पाते हैं
कब चयन कर पाते हैं
चौराहों पर खड़े ताकते हैं
काज की सूची
लम्बी होती जाती है
राहें बिखरने लगती हैं।
जो राह हम चुनते हैं
रातों-रात वहां
नई इमारतें खड़ी हो जाती हैं
दोराहे
और न जाने कितने चौराहे
खिंच जाते हैं
और हम जीवन-भर
ऊपर और नीचे
घूमते रह जाते हैं।