Share Me
सोच में पड़ गई
आज न तो गणतन्त्र दिवस है,
न स्वाधीनता दिवस, न शहीदी दिवस
और न ही किसी बड़े नेता की जयन्ती ।
न ही समाचारों में ऐसा कुछ देखा
कि देश की याद सता जाती।
फिर आज मुझे
देश की याद क्यों सता गई ।
कुछ गिने-चुने दिनों पर ही तो
याद आती है हमें अपने देश की,
जब एक दिन का अवकाश मिलता है।
और हम आगे-पीछे के दिन गिनकर
छुट्टियां मनाने निकल जाते हैं
अन्यथा अपने स्वार्थ में डूबे,
जोड़-तोड़ में लगे,
कुछ भी अच्छा-बुरा होने पर
सरकार को कोसते,
अपना पल्ला झाड़ते
चाय की चुस्कियों के साथ राजनीति डकारते
अच्छा समय बिताते हैं।
पर सोच में पड़
आज मुझे देश की याद क्यों सता गई
पर कहीं अच्छा भी लगा
कि अकारण ही
आज मुझे देश की याद सता गई ।
Share Me
Write a comment
More Articles
घर की पूरी खुशियां बसती थी
आंगन में चूल्हा जलता था, आंगन में रोटी पकती थी,
आंगन में सब्ज़ी उगती थी, आंगन में बैठक होती थी
आंगन में कपड़े धुलते थे, आंगन में बर्तन मंजते थे
गज़ भर के आंगन में घर की पूरी खुशियां बसती थी
Share Me
कौन है अपना कौन पराया कैसे जानें हम
अधिकार भी व्यापार हो गये हैं
तंग गलियों में हथियार हो गये हैं।
किसको मारें किसको काटें
कौन जलेगा, कहां मरेगा
अब क्या जानें हम।
अंधेरी राहों में भटक रहे हैं
अपने ही चेहरों से अनजाने हम।
दिन की भटकन छूट गई
रातें भीतर बिखर गईं
कौन है अपना कौन पराया
कैसे जानें हम।
अनजानी राहों पर
किसके पीछे
क्यों निकल पड़े हैं
इतना भी न जाने हम।
अपना ही घर फूंक रहे हैं,
राख में मोती ढूंढ रहे हैं,
श्मशानों में न घर बनते
इतना कब जानेंगे हम।
Share Me
तल से अतल तक
तल से अतल तक
धरा से गगन तक
विस्तार है मेरा
काल के गाल में
टूटते हैं
बिखरते हैं
अकेलेपन से जूझते हैं
फिर संवरते हैं।
बस
इसी आस में
जीवन संवरते हैं !!!!!
Share Me
घुमक्कड़ हो गया है मन
घुमक्कड़ हो गया है मन
बिन पूछे बिन जाने
न जाने
निकल जाता है कहां कहां।
रोकती हूं, समझाती हूं
बिठाती हूं , डराती हूं, सुलाती हूं।
पर सुनता नहीं।
भटकता है, इधर उधर अटकता है।
न जाने किस किस से जाकर लग जाता है।
फिर लौट कर
छोटी छोटी बात पर
अपने से ही उलझता है।
सुलगता है।
ज्वालामुखी सा भभकता है।
फिर लावा बहता है आंखों से।
Share Me
टूटे घरों में कोई नहीं बसता
दिल न हुआ,
कोई तरबूज का टुकड़ा हो गया ।
एक इधर गया,
एक उधर गया,
इतनी सफाई से काटा ,
कि दिल बाग-बाग हो गया।
-
जिसे देखो
आजकल
दिल हाथ में लिए घूमते हैं ,
ज़रा सम्हाल कर रखिए अपने दिल को,
कभी कभी अजनबी लोग,
दिल में यूं ही घर बसा लिया करते हैं,
और फिर जीवन भर का रोग लगा जाते हैं ।
-
वैसे दिल के टुकड़े कर लिए
आराम हो गया ।
न किसी के इंतज़ार में हैं ।
न किसी के दीदार में हैं ।
टूटे घरों में कोई नहीं बसता ।
जीवन में एक ठीक-सा विराम हो गया ।
Share Me
आई आंधी टूटे पल्लव पल भर में सब अनजाने
जीवन बीत गया बुनने में रिश्तों के ताने बाने।
दिल बहला था सबके सब हैं अपने जाने पहचाने।
पलट गए कब सारे पन्ने और मिट गए सारे लेख
आई आंधी, टूटे पल्लव,पल भर में सब अनजाने !!
Share Me
दोहरी मानसिकता
अपने पाँव पर आप हथौड़ी मारना मुहावरा तो सुना ही होगा आपने। महिलाओं के जीवन पर पूरा फ़िट होता है। इसी अर्थ को ध्वनित करते और भी बहुत से मुहावरे हैं, अभी याद नहीं आ रहे। जैसे अपने लिए कुँआ खोदना अथवा अपने लिए गढ्ढा खोदना आदि-आदि। जो कुठाराघात, हथौड़ा अपने विरुद्ध उठे कदमों पर उठाना चाहिए, अपने साथ हो रहे अन्याय पर उठाना चाहिए, मृत परम्पराओं, शोषण प्रधान रीति-रिवाज़ों पर उठाना चाहिए, वे अपने पर ही चलाती रहती हैं और फिर अपने लिए कहती हैं: वाह-वाह, वाह-वाह-वाह!!
महिलाएँ सारा जीवन यही करती हैं। वे तय ही नहीं कर पातीं कि उन्हें जीवन में क्या चाहिए और कितना और किसके लिए चाहिए।
संस्कार, रीति-रिवाज़, परम्पराएँ, व्रतोपवास, पूजा-अर्चना, अर्थात भारतीयता, भारतीय संस्कृति उनके भीतर बोलती है। किन्तु पढ़ना भी है, नौकरी भी करनी है, स्वभाव में व रहन-सहन में पुरातनता नहीं दिखनी चाहिए। किन्तु इतनी आधुनिकता भी न दिखे कि लोग अंगुलियां उठाने लगें। अन्यान्य गतिविधियों में भी आजकल पांरगत होना आवश्यक है। घर-गृहस्थी, परिवार तो उनका दायित्व रहता ही है। आत्मनिर्भर होना आवश्यक है। किन्तु इतना आत्मनिर्भर भी न हो जायें कि पुरुष, पति अथवा परिवार पर हावी होने लगें। गाड़ी चलाना भी सीखना चाहिए। उनके जीवन की सार्थकता सभी रिश्तों को ओढ़कर चलने और उनकी सफ़लता में है, वही उनका व्यक्तित्व है और इससे ही समाज उनके व्यक्तित्व को पारिभाषित करता है।
उनमें संस्कारों के प्रति गहरी आस्था रहती है। वे रीति-रिवाज़ों का पालन भी करना चाहती हैं और उन्हें बदलना भी चाहती हैं।
बहुत पहले की बात है जब समाचार पत्रों में वैवाहिक विज्ञापनों का बहुत महत्व हुआ करता था। उस समय लड़कों की ओर से लड़कियों के लिए प्रकाशित होने वाले विज्ञापनों की भाषा कुछ इस तरह की हुआ करती थी, ‘‘आवश्यकता है एक संस्कारी, पारिवारिक, घरेलू लड़की की , जो घर का काम-काज जानती हो। अनुपम सुन्दरी,गोरा रंग, आकर्षक, पतली, कान्वैंट से पढ़ी, लड़का विदेश में सैटलड्। देश-विदेश में फैला व्यवसाय, लड़की माहौल के अनुसार एडजैस्ट हो सके।’’
मुझे यह विज्ञापन अधूरा लगता था। तब मैंने पहले दिये गये विवरण के अतिरिक्त लिखा था, ‘‘ आवश्यकता है एक लड़की की, ..................... जो किटी, क्लब के योग्य हो, करवाचैथ का व्रत रखना जानती हो, मेंहदी लगाना, लाल साड़ी पहनना, मांग में सिंदूर और और इस तरह के सभी कार्यक्रम जानती हो। आवश्यकता पड़ने पर साड़ी को सूट, मिनी स्कर्ट बनाना जानती हो, और मिनी स्कर्ट को स्विमिंग सूट बनाना जानती हो। साग-मक्की की रोटी बनाना और चिकन खाना जानती हो, भरतनाट्यम में पाॅप और कथक में बैले करना जानती हो।’’ क्योंकि विदेशों में भारतीय संस्कृति का प्रदर्शन महिलाओं के ही माध्यम से उनके पति करते हैं।
यद्यपि इस तरह के विज्ञापन बहुत ही पुरानी बात है किन्तु इस तरह के भाव आज भी हमारे समाज में जीवन्त हैं।
मैं जानती हो आप कहेंगे कि यह तो अतिशयोक्ति है अथवा अपमानजनक है। किन्तु इन शब्दों का प्रयोग चाहे न हो किन्तु चाहतें तो ऐसी ही होती हैं और जीवन के इस दोहरेपन को स्वीकार करते हुए हम अपने ही हाथ में हथौड़ा लिए रहते हैं।
किन्तु इस दोहरेपन के लिए न समाज दोषी है और न पुरुष-समाज। महिलाएं स्वयं ही अपनी जीवन-शैली निश्चित-निर्धारित नहीं कर पातीं। वे यही देखती रह जाती हैं कि सामने वाले क्या चाहते हैं। फिर वे माता-पिता, भाई, पति, समाज, कार्य-स्थल कुछ भी हो सकता है। उनके निर्णय दूसरों की अपेक्षाओं से अत्याधिक प्रभावित होते हैं।
Share Me
नेह की पौध बीजिए
घृणा की खरपतवार से बचकर चलिए।
इस अनचाही खेती को उजाड़कर चलिए।
कब, कहां कैसे फैले, कहां समझें हैं हम,
नेह की पौध बीजिए, नेह से सींचते चलिए।
Share Me
रोशनी की परछाईयां भी राह दिखा जाती हैं
अजीब है इंसान का मन।
कभी गहरे सागर पार उतरता है।
कभी
आकाश की उंचाईयों को
नापता है।
ज़िन्दगी में अक्सर
रोशनी की परछाईयां भी
राह दिखा जाती हैं।
ज़रूरी नहीं
कि सीधे-सीधे
किरणों से टकराओ।
फिर सूरज डूबता है,
या चांद चमकता है,
कोई फ़र्क नहीं पड़ता।
ज़िन्दगी में,
कोई एक पल
तो ऐसा होता है,
जब सागर-तल
और गगन की उंचाईयों का
अन्तर मिट जाता है।
बस!
उस पल को पकड़ना,
और मुट्ठी में बांधना ही
ज़रा कठिन होता है।
*-*-*-*-*-*-*-*-*-
कविता सूद 1.10.2020
चित्र आधारित रचना
यह अनुपम सौन्दर्य
आकर्षित करता है,
एक लम्बी उड़ान के लिए।
रंगों में बहकता है
किसी के प्यार के लिए।
इन्द्रधनुष-सा रूप लेता है
सौन्दर्य के आख्यान के लिए।
तरू की विशालता
संवरती है बहार के लिए।
दूर-दूर तम फैला शून्य
समझाता है एक संवाद के लिए।
परिदृश्य से झांकती रोशनी
विश्वास देती है एक आस के लिए।
Share Me
किसके हाथ में डोर है
नगर नगर में शोर है यहां गली-गली में चोर है
मुंह ढककर बैठे हैं सारे, देखो अन्याय यह घोर है
समझौते की बात हुई, कोई किसी का नाम न ले
धरने पर बैठै हैं सारे, ढूंढों किसके हाथ में डोर है